उदय :-
♦ सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के बाद जिस सभ्यता का उदय हुआ उसे वैदिक अथवा आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है।
♦ वैदिक सभ्यता की जानकारी के स्रोत वेद हैं जिनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन व सर्वाधिक बड़ा स्रोत है।
♦ यह भारत की प्रथम ग्रामीण सभ्यता मानी गई है। (लौह युगीन)
♦ वेदों में इस सभ्यता के संस्थापकों को आर्य कहा गया है।
आर्य :-
♦ आर्य संस्कृत भाषा का शब्द है जो “अरि+य” से मिलकर बना है।
♦ आर्य भाषा सूचक शब्द है यह प्रजाति सूचक शब्द नहीं है।
♦ आर्य का शाब्दिक अर्थ है- सुसंस्कृत/उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति।/श्रेष्ठ
आर्यों का मूल स्थान :-
विद्वान | मत |
बाल गंगाधर तिलक | उत्तरी ध्रुव |
दयानंद सरस्वती | तिब्बत |
मैक्समूलर (जर्मनी के विद्वान) | मध्य एशिया |
गंगानाथ झा | ब्रह्मर्षि देश |
अविनाशचन्द्रदास, डॉ. सम्पूर्णानन्द | सप्तसैंधव प्रदेश |
राजबली पाण्डेय | मध्य भारत |
गाइल्स | हंगरी या डेन्यूब नदी घाटी |
पेंका, हर्ट | जर्मन स्कैंडेवेनिया |
वैदिक साहित्य :-
♦ वैदिक काल में सम्पूर्ण जानकारी वैदिक साहित्य से प्राप्त होती है।
वेद :-
♦ वेद का शाब्दिक अर्थ ज्ञान का भंडार है।
♦ वेदों के रचनाकार : अपौरुषेय (अर्थात् वेदों की रचना किसी पुरुष विशेष के द्वारा नहीं की गई)
♦ वेदों को दैव्य ज्ञान का अंश माना गया है।
♦ इसका संकलन - महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास।
वेद चार हैं–
1. ऋग्वेद 2. यजुर्वेद 3. सामवेद 4. अथर्ववेद
♦ ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद को वेदत्रयी भी कहा जाता है।
♦ यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद ये उत्तरवैदिक काल की रचनाएँ हैं।
♦ ऋग्वेद को एक प्रारंभिक वैदिक ग्रंथ माना जाता है, जिसने लगभग 1000 ई. पू. तक अंतिम आकार ग्रहण कर लिया था जबकि अन्य तीन वेदों को बाद के काल का माना जाता है।
♦ इन वेदों की रचना और इनका संकलन एक लंबी अवधि में लगभग 1500 ई. पू. के बाद से एक हजार वर्ष तक हुआ था।
♦ वेदों के बाद अन्य ग्रंथों में “ब्राह्मण ग्रन्थ” जिनमें मिथक और दंतकथाएँ हैं तथा कर्मकांड की व्याख्या और परिभाषा स्वरूप वेदों पर की गई व्यापक टिप्पणियाँ अथवा टीकाएँ हैं। प्रमुख तौर पर दार्शनिक ग्रंथ “आरण्यक” और “उपनिषदों” को भी बाद के वैदिक काल का माना जाता है। इनमें से प्राचीनतम ग्रंथ की रचना लगभग 1000-600 ई. पू. के बीच हुई थी।
ऋग्वेद :
♦ यह आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
♦ ऋग्वेद की ऋचाएँ सामान्यतया अग्नि देवता को संबोधित हैं, इन ऋचाओं को दस पुस्तकों अथवा 'मंडलों' में विभाजित किया जाता हैं।
♦ ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से संबंधित रचनाओं का संग्रह है।
♦ प्रथम एवं दशम मंडल सबसे अन्त में जोड़े गए हैं तथा 2 से 7 मंडल ‘वंश मंडल’ के नाम से भी जाने जाते हैं।
♦ इसमें कुल 1028 सूक्त हैं तथा 10562 मंत्र हैं (लगभग 10600)।
♦ इसकी भाषा पद्यात्मक है।
♦ ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में कहा गया है कि “सत्य (ईश्वर या परमसत्य) एक ही है किन्तु विद्वान उसे अनेक नामों से पुकारते हैं।“
♦ 'गायत्री मंत्र' सविता (सवितृ) देवता को समर्पित है। इसका उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मंडल में है। इसके रचनाकार विश्वामित्र हैं।
♦ ऋग्वेद में राजा को 'गोप्ता जनस्य' तथा 'पुराभेत्ता' अर्थात् नगरों पर विजय पाने वाला कहा गया है।
♦ ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाला ऋषि या पुरोहित “होता” (होतृ) कहलाता था।
♦ नौवें मण्डल में सोमदेवता का उल्लेख मिलता हैं। ऋग्वेद के 10 वें मंडल में पुरुष सूक्त में पहली बार चार वर्णों का उल्लेख मिलता है।
♦ ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ हैं-
1. शाकल 2. माण्डूक्य
3. वाष्कल 4. आश्वलायन
5. शांखायन
♦ ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रन्थ ऐतरेय व कौषीतकि हैं।
♦ वर्तमान में केवल शाकल शाखा ही शेष है बाकी लुप्तप्राय है।
यजुर्वेद :
♦ यजु का अर्थ होता है- ‘यज्ञ’
♦ यजुर्वेद में कुल – 40 अध्याय व 1990 मंत्र संकलित है।
♦ यजुर्वेद में यज्ञ विधियों का वर्णन किया गया है।
♦ यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक तथा गद्यात्मक दोनों हैं। इसमें संस्कृत गद्य की कुछ प्राचीनतम रचनाएँ हैं।
♦ यजुर्वेद के कर्मकांडों को सम्पन्न करवाने वाला पुरोहित “अध्वर्यु” कहलाता है।
♦ ब्राह्मण ग्रन्थ– (1) शुक्ल यजुर्वेद – शतपसथ (2) कृष्ण यजुर्वेद - तैत्तिरीय
♦ यजुर्वेद के दो भाग हैं:-
1. शुक्ल यजुर्वेद –
- यह वेद केवल मंत्र पद्य में है।
- उत्तर भारत में प्रचलित है।
- यह सबसे प्रामाणिक शाखा है।
- इसे वाजसनेयी संहिता भी कहा जाता है।
2. कृष्ण यजुर्वेद –
- यह वेद पद्य और गद्य दोनों में हैं।
- दक्षिण भारत में सर्वाधिक मान्यता है।
सामवेद :
♦ सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने के उद्देश्य से की गई थी।
♦ “साम” का अर्थ है- “गायन”
♦ सामवेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाला “उद्गाता” कहलाता है।
♦ कुल मंत्रों की संख्या – 1549 हैं तथा मूल मंत्र 75 हैं।
♦ ब्राह्मण ग्रन्थ – तांड्य (पंचविश), षड्विश, जैमिनीय
♦ सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है इसे “भारतीय संगीत का जनक” भी कहते हैं।
♦ सामवेद में ऋग्वेद से लिए गए मंत्र हैं जिन्हें धुन की आवश्यकता अनुसार क्रम दिया गया है।
♦ सूर्य की स्तुति इसी वेद में है।
अथर्ववेद :
♦ अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी।
♦ इसमें रोग तथा उसके निवारण के साधन के रूप में जादू, टोना आदि की जानकारी दी गई है।
♦ इसे अनार्यों की कृति मानी जाती है।
♦ इस वेद में कुल 5987/6000 मंत्र एवं 20 कांड हैं।
♦ इसे अक्सर लोक विश्वासों और व्यवहारों की अंतरंग जानकारी देने वाला ग्रंथ माना जाता है।
♦ अथर्ववेद एक मात्र वेद है जिसका कोई भी आरण्यक नहीं है।
ग्रंथ/वेद | ऋग्वेद | कृष्णयजुर्वेद | शुक्ल यजुर्वेद | सामवेद | अथर्ववेद |
उपवेद | आयुर्वेद |
| धनुर्वेद | गंधर्ववेद | शिल्पवेद |
ब्राह्मण ग्रंथ | ऐतरेय | कौषीतकि, तैत्तिरीय | शतपथ | पंचविश | गोपथ |
आरण्यक | ऐतरेय | सांख्यायन, तैत्तिरीय | बृहदारण्यक | जैमिनीय | – |
उपनिषद् | ऐतरेय | कौषीतकि, तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर | ईशावास्य, बृहदारण्यक | छांदोग्य-केन | प्रश्न, मुंडक, माण्डुक्य |
वेद | पुरोहित |
ऋग्वेद | होता |
यजुर्वेद | अध्वर्यु |
सामवेद | उद्गाता |
अथर्ववेद | ब्रह्मा |
♦ श्रुति :- वेदों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सुनकर (बोलकर) हस्तांतरित करना।
♦ स्मृतियाँ :- वेदों को याद करके एक से दूसरों को सुनाना!, स्मृतियाँ वेदों के अनुपूरक ग्रंथ है।
♦ इन्हें वैदिक साहित्य में शामिल नहीं किया गया है।
♦ सबसे प्राचीनतम स्मृति - मनु स्मृति है।
♦ आरण्यक :- वानप्रस्थ आश्रम के दौरान लिखे गए ग्रंथ आरण्यक ग्रंथ कहलाए। इन्हें “वन पुस्तक” भी कहा जाता है।
♦ ब्राह्मण ग्रंथ :- वेदों की विशेष व्याख्या करने वाले ग्रंथ।
♦ उपनिषद् :- तीन शब्दों से मिलकर बना है-
उप + नि + षद्
समीप ध्यानपूर्वक बैठना
♦ शाब्दिक अर्थ – गुरु के समीप ध्यानपूर्वक बैठना।
♦ कुल उपनिषद् – 108
♦ प्रमुख उपनिषद् – 12
♦ प्रमुख 12 उपनिषद – ईश, कठ, केन, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, कौषीतकि, वृहद्, श्वेताश्वतर, ऐतरेय।
♦ उपनिषद वेदों के अन्त में आते हैं अत: इसे वेदान्त भी कहा जाता है।
♦ उपनिषदों में मुख्यतया “आत्मा” और “ब्रह्म” का वर्णन है।
♦ उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र व गीता को सम्मिलित रूप से “प्रस्थान-त्रयी” कहा जाता है।
♦ उपनिषद् प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है।
♦ 'सत्यमेव जयते' वाक्यांश मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है।
वेदांग और सूत्र साहित्य:-
♦ वेदांगों की संख्या छह हैं - शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
♦ सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग न होने के बावजूद उसे समझने में सहायक है।
♦ सूत्र साहित्य के तीन उपविभाजन हैं-
(1) श्रोत सूत्र- इनमें अश्वमेध और राजसूय जैसे यज्ञों का विवरण है।
(2) गृह्य सूत्र- इनमें अंतिम संस्कार सहित घरेलू कर्मकांडों के नियम दिए गए हैं।
(3) धर्म सूत्र- इनमें सामाजिक नियम दिए गए हैं।
ऋग्वैदिक काल (1500 – 1000 ई. पू.)
♦ इस काल की सम्पूर्ण जानकारी हमें ऋग्वेद से मिलती है।
♦ ऋग्वेद में आर्य निवास के लिए सर्वत्र सप्तसैंधव शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है - सात नदियों का क्षेत्र।
नदियों के प्राचीन एवं नवीन नाम
प्राचीन नाम | आधुनिक नाम |
वितस्ता | झेलम |
अस्किनी | चिनाब |
विपासा (विपाशा) | व्यास |
परुष्णी | रावी |
शतुद्रि | सतलज |
कुभा | काबुल |
क्रुमु (क्रुभु) | कुर्रम |
गोमती | गोमल |
दृषद्वती | घग्घर/रक्षी/चितंग |
♦ शतपथ ब्राह्मण में रेवा (नर्मदा) और गण्डक नदियों का उल्लेख मिलता है साथ ही इसका केन्द्र पंजाब से बढ़कर गंगा यमुना दोआब तक हो गया था।
♦ आर्यों का भौगोलिक विस्तार पंजाब, अफगानिस्तान, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश या यमुना नदी के पश्चिम भाग तक था।
♦ सिंधु सभ्यता के विपरीत वैदिक सभ्यता मूलत: ग्रामीण थी। आर्यों का आरंभिक जीवन पशु चारण पर आधारित था।
राजनीतिक व्यवस्था :-
राजा:-
♦ ऋग्वैदिक काल में सामान्यतः राजतंत्र का प्रचलन था परन्तु राजा का पद दैवीय नहीं माना जाता था।
♦ ऋग्वैदिक समाज कबीलाई व्यवस्था पर आधारित था। कबीले का एक राजा होता था, जिसे 'गोप' कहा जाता था।
♦ कबीलाई सभा द्वारा राजा को चुने जाने की सूचना मिलती है।
♦ सभा, समिति व विदथ का ऋग्वेद में उल्लेख है। सभा व समिति राजा पर नियंत्रण का कार्य करती थी।
सभा:-
♦ सभा एवं समिति को अथर्ववेद में प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है।
♦ अथर्ववेद में सभा को नरिष्ठा या रिष्ट (अजेया) एवं सप्त संसद कहा गया है।
♦ सभा के अध्यक्ष को सभ्य तथा सदस्यों को सुजात कहा जाता था।
♦ सभा श्रेष्ठ जनों की संस्था थी जबकि समिति आम जन-प्रतिनिधि सभा थी, जिसमें जन के समस्त लोग सम्मिलित होते थे।
समिति:-
♦ समिति का अध्यक्ष “ईशान” कहलाता था।
♦ इस काल में कोई नियमित कर व्यवस्था नहीं थी।
विदथ:-
♦ ऋग्वेद में सबसे प्राचीन संस्था “विदथ” थी।
♦ “विदथ” सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्था भी थी।
प्रशासन की इकाई:-
♦ जन, विश, ग्राम एवं कुल इस काल की क्रमशः बड़ी से छोटी प्रशासनिक इकाईयाँ थी।
♦ जन – इसका प्रमुख गोपति या जनस्य गोपा या जनराजन कहलाता था।
♦ विश – इसका प्रमुख विशपति होता था।
♦ ग्राम – इसका प्रमुख ग्रामणी था।
♦ कुल - इसका प्रमुख कुलपा था। वह परिवार का प्रधान होता था
दशराज्ञ युद्ध
♦ ऋग्वेद के सातवें मण्डल में दाशराज्ञ युद्ध का वर्णन आता है। यह युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे लड़ा गया था। यह युद्ध भरतवंश के राजा सुदास तथा दस अन्य जनों (5 आर्य व आर्येतर) के मध्य लड़ा गया था।
♦ दाशराज्ञ युद्ध में भरत जन के राजा सुदास का पुरोहित वशिष्ठ था तथा पराजित राजा का पुरोहित विश्वामित्र था।
सामाजिक स्थिति :
♦ ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार थी। कई परिवार मिलकर ग्राम तथा कई ग्राम मिलकर 'विश' एवं कई विश मिलकर जन का निर्माण करते थे।
♦ इकाई ® परिवार ® कुल ® ग्राम ® विश ® जन
♦ पितृसत्तात्मक परिवार वैदिककालीन सामाजिक जीवन का केन्द्र बिन्दु था।
♦ प्रारम्भ में इस काल का समाज वर्गविभेद से रहित था।
♦ ऋग्वेद में वर्ण शब्द कहीं - कहीं रंग तथा कहीं - कहीं व्यवसाय के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
♦ स्त्रियाँ सभा व विदथ में भाग लेती थी।
♦ विधवा विवाह, नियोग प्रथा, अंतर्जातीय विवाह, बहुपत्नीत्व, बहुपतित्व प्रथा का प्रचलन था।
♦ बाल विवाह, सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
♦ आजीवन अविवाहित रहने वाली महिला को 'अमाजू' कहते थे।
♦ ऋग्वेद काल में दास प्रथा विद्यमान थी।
♦ आर्य शाकाहारी भोजन करते थे।
♦ आर्यों में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था।
वर्ण व्यवस्था :-
♦ ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के पुरुष सूक्त में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख मिलता है।
♦ ऋग्वेद के दशम मंडल के 'पुरुष सूक्त' पहली बार चारों वर्णों का उल्लेख आता है।
♦ ऋग्वैदिक वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी।
वर्ण | उत्पत्ति | कार्य |
ब्राह्मण | मुख से | यज्ञ, हवन, मंत्रोच्चारण आदि |
क्षत्रिय | भुजाओं से | शासन, अन्य वर्णों की रक्षा |
वैश्य | जाँघों से | व्यापार, वाणिज्य |
शुद्र | पैरों से | इस वर्ग के कार्य उपर्युक्त 3 वर्णों की सेवा करना। |
आश्रम व्यवस्था :-
♦ सम्पूर्ण मानव जीवन को 100 वर्ष का मानते हुए इसे 4 बराबर भागों में विभाजित किया गया है।
♦ सर्वप्रथम 'छान्दोग्य उपनिषद्’ में प्रारंभिक 3 आश्रमों का उल्लेख मिलता है परन्तु चारों आश्रमों का उल्लेख ‘जाबालोपनिषद्’ में मिलता है।
♦ आश्रम व्यवस्था पूर्ण रूप से उत्तरवैदिक काल में विकसित हुई।
ब्रह्मचर्य आश्रम | 0 - 25 वर्ष |
गृहस्थ आश्रम | 26 - 50 वर्ष |
वानप्रस्थ आश्रम | 51 - 75 वर्ष |
संन्यास आश्रम | 76 - 100 वर्ष |
धार्मिक स्थिति :
♦ ऋग्वैदिक आर्य बहुदेववादी थे तथा प्रकृति की पूजा करते थे।
1 1.पृथ्वी के देवता – अग्नि, सोम, बृहस्पति, आपानपात आदि।
2. अन्तरिक्ष के देवता – रुद्र, इन्द्र, प्रजापति, पर्जन्य आदि।
3. द्युस्थान (आकाश) के देवता – द्यौस, वरुण, मित्र, विष्णु आदि।
♦ ऋग्वेद काल में इन्द्र सबसे प्रमुख देवता था। ऋग्वेद के 250 सूक्त इन्द्र को समर्पित हैं। यह युद्ध, बादल एवं वर्षा का देवता था इसे पुरंदर कहा गया है।
♦ सोम वनस्पति का देवता था।
बोगजकोई अभिलेख | |
खोज | ह्यूगो विंकलर (1907 में) |
स्थिति | एशिया माइनर (तुर्की) |
लिपि | कीलक (Cuneiform Script) |
भाषा | हिन्द-यूरोपीय (भारोपीय) |
विशेष- इसमें हित्ती एवं मित्तनी नरेश के बीच एक संधि का उल्लेख है जिसमें आर्यपरक नामों के साथ वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरुण और नास्त्य (अश्विनी कुमार) का उल्लेख है। |
उत्तर वैदिक काल (1000 – 600 ई. पू.)
♦ जिस काल में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, आरण्यक तथा उपनिषद् की रचना हुई उसे उत्तरवैदिक काल (1000-600 ई. पू.) कहते हैं।
♦ इस काल से लौह प्रौद्योगिकी युग की शुरुआत हुई।
विवाह के आठ प्रकार –
1. ब्रह्म विवाह : कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता द्वारा योग्य वर खोजकर, उससे अपनी कन्या का विवाह करना। (सर्वाधिक मान्य व प्रचलित विवाह)
2. आर्ष विवाह : कन्या के पिता द्वारा यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गायों के बदले में अपनी कन्या का विवाह करना।
3. देव विवाह : यज्ञ करने वाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह।
4. गंधर्व विवाह : कन्या तथा पुरुष प्रेम अथवा कामुकता के वशीभूत होकर विवाह करते थे। (प्रेम - विवाह)
5. असुर विवाह : कन्या के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या का विक्रय करना।
6. प्रजापत्य विवाह : वर स्वयं कन्या के पिता से कन्या माँगकर विवाह करता था।
7. राक्षस विवाह : बलपूर्वक कन्या को छीनकर उससे विवाह करना।
8. पैशाच विवाह : सोई हुई अथवा विक्षिप्त कन्या के साथ सहवास कर विवाह करना।
♦ स्मृतिकारों ने संस्कारों की संख्या 16 बताई हैं-
16 संस्कार | |
1. गर्भाधान | गर्भाधान पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रथम एवं महत्त्वपूर्ण संस्कार था। |
2. पुंसवन | गर्भाधान के तीसरे माह में पुत्र प्राप्ति के निमित्त यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। |
3. सीमन्तोन्नयन | गर्भाधान के चौथे से आठवें मास तक यह संस्कार सम्पन्न होता था। |
4. जातकर्म | शिशु के जन्म के समय जातकर्म नामक संस्कार सम्पन्न होता था। |
5. नामकरण | बच्चे के जन्म के दसवें अथवा बारहवें दिन "नामकरण" संस्कार होता था जिसमें उसका नाम रखा जाता था। |
6. निष्क्रमण | बच्चे के जन्म के तीसरे अथवा चौथे माह में यह संस्कार सम्पन्न होता था जिसमें उसे प्रथम बार घर से बाहर निकाला जाता था। |
7. अन्नप्राशन | बच्चे के जन्म के छठे माह में अन्नप्राशन नामक संस्कार होता था जिसमें प्रथम बार उसे पका हुआ अन्न खिलाया जाता था। |
8. चूड़ाकर्म | अन्नप्राशन के बाद का महत्त्वपूर्ण संस्कार चूड़ाकर्म या चौलकर्म था जिसमें पहली बार बालक के बाल काटे जाते थे। |
9. कर्ण वेध | इस संस्कार में बालक का कान छेदकर उसमें बाली अथवा कुण्डल पहना दिया जाता था। |
10. विद्यारंभ | जब बच्चे का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था, तब यह संस्कार सम्पन्न कराया जाता था जिसमें उसे अक्षरों का बोध कराया जाता था। |
11. उपनयन | “उपनयन" का शाब्दिक अर्थ है- समीप ले जाना। इसका तात्पर्य बालक को शिक्षा के निमित्त गुरु के पास ले जाने से है। |
12. वेदारंभ | इस संस्कार का उल्लेख सर्वप्रथम व्यास स्मृति में मिलता है। प्रारम्भ में उपनयन तथा वेदों का अध्ययन प्रायः एक ही साथ प्रारम्भ होता था। |
13. केशांत अथवा गोदान | गुरु के पास रहकर अध्ययन करते हुए विद्यार्थी की सोलह वर्ष की आयु में प्रथम बार दाढ़ी-मूँछ बनवाई जाती थी। इसे "केशान्त संस्कार" कहा गया है। |
14. समावर्तन | गुरुकुल में शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात् विद्यार्थी जब अपने घर लौटता था तब समावर्तन नामक संस्कार सम्पन्न होता था। |
15. विवाह | "विवाह" शब्द "वि" उपसर्गपूर्वक "वह" धातु से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है "वधू को वर के घर ले जाना या पहुँचाना।" |
प्रमुख दर्शन एवं उनके प्रवर्तक
दर्शन | प्रवर्तक |
न्याय | गौतम |
योग | पतंजलि (योगसूत्र) |
सांख्य | कपिल |
वैशेषिक | कणाद |
पूर्व मीमांसा | जैमिनी |
उत्तर मीमांसा/वेदांत | बादरायण |
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