प्रमुख राजवंश, ऐतिहासिक घटनाएँ
गुर्जर-प्रतिहार
गुर्जर जाति का सर्वप्रथम उल्लेख ‘एहोल अभिलेख’ में किया गयाहै।
गुर्जर-प्रतिहार शब्द का उल्लेख चंदेल वंश के शिलालेख मेंमिलता है।
नीलकुंड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों कोगुर्जर कहा गया है।
स्कन्द पुराण के पंच द्रविड़ों में गुर्जरों का उल्लेख मिलता है।
अरब यात्रियों ने इन्हें ‘जुर्ज’ कहा है। अलमसूदी ने गुर्जर-प्रतिहारको ‘अल गुर्जर’ और राजा को ‘बोरा’ कहा है।
मुहणोत नैणसी ने गुर्जर-प्रतिहारों की ‘26 शाखाओं’ का वर्णनकिया, जिनमें - मंडोर, जालोर, राजोगढ़, कन्नौज, उज्जैन औरभड़ौच के गुर्जर-प्रतिहार प्रसिद्ध रहे थे।
मारवाड़ गुर्जर-प्रतिहार वंश की स्थापना - ‘हरिश्चन्द्र’ (रोहिलिद्ध) द्वारा
समय - छठी शताब्दी ईस्वी
राजधानी - मंडोर
गुर्जर-प्रतिहार वंश का आदिपुरुष - हरिश्चन्द्र
गुर्जर-प्रतिहारों को भारत का ‘द्वारपाल’ कहा जाता है।
(i) मण्डोर के प्रतिहार
घटियाला शिलालेख में मण्डोर के प्रतिहार वंश की प्रारम्भिकस्थिति व वंशावली मिलती है।
घटियाला शिलालेख के अनुसार हरिश्चन्द्र नामक ब्राह्मण कीपत्नी भद्रा से चार पुत्र भोगभट्ट, कदक, रज्जिल और दह उत्पन्नहुए।
हरिश्चन्द्र के चारों पुत्रों ने माण्डव्यपुर (मण्डोर) को जीता तथाइसके चारों ओर परकोटा बनवाया।
मण्डोर के प्रतिहार वंश की वंशावली हरिश्चन्द्र के तीसरे पुत्ररज्जिल से शुरू होती है।
रज्जिल
रज्जिल ने मंडोर के आस-पास के क्षेत्रों को जीतकर अपने राज्यका विस्तार किया।
नरभट्ट
यह रज्जिल का पुत्र था जो रज्जिल का उत्तराधिकारी बना।
उपाधि - ‘पिल्लापल्ली’
नागभट्ट-प्रथम
यह नरभट्ट का पुत्र व रज्जिल का पौत्र था जो एक प्रतापी शासकथा।
उपाधि - नाहड़
घटियाला शिलालेख के अनुसार नागभट्ट-प्रथम ने मण्डोर राज्यकी पूर्वी सीमा का विस्तार कर अपनी राजधानी ‘मेड़ान्तक(मेड़ता)’ बनाई।
यशोवर्धन
यह नागभट्ट-प्रथम के पुत्र तात का पुत्र था।
राजोली ताम्रपत्र के अनुसार इसके समय पृथुवर्धन ने गुर्जर-प्रतिहार राज्य पर असफल आक्रमण किया था।
शीलूक
यह गुर्जर-प्रतिहार के राजा यशोवर्धन के पुत्र चन्दुक का पुत्र था।
घटियाला शिलालेख के अनुसार शीलुक ने देवराज भाटी से युद्धकिया तथा उसे मारकर उसके राज्य चिह्न व छत्र को छीन लियाथा।
कक्क
कक्क ने मुदागिरी (मुंगेर, बिहार) में गौड़ राजा धर्मपाल कोपराजित किया था। कक्क की पत्नी पद्मिनी से उत्पन्न पुत्र बाउकथा तथा कक्क की दूसरी पत्नी दुर्लभदेवी से उत्पन्न पुत्र कक्कुकथा।
बाउक
कक्क की मृत्यु के पश्चात् इनका उत्तराधिकारी बाउक हुआ था।
बाउक ने मयूर नामक राजा के आक्रमण को विफल किया तथाइस विजय के उपलक्ष्य में मण्डोर शिलालेख उत्कीर्ण करवायाथा।
कक्कुक
बाउक के बाद उसका भाई कक्कुक राजा बना।
इनके समय घटियाला के दो शिलालेख उत्कीर्ण किए गए थे।
घटियाला के शिलालेखों में कक्कुक को मरु, वल्ल, गुर्जरात्रा, मांड (जैसलमेर), अज्ज (मध्य प्रदेश) व तृवणी आदि राज्यों मेंख्याति फैलाने वाला राजा कहा गया है।
वट्टनानक (नाणा-बेड़ा) नामक नगर बसाया।
इसने आभीरों का आक्रमण विफल कर इसकी विजय केउपलक्ष्य में रोहिंसकूप व मण्डोर में विजय स्तम्भ का निर्माणकरवाया था।
मण्डोर की ईन्दा प्रतिहार शाखा ने हम्मीर परिहार से परेशानहोकर चूंडा राठौड़ को 1395 ई. में मण्डोर को दहेज में दे दिया।
(ii) जालोर, कन्नौज व उज्जैन के गुर्जर प्रतिहार वंश
नागभट्ट-प्रथम से जालोर प्रतिहार वंश का आरम्भ होता है।
यहाँ के गुर्जर प्रतिहार रघुवंशी प्रतिहार कहलाते हैं।
इस प्रतिहार वंश का उद्भव भी मण्डोर प्रतिहार शाखा से मानाजाता है।
नागभट्ट प्रथम
नागभट्ट प्रथम के सम य मण्डोर के प्रतिहार इनके सामन्तों के रूपमें शासन करते थे।
नागभट्ट-प्रथम का दरबार ‘नागावलोक का दरबार’ कहलाता था।
जालोर, अवन्ति एवं कन्नौज प्रतिहारों की नामावली नागभट्ट सेप्रारंभ होती है।
नागभट्ट-प्रथम गुर्जर-प्रतिहारों का प्रथम शक्तिशाली शासक था, जिसने अरबों तथा बलुचों के आक्रमण को रोके रखा इसलिए इसेप्रतिहारों में से ‘प्रथम द्वारपाल’ माना जाता है।
नागभट्ट को क्षत्रिय ब्राह्मण कहा गया है, इसलिए इस शाखा को ‘रघुवंशी प्रतिहार’ भी कहते हैं।
वत्सराज
शासनकाल - 783-795 ई.
उपाधि - रणहस्तिन
गुर्जर-प्रतिहार वंश का वास्तविक संस्थापक
वत्सराज के शासनकाल में 778 ई. में ‘उद्योतन सूरी’ ने जालोर में‘कुवलयमाला’ नामक ग्रंथ प्राकृत भाषा में और 783 ई. ‘आचार्यजिनसेन सूरी’ ने ‘हरिवंश पुराण’ ग्रन्थ की रचना की।
ओसियां के जैन मंदिर प्रतिहार शासक वत्सराज के समय निर्मितहैं।
त्रिपक्षीय/त्रिकोणात्मक संघर्ष :-
उत्तरी-पश्चिमी भारत – गुर्जर-प्रतिहार
दक्षिणी भारत – राष्ट्रकूट
बंगाल – पाल वंश
त्रिकोणात्मक संघर्ष की शुरुआत गुर्जर-प्रतिहार नरेश वत्सराज नेकी थी।
यह संघर्ष 150 वर्षों तक (लगभग) चला और इसको प्रारंभ गुर्जर-प्रतिहारों ने किया तथा अंतिम विजय भी इनकी ही हुई थी।
वत्सराज ने इन्द्रायुध को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार कियाऔर इन्द्रायुध को अपना सामन्त बनाया।
वत्सराज ने पाल वंश के शासक धर्मपाल को पराजित किया था।
राष्ट्रकूट शासक ध्रुव-प्रथम ने वत्सराज को पराजित कर उज्जैन वकन्नौज पर अधिकार कर लिया और वत्सराज वहाँ से जालोर कीओर मरुस्थल में चला गया। इस युद्ध की जानकारी ‘राधनपुर’ और ‘वनी-डिंडोरी’ अभिलेखों से मिलती है।
नागभट्ट द्वितीय
वत्सराज का उत्तराधिकारी।
उपा धि- ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ (बुचकलाअभिलेख)
इन्होंने उज्जैन और कन्नौज को जीत लिया और कन्नौज कोअपनी राजधानी बनाई।
नागभट्ट-द्वितीय के कन्नौज विजय का वर्णन ‘ग्वालियरअभिलेख’ में मिलता है।
ग्वालियर प्रशस्ति में इनको आन्ध्र, आनर्त, मालव, किरात, तुरूष्क, वत्स, मत्स्य आदि प्रदेशों का विजेता बताया गया है।
मान्यखेत के राष्ट्रकूट शासक गोविन्द-तृतीय ने नागभट्ट -द्वितीयको हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
गोविन्द-तृतीय के साम्राज्य विस्तार के बारे में इतिहासकारों नेलिखा है कि – “गोविन्द-तृतीय के घोड़े हिमालय से कन्याकुमारीतक बिना किसी शत्रु क्षेत्र में प्रवेश किए सीधे दौड़ सकते थे”।
इनका दरबार भी ‘नागावलोक का दरबार’ कहलाता था।
मुसलमानों के विरुद्ध नागभट्ट-द्वितीय के संघर्ष का प्रमाण‘खुम्माण रासो’ नामक ग्रन्थ से मिलता है।
मिहिरभोज
नागभट्ट-द्वितीय का उत्तराधिकारी
भोज के नाम से विख्यात
इनका प्रथम अभिलेख ‘वराह अभिलेख’ है, जिसकी तिथि 893 विक्रम संवत् (836 ई.) है।
मिहिरभोज को बंगाल के शासक धर्मपाल के पुत्र देवपाल नेपराजित किया।
मिहिरभोज ने क्रमश: नारायणपाल व विग्रहपाल को हराया था।
851 ई. में अरब यात्री ‘सुलेमान’ ने भारत की यात्रा की थी।
सुलेमान ने बताया कि मिहिरभोज मुसलमानों का सबसे बड़ा शत्रुथा।
कश्मीरी कवि ‘कल्हण’ ने अपने ग्रन्थ ‘राजतरंगिणी’ में मिहिरभोजके साम्राज्य का उल्लेख किया।
उ पाधि – 1. आदिवराह (ग्वालियर अभिलेख)
2. प्रभास (दौलतपुर अभिलेख)
आदिवराह (चाँदी व ताँबे के सिक्कों पर अंकित)
इनके समय में चाँदी और ताँबे के सिक्के, जिन पर‘श्रीमदादिवराह ‘अंकित रहता था।
स्कन्ध पुराण के अनुसार मिहिरभोज ने तीर्थ यात्रा करने के लिएअपने पुत्र महेन्द्रपाल को सिंहासन सौंपकर राजपाठ त्याग दियाथा।
महेंद्रपाल-प्रथम
शासनकाल - 885-910 ई.
उपाधियाँ (विद्धशालभंजिका ग्रन्थ में) –
निर्भयराज
निर्भय नरेंद्र
रघुकुल तिलक
रघुकुल चूड़ामणि
हिंदू भारत का अंतिम महान हिंदू सम्राट (बी.एन. पाठक)
दरबारी राजकवि - ‘राजशेखर’
राजशेखर द्वारा रचित ग्रंथ - ‘कर्पूरमंजरी’, ‘काव्यमीमांसा’, ‘विद्धशालभंजिका’, ‘बालभारत’, ‘प्रबंधकोष’, ‘बालरामायण’, ‘हरविलास’ और ‘भुवनकोष’
महेन्द्रपाल का शासन काठियावाड़ तक विस्तृत था।
महिपाल प्रथम
शासनकाल - 914-943 ई.
राजशेखर द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ -
आर्यावर्त का महाराजाधिराज
रघुकुलमुक्तामणि
रघुवंश-मुकुटमणि
‘प्रचंड पाण्डव’ में महिपाल की विजयों का वर्णन मिलता है।
इनके समय 915 ई. में अरब यात्री ‘अल मसूदी’ ने भारत कीयात्रा की थी।
‘कहला अभिलेख’ में कलचूरि वंश का राजा भीमदेव महिपाल केअधीन गोरखपुर प्रदेश का शासक था।
अरब यात्री ‘अल मसूदी’ के अनुसार इसने उत्तर-पश्चिम में पंजाबके ‘कुलूतों’ और ‘रनठों’ को पराजित किया था।
‘हड्डल अभिलेख’ से ज्ञात होता है कि उसका सामंत ‘धरणीवराह’ उसकी अधीनता में सौराष्ट्र पर शासन कर रहा था।
इसके समय राष्ट्रकूट वंश का शासक इन्द्र-तृतीय था, जिसनेमालवा पर आक्रमण कर उज्जैन को अपने अधिकार में ले लियाथा।
महिपाल-प्रथम ने चन्देल शासक हर्ष की सहायता से पुन: उज्जैनपर अधिकार कर लिया था।
महेन्द्रपाल द्वितीय
महिपाल-प्रथम का उत्तराधिकारी
महेन्द्रपाल-द्वितीय के पश्चात् देवपाल, विनायकपाल-द्वितीय, महिपाल-द्वितीय व विजयपाल प्रतिहार वंश के शासक हुए।
महिपाल द्वितीय
महिपाल-द्वितीय का उल्लेख बयाना अभिलेख में मिलता है।
उपाधि - महाराजाधिराज महिपाल देव (बयाना अभिलेख)
राज्यपाल
विजयपाल का उत्तराधिकारी
इनके समय कन्नौज भारत का एक सुन्दर व समृद्ध शहर था, जहाँपर 10,000 सुंदर मन्दिर थे।
कन्नौज की रक्षा हेतु कन्नौज के चारों ओर 7 किले बनाए गए।
जब 1018 ई. में गजनी के सुल्तान महमूद गजनवी ने कन्नौज परआक्रमण किया, तब राज्यपाल भागकर जंगलों में चला गया था।
इनके समय प्रतिहार वंश का शासन पुन: राजस्थान तक सिमटगया था।
इस कारण बुंदेलखंड के शासक ‘विद्याधर चंदेल’ ने राज्यपाल कोकायर कहना प्रारंभ कर दिया था।
विद्याधर चंदेल ने राज्यपाल पर आक्रमण किया। इस दौरानराज्यपाल वीरगति को प्राप्त हुआ।
यशपाल
शासनकाल - 1027-1036 ई.
कड़ा शिलालेख में यशपाल व उनके दान का वर्णन मिलता है।
गुर्जर-प्रतिहारों का अंतिम शासक।
इनके बाद गुर्जर-प्रतिहारों ने सामंतों के रूप में कुछ समय तककन्नौज पर शासन किया।
(i) मेवाड़ के गुहिल
गुहिल वंश
नामकरण – इस वंश के प्रतापी शासक गुहिल के नाम से इसवंश का नाम गुहिल हुआ तथा बाद में यह वंश गहलोत भीकहलाया।
गुहिल वंश की उत्पत्ति व मूल स्थान के संदर्भ में इतिहासकारों मेंअनेक मत प्रचलित हैं –
इतिहासकार | मत |
कर्नल जेम्स टॉड तथा श्यामलदास | गुजरात के वल्लभी से |
डी.आर. भण्डारकर (आहड़ अभिलेख के आधार पर) | ब्राह्मण की संतान (डॉ. गोपीनाथ शर्मा एवं मुहणोत नैणसी ने भी इस मत का समर्थन किया है।) |
अबुल फजल | ईरान के बादशाह नौशेखा आदिल का वंशज |
डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा व नैणसी | सूर्यवंशी |
विश्व में सर्वाधिक समय तक एक ही क्षेत्र पर राज्य करने वालाराजवंश।
इस वंश के महाराणा को ‘हिन्दुआ सूरज’ भी कहा जाता है।
संस्थापक - ‘गुहिल या गुहेदत्त’
स्थापना - लगभग 566 ई.
मुहणोत नैणसी एवं कर्नल टॉड ने गुहिलों की 24 शाखाओं का वर्णन किया है।
गुहिल/गुहादित्य
डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार लगभग 566 ई. मेंगुहिल ने अपना शासन स्थापित किया था।
गुहिल के बाद सबसे प्रतापी शासक बप्पा रावल हुए।
बप्पा रावल
शासनकाल - 734 से 753 ई.
कुंभलगढ़ प्रशस्ति (1460 ई.) में बप्पा रावल को ‘विप्र’ कहा गयाहै।
डॉ. गौरी शंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार बप्पा का वास्तविकनाम कालभोज था एवं उसने ‘बप्पा रावल’ उपाधि धारण की थी।
सी. वी. वैद्य ने बप्पा को ‘चार्ल्स मार्टेल’ कहा है ।
राजप्रशस्ति के अनुसार बप्पा रावल ने 734 ई. में चित्तौड़ केशासक मानमोरी को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार कियाऔर ‘मेवाड़ राज्य की स्थापना’ की।
बप्पा रावल ने ‘नागदा’ को अपनी राजधानी बनाई थी।
मुहणोत नैणसी एवं कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार बप्पा ने हारित ऋषि की कृपा से राज्य प्राप्त किया था।
राजस्थान में ‘सोने के सिक्के’ सर्वप्रथम बप्पा रावल ने ही चलाए थे।
उन्होंने ‘एकलिंग जी के मंदिर’ की स्थापना कैलाशपुरी (उदयपुर) में की व एकलिंग जी को शासक मानते हुए तथा स्वयं को उसकादीवान मानकर शासन किया।
गुहिल वंश के कुलदेवता - एकलिंग जी
बप्पा के समय का 115 ग्रेन का एक सोने का सिक्का मिला है।
अल्लट
उपनाम - आलू रावल
आहड़ को राजधानी बनाया।
आहड़ में वराह मंदिर का निर्माण करवाया।
मेवाड़ में ‘नौकरशाही का संस्थापक’ माना जाता है।
राष्ट्रकूटों को पराजित कर हूण राजकुमारी ‘हरिया देवी’ सेविवाह किया था।
शक्ति कुमार
परमार शासक भोज ने चित्तौड़ में ‘त्रिभुवन नारायण मंदिर’ कानिर्माण करवाया था।
कर्णसिंह/रणसिंह
रणसिंह के 2 पुत्र थे - क्षेमकरण और राहप।
क्षेमकरण ने ‘रावल शाखा’ और राहप ने ‘राणा शाखा’ कोआरम्भ किया।
सामंतसिंह का विवाह अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज चौहानद्वितीय की बहन पृथ्वीबाई से हुआ।
सामंतसिंह को जालोर के कीर्तिपाल चौहान ने पराजित कर मेवाड़पर अधिकार किया था।
अतः सामंतसिंह ने ‘वागड़ क्षेत्र’ में (1178 ई.) गुहिल वंश कीस्थापना की। इसने तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान कीसहायता की ।
सामंतसिंह के भाई मथनसिंह ने कीर्तिपाल को पराजित कर मेवाड़पर पुन: अधिकार कर लिया।
जैत्रसिंह
परमारों को पराजित कर चित्तौड़गढ़ पर अधिकार किया तथा चित्तौड़गढ़ को अपनी राजधानी बनाया।
‘भुताला का युद्ध’ (1227 ई.) - इल्तुतमिश की सेना को पराजितकिया, जिसका उल्लेख जयसिंह सूरी के ग्रंथ ‘हम्मीर मदमर्दन’ मेंमिलता है।
‘तारीख ए फरिश्ता’ में भी इल्तुतमिश के चित्तौड़ पर आक्रमण काजिक्र मिलता है।
1248 ई. में नसीरुद्दीन महमूद को पराजित किया था।
तेजसिंह
1260 ई. में कमलचंद्र द्वारा ‘श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी’ (मेवाड़का प्रथम चित्रित ग्रंथ) की रचना की गई।
तेजसिंह की रानी जेतल देवी ने चित्तौड़ में ‘श्याम पार्श्वनाथ मंदिर’ का निर्माण करवाया।
रतनसिंह
शासनकाल - 1301 ई. - 1303 ई.
सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की राजकुमारी पद्मिनी से विवाह किया।
हीरामन तोते के द्वारा रतन सिंह को पद्मिनी के सौंदर्य कीजानकारी दी गई थी।
अलाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण –
मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखित ‘पद्मावत’ ग्रंथ में युद्ध का कारण पद्मिनी को प्राप्त करना बताया गया है।
अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ आक्रमण के समय इतिहासकारअमीर खुसरो उसके साथ था।
तांत्रिक ‘राघव चेतन’ ने अलाउद्दीन को पद्मिनी के सौंदर्य कीजानकारी दी थी।
26 अगस्त, 1303 को चित्तौड़ पर अधिकार किया।
इस समय ‘चित्तौड़ का प्रथम और राजस्थान का दूसरा साका’हुआ।
केसरिया का नेतृत्व - रावल रतन सिंह
जौहर - रानी पद्मिनी ने 1600 महिलाओं के साथ किया।
अलाउद्दीन ने अपने पुत्र ‘खिज्र खाँ’ को चित्तौड़ का प्रशासकनियुक्त किया।
चित्तौड़ का नाम बदलकर ‘खिज्राबाद’ कर दिया।
- इस संघर्ष में दो मेवाड़ी सरदार ‘गोरा और बादल’ वीरगति कोप्राप्त हुए । गोरा और बादल क्रमशः पद्मिनी के काका व भाई थे।
अलाउद्दीन की 1316 ई. में मृत्यु के बाद 1316 ई. से 1326 ई. तक जालोर का ‘मालदेव सोनगरा’ चित्तौड़ का प्रशासक रहा।
अलाउद्दीन द्वारा चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद 30,000 से अधिक आम नागरिकों का कत्लेआम किया गया जिसकाउल्लेख अमीर खुसरो ने किया है।
रतनसिंह रावल शाखा का अंतिम शासक था।
राणा हम्मीर
सिसोदा ठिकाने का जागीरदार
राणा अथवा सिसोदिया शाखा का प्रथम शासक।
हम्मीर ने 1326 ई. में चित्तौड़ पर अधिकार कर गुहिल वंश की पुन: स्थापना की।
सिसोदा का जागीरदार होने के कारण इनको सिसोदिया कहागया है तथा गुहिल वंश सिसोदिया वंश के नाम से जाना जानेलगा।
हम्मीर राणा शाखा का राजपूत था इसलिए इसके बाद मेवाड़ केसभी शासक राणा/महाराणा कहलाए।
उपाधि – 1. मेवाड़ का उद्धारक
2. विषमघाटी पंचानन (कुंभलगढ़ प्रशस्ति में)
सिंगोली का युद्ध (बाँसवाड़ा) - दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिनतुगलक को पराजित किया।
चित्तौड़ में अन्नपूर्णा माता के मन्दिर का निर्माण करवाया।
महाराणा खेता/क्षेत्रसिंह
मालवा के शासक दिलावर खाँ ने गौरी को पराजित किया।
इसके समय ‘मेवाड़ - मालवा संघर्ष’ आरंभ हुआ था।
खेता ने अजमेर, जहाजपुर, मांडल तथा छप्पन के क्षेत्रों को अपनेराज्य में मिला लिया था।
महाराणा लाखा/लक्षसिंह
शासनकाल - 1382 ई. – 1421ई.
हम्मीर का पौत्र व खेता का पुत्र।
बूँदी के राव बरसिंह हाड़ा को मेवाड़ का प्रभुत्व स्वीकार करने हेतुविवश किया।
‘जावर’ में जस्ते व चाँदी की खानों का पता लगाया गया।
पिच्छू नामक चिड़ीमार बंजारे द्वारा ‘पिछोला झील’ (उदयपुर) कानिर्माण करवाया गया।
मारवाड़ के राव चूड़ा राठौड़ की पुत्री हंसा बाई (रणमल की बहन) से विवाह किया।
इसके ज्येष्ठ पुत्र कुँवर चूंडा को ‘मेवाड़ का भीष्म पितामह’ कहाजाता है।
दरबारी विद्वान - झोटिंग भट्ट व धनेश्वर भट्ट
महाराणा मोकल
शासनकाल - 1421 ई. - 1433 ई.
महाराणा लक्षसिंह व हंसाबाई का पुत्र।
त्रिभुवन नारायण मंदिर/समिद्धेश्वर मंदिर - परमार शासक भोज द्वारा निर्मित।
मोकल द्वारा जीर्णोद्धार करवाया गया इसलिए इस मंदिर कोमोकल मंदिर भी कहा जाता है।
‘एकलिंग जी के परकोटे’ का निर्माण करवाया ।
जिलवाड़ा का युद्ध, 1433 ई. - गुजरात के शासक अहमदशाहको पराजित किया।
जिलवाड़ा में ही मोकल की हत्या मेवाड़ी सरदार चाचा व मेराद्वारा की गई थी।
महाराणा कुम्भा
शासनकाल - 1433 ई. - 1468 ई.
मोकल व रानी सौभाग्यवती का पुत्र।
मेवाड़ से राठौड़ों का प्रभाव समाप्त किया तथा चित्तौड़गढ़ एवं कुम्भलगढ़ को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाया।
कुम्भा की उपाधियों का उल्लेख - ‘कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति’ में।
- कुम्भा की प्रमुख उपाधियाँ :-
अभिनव भरताचार्य (संगीत का ज्ञान होने के कारण)
हिंदू सुरताण (हिंदुओं का प्रमुख शासक होने के कारण)
छाप गुरु (छापामार युद्ध पद्धति के कारण)
हाल गुरु (पहाड़ी दुर्गों का निर्माता होने के कारण)
राणो रासो (साहित्यकारों को आश्रय देने के कारण)
चाप गुरु (शस्त्र विद्या में पारंगत होने के कारण)
- अन्य उपाधियाँ - राणा राय, राजगुरु, दान गुरु, शैल गुरु, नरपति, अश्वपति, गजपति आदि।
कुम्भा के प्रमुख निर्माण कार्य –
श्यामल दास द्वारा लिखित ‘वीर विनोद’ के अनुसार कुंभा ने मेवाड़के 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण करवाया ।
प्रमुख दुर्ग- कुंभलगढ़, बसंती दुर्ग, भोमट दुर्ग, मचान दुर्ग, अचलगढ़ दुर्ग इत्यादि।
कुंभलगढ़ दुर्ग –
शिल्पी – मंडन
इस दुर्ग में लघु दुर्ग कटारगढ़ को ‘मेवाड़ की आँख’ कहा जाता हैजो कुंभा का निवास था।
अबुल फजल के अनुसार “यह दुर्ग इतनी बुलंदी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।“
- प्रमुख मंदिर –
कुंभ श्याम मंदिर - यह मंदिर चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़ और अचलगढ़तीनों दुर्गों में स्थापित है।
विष्णु मंदिर
कुशाल माता मंदिर (बदनौर)
रणकपुर जैन मंदिर - कुंभा के समय 1439 ई. में मथाई नदी के किनारे धरणकशाह द्वारा निर्मित।
- कुम्भा के प्रमुख दरबारी विद्वान ̶
मंडन – मंडन ने देव मूर्ति प्रकरण, प्रासाद मंडन, राजवल्लभ, रूपमंडन, वास्तु मंडन, वास्तु शास्त्र, कौदंड मंडन (धनुर्विद्या सेसंबंधित) आदि प्रमुख ग्रंथों की रचना की।
नाथा – यह मंडन का भाई था। इसने ‘वास्तु मंजरी’ ग्रंथ की रचनाकी थी।
गोविंद – यह मंडन का पुत्र था। इसकी प्रमुख रचनाएँ थी उद्धारधोरिणी, द्वार दीपिका, कलानिधि।
- अन्य विद्वान – मुनि सुंदर सूरी, टिल्ला भट्ट, जय शेखर, भुवनकीर्ति, सोम सुंदर, जयचंद्र सूरी, सोमदेव आदि।
- कुम्भा की प्रमुख रचनाएँ ̶
संगीत राज (5 भाग)
संगीत मीमांसा
संगीत रत्नाकर की टीका
चंडी शतक की टीका
गीत गोविंद की टीका – रसिकप्रिया
v कुंभा कालीन प्रमुख राजनीतिक घटनाएँ ̶
- सारंगपुर युद्ध (1437 ई.) - महमूद खिलजी प्रथम को पराजितकिया तथा इस उपलक्ष्य में चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तंभ कानिर्माण करवाया।
कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति की रचना कवि अत्रि द्वारा तथा बाद में महेशद्वारा पूरी की गई ।
- आवल-बावल की संधि (1453 ई.) - जोधा व कुंभा के बीचहुई जिसमें सोजत को मेवाड़ और मारवाड़ के मध्य की सीमा मानलिया गया।
इस संधि को करवाने में हंसाबाई की प्रमुख भूमिका थी।
इस संधि के द्वारा दोनों राज्यों में वैवाहिक संबंध (रायमल-शृंगारदेवी) भी स्थापित हो गए।
- नागौर पर अधिकार - नागौर के शासक शम्स खाँ को पराजितकिया।
- चंपानेर की संधि (1456 ई.) - मालवा शासक महमूद खिलजीप्रथम और गुजरात शासक कुतुबुद्दीन के मध्य राणा कुंभा के विरुद्ध हुई। लेकिन दोनों मिलकर भी राणा कुंभा को पराजित नहीं कर सके।
- सिरोही के शासक सहसमल के समय सिरोही पर आक्रमण करआबू पर अधिकार कायम कर लिया।
कुंभा अंतिम समय में उन्माद रोग से ग्रसित हो गया था।
कुम्भा के पुत्र उदयकरण (उदा) ने ही मामादेव कुंड (कटारगढ़) केपास 1468 ई. में कुम्भा की हत्या की।
कुम्भा की मृत्यु के बाद उदा मेवाड़ का शासक बना।
मेवाड़ का पितृहन्ता शासक - उदा
दाड़िमपुर का युद्ध - उदा व उदा के भाई रायमल के मध्य हुआजिसमें उदा पराजित हुआ था।
दाड़िमपुर के युद्ध के बाद उदा मालवा की ओर चला गया जहाँउनकी मृत्यु हो गई।
महाराणा रायमल
शासनकाल - 1473 ई. से 1509 ई.
पृथ्वीराज, जयमल और सांगा इनके पुत्र थे।
इनकी बेटी आनंदा बाई का विवाह सिरोही के जगमाल के साथहुआ।
पृथ्वीराज का विवाह टोडा के राव सुरताण की पुत्री ‘तारा’ केसाथ हुआ।
पृथ्वीराज ने तारा के नाम पर अजमेर के किले का नाम तारागढ़रखा।
पृथ्वीराज को ‘उड़ना राजकुमार’ के नाम से भी जाना जाता है।इनकी हत्या इसके बहनोई, जगमाल ने विष देकर की थी।
जयमल के दुर्व्यवहार के कारण राव सुरताण ने इसकी हत्या की थी।
उत्तराधिकार संघर्ष में पराजित सांगा ने अजमेर के ‘करमचंदपंवार’ के पास शरण ली।
खेती को प्रोत्साहित करने के लिए ‘राम और शंकर’ नामकतालाबों का निर्माण करवाया।
चित्तौड़ में अद्भुतजी के मन्दिर का निर्माण करवाया।
रायमल की पत्नी शृंगार देवी ने घोसूण्डी की बावड़ी (चित्तौड़) कानिर्माण करवाया था।
शासनकाल – 1509-1528 ई.
उपाधि –
हिन्दूपत
सैनिक भग्नावशेष (कर्नल जेम्स टॉड द्वारा प्रदत्त)
सांगा के समकालीन दिल्ली के शासक –
सिकंदर लोदी
इब्राहिम लोदी
बाबर
- सांगा के समकालीन मालवा के शासक ̶
नासिरुद्दीन खिलजी
महमूद खिलजी-द्वितीय
- सांगा के समकालीन गुजरात के शासक ̶
महमूद बेगड़ा
मुजफ्फर शाह द्वितीय
● सांगा के शासन काल में प्रमुख युद्ध:–
खातोली का युद्ध (1517 ई. कोटा) – सांगा ने इब्राहिम लोदी कोपराजित किया था। युद्ध में इब्राहिम लोदी ने खुद भाग लिया था।
बांडी या बाड़ी का युद्ध (1518 ई. धौलपुर) – सांगा ने पुनः इब्राहिम लोदी को पराजित किया। लोदी की सेना का नेतृत्व मियाँ हुसैन और मियाँ माखन ने किया।
गागरोन का युद्ध (1519 ई. झालावाड़) – सांगा ने महमूदखिलजी-द्वितीय मालवा को पराजित किया था।
बयाना का युद्ध (16 फरवरी, 1527 भरतपुर) – सांगा ने बाबरकी सेना को पराजित किया।
खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527) – बाबर ने सांगा को पराजितकिया था। खानवा, भरतपुर की रूपवास तहसील में स्थित है।
1520 में सांगा ने गुजरात के बादशाह को पराजित किया।
- खानवा युद्ध से पूर्व घटित प्रमुख घटनाएँ –
काबुल के ज्योतिषी मोहम्मद शरीफ ने बाबर के पराजय कीभविष्यवाणी की थी।
बाबर ने सेना के सामने जोशीला भाषण दिया था।
बाबर ने इस युद्ध को जिहाद (धर्म युद्ध) घोषित किया था।
बाबर ने मुस्लिम व्यापारियों पर लगने वाला तमगा चुंगी करहटाया था।
बाबर के तोपखाने के अध्यक्ष – मुस्तफा कमाल और उस्तादअली।
युद्ध में बाबर ने ‘तुलुगमा युद्ध पद्धति’ और तोपखाने का प्रयोगकिया था।
‘पाती परवण‘ प्रथा – एक प्राचीन पद्धति, जिसके अंतर्गत हिंदूशासकों को युद्ध में आमंत्रित किया जाता था। इस युद्ध से पूर्वसांगा ने इस प्रथा को पुनर्जीवित किया।
खानवा युद्ध में भाग लेने वाले प्रमुख हिंदू शासक –
बीकानेर के राजा जैतसी ने अपने पुत्र कल्याणमल को भेजा।
मारवाड़ के राव गांगा ने अपने पुत्र मालदेव को भेजा।
ईडर - भारमल
मेड़ता - वीरमदेव
चंदेरी (मध्यप्रदेश) - मेदिनीराय
जगनेर - अशोक परमार
आमेर - पृथ्वीसिंह कच्छवाहा
वागड़ - उदयसिंह
सादड़ी - झाला अज्जा
सांगा के पक्ष में भाग लेने वाले मुस्लिम सेनानायक:–
मेवात - हसन खाँ मेवाती
महमूद लोदी (इब्राहिम लोदी का छोटा भाई)
बाबर की सेना का नेतृत्व - ‘हुमायूँ और मेहंदी ख्वाजा’
‘झाला अज्जा’ (काठियावाड़) ने युद्ध में सांगा के युद्ध भूमि छोड़ने पर राजचिह्न धारण किया था।
राव मालदेव घायल सांगा को ‘बसवा’(दौसा) लेकर गए।प्राथमिक उपचार के बाद यहाँ से सांगा को रणथम्भौर ले जायागया।
चंदेरी का युद्ध (1528 ई.) में भाग लेने के लिए जा रहे सांगा कोमेवाड़ी सरदारों ने कालपी (उ.प्र.) स्थान पर विष दे दिया।
बसवा (दौसा) में सांगा की मृत्यु (30 जनवरी, 1528 को) हुईजहाँ पर ‘सांगा का स्मारक/चबूतरा’ बना है।
सांगा का अंतिम संस्कार मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया गया,जहाँ सांगा की ‘8 खंभों की छतरी’ का निर्माण अशोक परमारद्वारा करवाया गया ।
सांगा के बड़े पुत्र भोजराज का विवाह मेड़ता के रतनसिंह की पुत्रीमीराबाई से हुआ।
बाबर ने सांगा के बारे में लिखा है – ‘सांगा ने अपने देश की रक्षामें एक आँख, एक हाथ और एक पैर खो दिया।’
कर्नल टॉड के अनुसार 7 उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव व 104 सरदार सदैव सांगा की सेवा में उपस्थित रहते थे।
हरविलास शारदा ने लिखा है कि - “मेवाड़ के महाराणाओं में सांगा सर्वाधिक प्रतापी शासक हुए। उन्होंने अपने पुरुषार्थ के द्वारा मेवाड़ को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया।”
महाराणा रतनसिंह
शासनकाल - 1528 ई. से 1531 ई.
यह महाराणा सांगा की रानी धनबाई का पुत्र था।
बूँदी के सूरजमल हाड़ा के साथ ‘अहेरिया उत्सव’ के दौरान युद्धकरते हुए मारा गया था।
महाराणा विक्रमादित्य
शासनकाल - 1531 ई. से 1536 ई.
यह महाराणा सांगा की हाड़ी रानी कर्णावती का पुत्र था। इनकी संरक्षिका कर्णावती थी।
विक्रमादित्य के समय मालवा और गुजरात के मुस्लिम शासक ’बहादुर शाह प्रथम’ ने चित्तौड़ पर 2 बार आक्रमण किया (1533 ई. तथा 1534 ई.)
1534 ई. के दूसरे आक्रमण से पूर्व कर्णावती ने हुमायूँ कोसहायता प्राप्त करने हेतु राखी भेजी थी परंतु हुमायूँ ने समय परसहायता नहीं की। अतः बहादुर शाह के लंबे घेरे के बाद 1535 ई. में चित्तौड़ का पतन हुआ। इस समय चित्तौड़गढ़ का ‘दूसरा साका’ हुआ जिसमें जौहर का नेतृत्व कर्णावती ने तथाकेसरिया का नेतृत्व ‘रावत बाघसिंह’ ने किया।
विक्रमादित्य ने मीराबाई को दो बार मारने का असफल प्रयासकिया। मीरा वृंदावन चली गई, जहाँ ‘रविदास’ को उन्होंने अपनागुरु बनाया।
विक्रमादित्य की हत्या (1536 ई. में) दासी पुत्र बनवीर ने की थी।यह कुँवर पृथ्वीराज की दासी ’पुतल दे’ का पुत्र था।
बनवीर ने उदय सिंह को भी मारने का प्रयास किया परंतु पन्नाधायने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर उदयसिंह की रक्षा की। कीरतबारी (पत्तल उठाने वाला) की सहायता से उदय सिंह को कुंभलगढ़दुर्ग में पहुँचाया गया। इस समय कुंभलगढ़ दुर्ग का किलेदार ‘आशा देवपुरा’ था।
बनवीर
शासनकाल - 1536 ई. से 1540 ई.
विक्रमादित्य की हत्या कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया।
चित्तौड़ में ‘नौलखा महल और तुलजा भवानी का मंदिर’ बनवाया।
राव मालदेव की सहायता से उदयसिंह ने बनवीर को मारकरचित्तौड़ पर अधिकार किया।
महाराणा उदयसिंह
शासनकाल - 1537 ई. – 1572 ई.
राणा सांगा व रानी कर्मावती का ज्येष्ठ पुत्र।
पन्नाधाय ने बनवीर से सुरक्षित रखने के लिए उदयसिंह को कीरत बारी की सहायता से कुंभलगढ़ दुर्ग के आशा देवपुरा के पासपहुँचाया।
1543 ई. में अफगान शासक शेरशाह सूरी को चित्तौड़ दुर्ग कीचाबियाँ सौंपकर उसका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया।
शेरशाह ने अपना राजनीतिक प्रभाव बनाए रखने के लिए ख्वासखाँ को चित्तौड़ में रखा।
अफगानों की अधीनता स्वीकार करने वाला मेवाड़ का पहलाशासक।
हरमाड़ा का युद्ध - 1557 में रंगराय वेश्या के कारण उदयसिंह वअजमेर के हाकीम हाजी खाँ के मध्य हुआ।
1559 ई. में उदयपुर नगर बसाया व ‘उदयसागर झील’ कानिर्माण करवाया।
अकबर ने 1567 ई. में चित्तौड़ अभियान शुरू किया क्योंकिउदयसिंह ने मालवा के बाज बहादुर व मेड़ता के जयमल कोशरण दी थी।
अकबर का चित्तौड़ आक्रमण (1567 – 68 ई.) ̶
उदयसिंह किले की रक्षा का भार जयमल और फत्ता को सौंपकरगिरवा की पहाड़ियों (उदयपुर) में चले गए।
चित्तौड़ के किले की दीवार की मरम्मत करते समय जयमल, अकबर की ‘संग्राम’ नामक बंदूक की गोली से घायल हो गया था।
जयमल ने कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर युद्ध किया।
जयमल राठौड़ व फत्ता सिसोदिया लड़ते हुए वीरगति को प्राप्तहुए व फत्ता की पत्नी रानी फूल कँवर के नेतृत्व में जौहर हुआ जोचित्तौड़ का तीसरा साका था।
फरवरी, 1568 में अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर अधिकार कर लिया।
अकबर ने आगरा के दुर्ग के बाहर जयमल व फत्ता की मूर्तियाँलगवाई।
उनकी मूर्तियाँ जूनागढ़ दुर्ग (बीकानेर) के बाहर भी स्थित हैं।
28 फरवरी, 1572 को होली के दिन गोगुन्दा (उदयपुर) मेंउदयसिंह की मृत्यु हो गई थी।
महाराणा प्रताप
जन्म - 9 मई, 1540
जन्म स्थान - बादल महल (कटारगढ़) कुंभलगढ़ दुर्ग
पिता – महाराणा उदयसिंह
माता – जयवंता बाई (पाली नरेश अखैराज सोनगरा की पुत्री)
विवाह – 1557 ई. को अजबदे पँवार के साथ हुआ।
रानियाँ – पटरानी अजबदे (रामरख पंवार की पुत्री)
फूलकँवर (मालदेव के ज्येष्ठ पुत्र राम की पुत्री)
पुत्र - अमरसिंह
शासनकाल – 1572-1597 ई.
राजमहल की क्रांति – मेवाड़ के सामन्तों व उदयसिंह द्वारा नियुक्तउत्तराधिकारी जगमाल को हटाकर राणा प्रताप को शासक बनाने की घटना।
प्रथम राज्याभिषेक – 28 फरवरी, 1572 को महादेव बावड़ी (गोगुन्दा)
विधिवत् राज्याभिषेक - कुंभलगढ़ दुर्ग में जहाँ मारवाड़ के रावचन्द्रसेन सम्मिलित हुए।
प्रताप का घोड़ा – चेतक
हाथी – रामप्रसाद व लूणा
अकबर द्वारा भेजे गए 4 संधि प्रस्तावक/शिष्ट मण्डल -
जलाल खाँ कोरची – 1572
मानसिंह – 1573
भगवन्तदास – 1573
टोडरमल –1573
सदाशिव कृत ‘राजरत्नाकर’ एवं रणछोड़ भट्ट कृत ‘अमरकाव्यम्वंशावली’ के अनुसार प्रताप ने मानसिंह का स्वागत व सत्कारउदयसागर झील के किनारे किया था।
- हल्दीघाटी का युद्ध (राजसमन्द) – 18 जून, 1576
जी.एन. शर्मा के अनुसार, हल्दीघाटी का युद्ध 21 जून, 1576 को हुआ था।
अकबर ने युद्ध की व्यूह रचना मैगजीन दुर्ग में रची थी।
मुगल सेना का नेतृत्व – मिर्जा मानसिंह (आमेर)
सहयोगी सेनानायक - आसफ खाँ
मानसिंह ने पहले माण्डलगढ़ तथा फिर मोलेला गाँव (राजसमन्द)में पड़ाव डाला।
राणा प्रताप ने युद्ध की योजना कुम्भलगढ़ दुर्ग में बनाई औरअपनी सेना का पड़ाव लोसिंग गाँव (राजसमन्द) में डाला।
राणा प्रताप की हरावल सेना का नेतृत्व - हकीम खाँ सूरी
चंदावल सेना का नेतृत्व - राणा पूँजा
मुगल सेना के हरावल भाग का नेतृत्व - सैय्यद हाशिम
मुगल पक्ष – मुहम्मद बदख्शी रफी, राजा जगन्नाथ और आसफ खाँ
प्रताप पक्ष – रामशाह तँवर (ग्वालियर), झाला मानसिंह, झाला बीदा, मानसिंह सोनगरा, जयमल मेहता, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, चारण जैसा, पुरोहित जगन्नाथ, चूंडावत कृष्णदास (सलूम्बर), भीमसिंह डोडिया, (सरदारगढ़), रावत सांगा (देवगढ़), रावत किशनदास और रामदास मेड़तिया।
इतिहासकार बदायूँनी युद्ध में मुगल सेना के साथ उपस्थित था।
18 जून, 1576 को प्रात:काल में मुगल सेना व राणा प्रताप केमध्य युद्ध प्रारम्भ हुआ।
हकीम खाँ सूरी के नेतृत्व में राजपूतों ने पहला वार इतना भयंकरकिया कि मुगल सेना भाग खड़ी हुई।
उसी समय मुगलों की आरक्षित सेना के प्रभारी मिहत्तर खाँ ने यहझूठी अफवाह फैलाई कि – “बादशाह अकबर स्वयं शाही सेनालेकर आ रहे हैं।”
यह सुनकर मुगल सेना फिर युद्ध के लिए आगे बढ़ी। मेवाड़ कीसेना भी ‘रक्तताल’ नामक मैदान में आ डटी।
युद्ध में राणा प्रताप के लूणा व रामप्रसाद और अकबर केगजमुक्ता व गजराज हाथियों के मध्य युद्ध हुआ।
रामप्रसाद हाथी को मुगलों ने अपने अधिकार में ले लिया जिसकाबाद में अकबर ने नाम बदलकर ‘पीरप्रसाद’ कर दिया।
युद्ध में चेतक घोड़े पर राणा प्रताप और मर्दाना हाथी पर सवारमानसिंह का प्रत्यक्ष आमना-सामना हुआ।
प्रताप ने भाले से मानसिंह पर वार किया लेकिन मानसिंह बचगया। इस दौरान चेतक, हाथी के प्रहार से घायल हो गया।
मुगल सेना ने प्रताप को चारों ओर से घेर लिया।
राणा प्रताप के घायल होने पर झाला बीदा ने राजचिह्न धारणकिया।
युद्ध में हाथी के वार से घायल राणा प्रताप के घोड़े चेतक की एक नाले को पार करने के बाद मृत्यु हो गई।
बलीचा गाँव में चेतक की समाधि बनी हुई है।
‘अमरकाव्य वंशावली’ नामक ग्रंथ तथा राजप्रशस्ति के अनुसारयहाँ राणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह ने प्रताप से मिलकर अपनेकिए की माफी माँगी।
हल्दीघाटी युद्ध अनिर्णित रहा। अकबर राणा प्रताप को बंदी बनानेमें विफल रहा।
युद्ध के परिणाम से नाराज अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँकी ड्योढ़ी बंद कर दी।
बदायूँनी कृत ‘मुन्तखाब उत्त तवारीख’ में हल्दीघाटी युद्ध कावर्णन।
- हल्दीघाटी युद्ध के उपनाम ̶
मेवाड़ की थर्मोपल्ली – कर्नल टॉड
खमनौर का युद्ध – अबुल-फजल
गोगुन्दा का युद्ध – बदायूँनी
राजसमन्द में प्रत्येक वर्ष ‘हल्दीघाटी महोत्सव’ मनाया जाता है।
राणा प्रताप ने ‘आवरगढ़’ में अपनी अस्थायी राजधानी स्थापितकी।
फरवरी, 1577 में अकबर खुद मेवाड़ अभियान पर आया लेकिनअसफल रहा।
अक्टूबर, 1577 से नवम्बर, 1579 तक शाहबाज खाँ ने तीन बारमेवाड़ पर असफल आक्रमण किया।
3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार किया।
राणा प्रताप ने कुंभलगढ़ दुर्ग पर पुन: अधिकार कर भाण सोनगराको किलेदार नियुक्त किया।
भामाशाह (पाली) ने महाराणा प्रताप की आर्थिक सहायता कीथी।
मेवाड़ का उद्धारक व दानवीर - भामाशाह
1580 में अकबर ने अब्दुल रहीम खान-ए-खाना को प्रताप केविरुद्ध भेजा। कुँवर अमरसिंह ने खान-ए-खाना के परिवार को बंदीबना लिया जिसे प्रताप के कहने पर सम्मानपूर्वक वापस भेजदिया।
- दिवेर का युद्ध (अक्टूबर, 1582 ई.) :-
कुँवर अमरसिंह ने अकबर के काका सेरिमा सुल्तान का वध करदिवेर पर अधिकार किया।
कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध को ‘प्रताप के गौरव का प्रतीक’ और ‘मेवाड़ का मैराथन’ कहा।
5 दिसम्बर, 1584 को अकबर ने आमेर के भारमल के छोटे पुत्रजगन्नाथ कच्छवाहा को प्रताप के विरुद्ध भेजा। जगन्नाथ भी असफल रहा। जगन्नाथ की माण्डलगढ़ में मृत्यु हो गई।
जगन्नाथ कच्छवाहा की ’32 खम्भों की छतरी’ - माण्डलगढ़(भीलवाड़ा)
राणा प्रताप ने बदला लेने के लिए आमेर क्षेत्र के मालपुरा कोलूटा और झालरा तालाब के निकट ‘नीलकंठ महादेव मंदिर’ कानिर्माण करवाया।
1585 ई. से 1597 ई. के मध्य प्रताप ने चित्तौड़ एवं माण्डलगढ़को छोड़कर शेष सम्पूर्ण राज्य पर पुन: अधिकार कर लिया था।
1585 ई. में लूणा चावण्डिया को पराजित कर प्रताप ने चावण्ड पर अधिकार किया तथा इसे अपनी नई राजधानी बनाया।
चावण्ड में प्रताप ने ‘चामुण्डा माता’ का मंदिर बनवाया।
चावण्ड 1585 ई. से अगले 28 वर्षों तक मेवाड़ की राजधानी रहा।
1597 ई. में धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते समय प्रताप को गहरी चोट लगी। जो उनकी मृत्यु का कारण बनी।
मृत्यु -19 जनवरी, 1597, चावण्ड
अग्निसंस्कार - बाडोली
प्रताप की 8 खम्भों की छतरी - बाडोली (उदयपुर) में खेजड़ बाँधकी पाल पर।
- प्रताप कालीन रचनाएँ –
दरबारी पंडित चक्रपाणि मिश्र – विश्ववल्लभ, मुहूर्तमाला, व्यवहारादर्श व राज्याभिषेक पद्धति।
जैन मुनि हेमरत्न सूरी – गोरा-बादल, पद्मिनी चरित्र चौपाई, महिपाल चौपाई, अमरकुमार चौपाई, सीता चौपाई, लीलावती
- प्रताप द्वारा निर्मित मंदिर – 1. चामुण्डा देवी (चावण्ड)
हरिहर मंदिर (बदराणा)
- चित्रकला - चावण्ड शैली का जन्म
प्रमुख चित्रकार – निसारुद्दीन
अमरसिंह प्रथम
शासनकाल - 1597 ई. – 1620 ई.
महाराणा प्रताप व अजब दे पंवार का पुत्र।
अकबर ने 1599 ई. में जहाँगीर के नेतृत्व में सेना भेजी, जिसेमेवाड़ की सेना ने उटाला नामक स्थान पर पराजित किया।
जहाँगीर के शासक बनते ही 1605 ई. में परवेज, आसिफ खाँ, जफर बेग एवं सगर के नेतृत्व में मेवाड़ को अधीन करने का प्रयासकिया गया था लेकिन सफलता नहीं मिली।
1608 ई. में जहाँगीर ने महावत खाँ को मेवाड़ पर आक्रमण करनेके लिए भेजा, लेकिन वह भी असफल रहा।
1609 ई. में अब्दुल्ला, 1612 ई. में राजा बासू और 1613 ई. मेंमिर्जा अजीज कोका को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया था, लेकिन यहाँ भी सफलता नहीं मिली।
1613 ई. में जहाँगीर स्वयं अजमेर आया तथा अपने पुत्र खुर्रम (शाहजहाँ) को मेवाड़ अभियान का नेतृत्व सौंपा।
मुगल-मेवाड़ संधि - 5 फरवरी, 1615 को मेवाड़ के अमरसिंह प्रथम व मुगल शासक जहाँगीर के बीच हुई।
इस संधि पर मुगलों की तरफ से खुर्रम व मेवाड़ की ओर सेअमरसिंह प्रथम ने हस्ताक्षर किए।
अमरसिंह प्रथम का काल मेवाड़ स्कूल की चावण्ड चित्रकलाशैली का स्वर्णकाल माना जाता है।
मृत्यु - 26 जनवरी, 1620 को उदयपुर के निकट आहड़ में
आहड़ (उदयपुर) की महासतियों में सबसे पहली छतरी अमरसिंहप्रथम की है।
आहड़ को मेवाड़ के महाराणाओं का श्मशान भी कहते हैं।
राणा कर्णसिंह
शासनकाल - 1620 ई. – 1628 ई.
पिछोला झील में जगमंदिर का निर्माण प्रारंभ करवाया जहाँ 1623 ई. में शाहजहाँ को शरण दी गई थी।
उदयपुर में दिलखुश महल व कर्ण विलास का निर्माण करवाया।
यह मुगलों के आंतरिक मामलों में रुचि लेने वाला मेवाड़ इतिहासका प्रथम शासक था।
जगतसिंह -प्रथम
शासनकाल - 1628 ई. – 1652 ई.
शाहजहाँ ने मेवाड़ रियासत के हिस्से की प्रतापगढ़ व शाहपुरारियासत को मेवाड़ से पृथक् कर दिया था।
जगमंदिर का निर्माण पूरा करवाया। इसे भाणा व उसके पुत्रमुकुंद की देखरेख में बनवाया था।
उदयपुर में जगदीश मंदिर/जगन्नाथ राय मंदिर का निर्माणकरवाया। इसी मंदिर में ‘जगन्नाथराय प्रशस्ति’ उत्कीर्ण है जिसकेरचयिता ‘कृष्णभट्ट’ थे।
मोहन मंदिर व रूप सागर तालाब बनवाया।
उनकी धाय माँ नौजूबाई ने उदयपुर में ‘धाय मंदिर’ बनवाया।
मेवाड़ चित्रकला शैली का स्वर्णकाल।
‘तस्वीरां रो कारखानो’ व ‘चितेरों री ओवरी’ नामक चित्रशाला विभाग की स्थापना की थी।
महाराणा राजसिंह
राज्याभिषेक – 10 अक्टूबर, 1652
शासनकाल – 1652-1680 ई.
गद्दीनशीनी के समय शाहजहाँ ने 5, 000 का मनसब दिया।
उपाधि - ‘विजय कटकातु’
शासक बनते ही चित्तौड़गढ़ के किले की मरम्मत करवाने कानिश्चय किया।
1615 ई. में मुगल बादशाह ने सेना भेज कर राजसिंह द्वारा करवाए गए निर्माण को तुड़वाया।
मुगल शहजादों में हुए उत्तराधिकार संघर्ष में ये तटस्थ रहे।
टीका दौड़ उत्सव के बहाने अपने राज्य तथा बाहरी मुगलखानों पर हमले कर लाखों रुपये की सम्पत्ति प्राप्त की।
अव्यवस्था का फायदा उठाकर राजसिंह ने टोडा, मालपुरा, टोंक, चाकसू, लालसोट को लूटा एवं मेवाड़ के खोए हुए क्षेत्रों पर पुन: अधिकार कर लिया।
औरंगजेब ने 6, 000 का मनसब और ग्यासपुरा, डूँगरपुर, बाँसवाड़ा के परगने दिए।
राजसमन्द झील का निर्माण – अकाल प्रबन्धन हेतु गोमती नदी केपानी को रोककर करवाया।
झील की नींव घेवर माता द्वारा रखवाई गई।
राजनगर नामक नया नगर बसाया।
उदयपुर में अम्बामाता मंदिर बनवाया व ब्राह्मणों को ‘रत्नों कातुलादान’ किया।
उनकी पत्नी रामरस दे ने उदयपुर में त्रिमुखी बावड़ी/ जया बावड़ीका निर्माण करवाया।
चारुमति विवाद - किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति से विवाह को लेकर राजसिंह व औरंगजेब के मध्य ‘देसूरी की नाल’(राजसमन्द) में युद्ध हुआ।
इस युद्ध में राजसिंह की तरफ से सलूम्बर के रतनसिंह चूंडावत नेविजय प्राप्त की।
औरंगजेब द्वारा 1679 ई. में जजिया कर लगाने पर इसका विरोधकिया गया था।
मुगल-मारवाड़ संघर्ष में मारवाड़ का साथ दिया।
राजसिंह ने मारवाड़ के अजीतसिंह व दुर्गादास की सहायता कीतथा उन्हें ‘केलवा की जागीर’ प्रदान की।
नाथद्वारा मंदिर व द्वारकाधीश कांकरोली के मंदिरों का निर्माणकरवाया।
दरबारी कवि – रणछोड़ भट्ट
राजसिंह कालीन साहित्य –
रणछोड़ भट्ट – राजप्रशस्ति महाकाव्य व अमरकाव्य
सदाशिव – राजरत्नाकर
लाल भाट – राजसिंह प्रभावर्णनम्
मुकुन्द – राजसिंहाष्टक
किशोरदास – राजप्रकास
कवि मान – राजविलास
दौलतविजय – खुमाण रासो
मृत्यु – 1680 ई. कुंभलगढ़ दुर्ग में
महाराणा जयसिंह
शासनकाल - 1680 ई. – 1698 ई.
24 जून, 1681 को दूसरी मेवाड़-मुगल संधि हुई।
गोमती नदी के पानी को रोककर जयसमन्द झील/ढेबर झील(उदयपुर) का निर्माण करवाया।
यह राजस्थान की सबसे बड़ी मीठे पानी की कृत्रिम झील है।
महाराणा अमरसिंह द्वितीय
शासनकाल - 1698 ई. – 1710 ई.
मेवाड़-मारवाड़-आमेर के मध्य देबारी समझौता हुआ।
अपनी पुत्री इन्द्रकुँवरी का विवाह सवाई जयसिंह से करवाया।
महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय
शासनकाल - 1710 ई. – 1734 ई.
मेवाड़ में मराठों ने पहली बार प्रवेश किया।
मेवाड़ चित्रशैली में ‘कलीला दमना’ का चित्रण हुआ।
फतेहसागर झील के किनारे सहेलियों की बाड़ी बनवाई तथा सीसारमा गाँव में वैद्यनाथ का मंदिर व वैद्यनाथ प्रशस्ति कानिर्माण करवाया।
मेवाड़ में स्थित जगदीश मंदिर का पुन: निर्माण भी करवाया।
महाराणा जगतसिंह – द्वितीय
शासनकाल - 1734 ई. – 1751 ई.
पेशवा बाजीराव-प्रथम मेवाड़ आया तथा चौथ वसूली कासमझौता किया।
माधोसिंह को जयपुर का शासन दिलाने के लिए जयपुर केउत्तराधिकार संघर्ष में हस्तक्षेप किया था।
पिछोला झील में जगनिवास महलों का निर्माण करवाया।
दरबारी कवि नेकराम ने जगत विलास ग्रंथ लिखा।
17 जुलाई, 1734 को हुरड़ा सम्मेलन की अध्यक्षता की।
अफगान शासक नादिरशाह ने 1739 ई. में दिल्ली पर आक्रमणकिया।
उत्तराधिकारी - प्रतापसिंह द्वितीय (1751-54 ई.)
महाराणा अरिसिंह द्वितीय
शासनकाल - 1761-73 ई.
सरदारों ने राजमाता झाली से उत्पन्न पुत्र रतनसिंह को मेवाड़ काउत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
अरिसिंह ने बागोर के सरदार नाथसिंह एवं सलूम्बर के रावतजोधसिंह की हत्या करवाई थी।
उत्तराधिकारी - हम्मीर द्वितीय (1773-78 ई.)
महाराणा भीमसिंह
शासनकाल - 1778 ई. – 1828 ई.
1818 ई. में मराठों के भय से अंग्रेजों से संधि कर ली थी। इससंधि पर मेवाड़ की ओर से ठाकुर अजीतसिंह (आसींद, भीलवाड़ा) तथा अंग्रेजों की ओर से चार्ल्स मैटकॉफ ने हस्ताक्षरकिए थे।
भीमसिंह की पुत्री कृष्णा कुमारी से विवाह के लिए 1807 ई. मेंगिंगोली, (परबतसर, नागौर) का युद्ध हुआ।
अमीर खाँ पिण्डारी व अजीतसिंह चूंडावत के दबाव में कृष्णाकुमारी को जहर दे दिया।
1818 ई. में कर्नल टॉड एजेंट के रूप में उदयपुर आया था।
महाराणा सरदारसिंह
शासनकाल - 1838 ई. – 1842 ई.
सरदार सिंह बागोर ठिकाने से गोद आए थे।
1841 ई. में मेवाड़ भील कोर का गठन किया जिसका 1950 ई. में राजस्थान पुलिस विभाग में विलय कर दिया गया।
महाराणा स्वरूपसिंह
स्वरूपसिंह सरदारसिंह का छोटा भाई था।
1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ देने वाला राजपूताना कापहला शासक था।
स्वरूपशाही सिक्के चलाए जिन पर ‘चित्रकूट उदयपुर’ व दूसरीओर ‘दोस्ती लंदन’ अंकित था।
विजय स्तम्भ का जीर्णोद्धार करवाया।
1861 ई. में सती प्रथा पर रोक लगाई।
डाकन प्रथा व समाधि प्रथा पर भी रोक लगाई थी।
इनके साथ पासवान ऐंजाबाई सती हुई थी जो मेवाड़ महाराणाओंके साथ सती होने की अन्तिम घटना थी।
राणा शंभूसिंह
शासनकाल - 1861 ई. – 1874 ई.
शंभूसिंह को बागोर ठिकाने से गोद लिया गया था।
राज्याभिषेक के समय नाबालिग थे इसलिए राज्य प्रबन्ध के लिएपॉलिटिकल एजेंट मेजर टेलर की अध्यक्षता में रीजेंसी कौंसिल (पंच सरदारी) की स्थापना की गई थी।
मेवाड़ में नई अदालतों की स्थापना के विरोध में नगर सेठचम्पालाल के नेतृत्व में उदयपुर में हड़ताल (1864 ई.) हुई थी।
उदयपुर में शंभूरत्न पाठशाला 1863 ई. में स्थापित की गई।
खैरवाड़ा और नीमच तक पक्की सड़कों का निर्माण कार्य प्रारंभहुआ।
श्यामलदास ने वीरविनोद का लेखन प्रारम्भ किया।
राणा सज्जनसिंह
बागोर ठिकाने के शक्तिसिंह के पुत्र थे।
14 फरवरी, 1878 को अंग्रेजों के साथ नमक समझौता किया था।
1881 ई. में लॉर्ड रिपन चित्तौड़गढ़ आए तथा महाराणा कोजी.सी.एस.आई. (Grand Commander of the Star of India) का खिताब दिया।
‘सज्जन निवास’ नाम से सुन्दर बाग लगवाया।
शिक्षा की सुव्यवस्था के लिए एजुकेशन कमेटी की स्थापना की गई।
‘सज्जन अस्पताल’ एवं ‘वॉल्टर जनाना अस्पताल’ का निर्माणकरवाया।
मेवाड़ में नया भू-राजस्व बंदोबस्त शुरू हुआ।
मेवाड़ में 1881 ई. में प्रथम बार जनगणना का कार्य शुरू हुआ।
महेन्द्राज सभा - शासन प्रबन्ध एवं न्याय कार्य के लिए 1880 ई. में स्थापना की।
1881 ई. में उदयपुर में ‘सज्जन यंत्रालय’ छापाखाना स्थापित कर इन्होंने ‘सज्जन कीर्ति सुधारक’ नामक साप्ताहिक पत्रिका काप्रकाशन किया।
‘सज्जन वाणी विलास’ पुस्तकालय की स्थापना की।
लॉर्ड लिटन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में भाग लेने वालामेवाड़ का प्रथम शासक था।
दयानन्द सरस्वती मेवाड़ आए। सत्यार्थ प्रकाश का लेखनजगमंदिर में प्रारम्भ किया था।
महाराणा फतेहसिंह
राजपूतों में बहुविवाह, बालविवाह एवं फिजूलखर्ची पर रोकलगाई।
ब्रिटेन के राजकुमार ‘केनॉट’ के मेवाड़ आगमन पर देवली मेंराजकुमार के हाथ से केनॉट (फतहसागर) बाँध की नींव रखवाई।
इनके समय 1899 ई. में भीषण अकाल पड़ा था।
बिजौलिया किसान आंदोलन प्रारंभ हुआ।
1889 में ए.जी.जी. वॉल्टर ने ‘राजपूत हितकारिणी सभा’ कीस्थापना की।
दिल्ली दरबार (वर्ष 1903) - एडवर्ड सप्तम के दरबार में शामिलहोने जा रहे फतेहसिंह को केसरीसिंह बारहठ ने ‘चेतावनी राचूंगट्या’ नामक 13 सोरठे लिखकर दिल्ली जाने से रोका।
राणा भूपालसिंह/भोपालसिंह -
सिसोदिया वंश का अंतिम शासक।
राजस्थान का एकीकरण हुआ।
राजस्थान के एकमात्र शासक जो आजीवन ‘महाराजप्रमुख’ पदपर रहे।
चौहान वंश
● चौहानों का प्रारम्भिक शासन –
1. सांभर (बिजौलिया शिलालेख के अनुसार)
2. पुष्कर (हम्मीर महाकाव्य के अनुसार)
- राजधानी – अहिच्छत्रपुर
- सांभर का प्राचीन नाम – शाकम्भरी/सपादलक्ष
● चौहानों की उत्पत्ति के मत :-
1. अग्निकुण्ड सिद्धान्त - ‘पृथ्वीराज रासो’ (चन्दबरदाई), ‘मुहणोत नैणसी’ एवं ‘सूर्यमल्ल मीसण’
2. ‘वत्सगौत्रीय ब्राह्मण’ - बिजौलिया शिलालेख के अनुसार ‘दशरथ शर्मा’ ने बताया।
3. विदेशी जाति से उत्पन्न - ‘कर्नल टॉड’ और ‘विलियम क्रुक’
4. ब्राह्मण वंशीय - ‘क्याम खाँ रासो’ (जानकवि)
- ‘पृथ्वीराज विजय’ ‘शब्दकल्पद्रुम कोष’, ‘लाडनूं लेख’ आदि में चौहानों के निवास स्थान के संबंध में जांगल देश (बीकानेर, जयपुर और उत्तरी मारवाड़), सपादलक्ष (सांभर), अहिच्छत्रपुर (नागौर) आदि स्थानों का विशेष वर्णन मिलता है।
वासुदेव चौहान :-
- शाकम्भरी के चौहान वंश का आदिपुरुष - वासुदेव (बिजौलिया शिलालेख, ‘सुर्जन चरित्र’ और डॉ. दशरथ शर्मा द्वारा रचित ‘अर्ली चौहान डायनेस्टी’ आदि साक्ष्यों के अनुसार)
- राज्य की स्थापना - 551 ई.
- राजधानी - अहिच्छत्रपुर (नागौर)
- सांभर झील का निर्माण करवाया। (बिजौलिया शिलालेख के अनुसार)
अन्य तथ्य :-
- ‘गुवक’ ने हर्षनाथ मंदिर का निर्माण करवाया जो चौहानों का ‘इष्टदेव’ है।
- पुष्कर अभिलेख के अनुसार चौहान शासक वाक्पतिराज के वंशज सिंहराज ने तोमरों एवं प्रतिहारों को परास्त किया था।
- सिंहराज के भाई लक्ष्मण ने नाडोल में चौहान वंश की शाखा स्थापित की थी।
- सिंहराज का उत्तराधिकारी विग्रहराज-द्वितीय हुआ।
विग्रहराज-द्वितीय :-
- 973 ई. के हर्षनाथ के अभिलेख से विग्रहराज के शासनकाल के बारे में जानकारी मिलती है।
- चालुक्य शासक मूलराज-प्रथम को पराजित किया।
- भड़ौच में कुलदेवी आशापुरा माता मंदिर का निर्माण करवाया।
- विग्रहराज-द्वितीय के बाद क्रमश: दुर्लभराज व गोविन्द-तृतीय नामक शासक हुए।
- पृथ्वीराज विजय नामक ग्रंथ के अनुसार गोविन्द-तृतीय की उपाधि वैरीघट्ट (शत्रुसंहारक) थी।
- वाक्पतिराज-द्वितीय ने मेवाड़ के गुहिल शासक अम्बा प्रसाद को पराजित किया था।
(i) अजमेर के चौहान
अजयराज
- शासनकाल - 1105-1133 ई.
- यह पृथ्वीराज-प्रथम का पुत्र था।
- 1113 ई. में अजयमेरु (अजमेर) नगर की स्थापना की।
- इन्होंने ‘अजयप्रिय द्रम्म’ नाम से चाँदी व ताँबे के सिक्के चलाए थे।
- इनकी कुछ मुद्राओं पर इनकी पत्नी सोमलेखा (सोमलवती) का नाम भी अंकित मिलता है।
अर्णोराज (आनाजी)
- शासनकाल - 1133-1155 ई.
- उपाधियाँ – 1. महाराजाधिराज
2. परमभट्टारक
3. परमेश्वर
- अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाया।
- पुष्कर में वराह मंदिर का निर्माण करवाया।
- इनके समय में ‘देवबोध’ और ‘धर्मघोष’ प्रकाण्ड विद्वान थे, जिनको उन्होंने सम्मानित किया था।
- अर्णोराज की हत्या 1155 ई. में इनके पुत्र जगदेव ने की थी।
विग्रहराज-चतुर्थ
- शासनकाल - 1158-1163 ई.
- उपनाम - बीसलदेव चौहान
- इनके काल को ‘चौहानों का स्वर्णयुग’ माना जाता है।
- दिल्ली पर अधिकार करने वाला प्रथम चौहान शासक था।
- संस्कृत भाषा में ‘हरिकेली’ नामक नाटक की रचना की।
- उपाधि - ‘कवि बान्धव’ (जयानक भट्ट द्वारा प्रदत्त)
- दरबारी कवि – सोमदेव
- सोमदेव ने ‘ललित विग्रहराज’ नाटक की संस्कृत भाषा में रचना की।
- सरस्वती कंठाभरण - अजमेर में संस्कृत विद्यालय की स्थापना की।
- संस्कृत विद्यालय को कुतुबुद्दीन ऐबक ने तोड़कर ‘ढाई दिन का झोंपड़ा मस्जिद’ बनवाई। इसकी जानकारी ढाई दिन के झोंपड़े की सीढ़ियों में मिले ‘दो पाषाण’ अभिलेखों में मिलती है।
- बीसलपुर नगर (वर्तमान टोंक में) की स्थापना।
- बीसलपुर बाँध का निर्माण करवाया।
- एकादशी के दिन पशु वध पर प्रतिबंध लगाया।
पृथ्वीराज चौहान-तृतीय
- जन्म - 1166 ई. (गुजरात की राजधानी ‘अन्हिलपाटन’ में)
- अजमेर के चौहान वंश का अंतिम प्रतापी शासक।
- पिता - सोमेश्वर
माता - कर्पूरी देवी (कलचूरि वंश की राजकुमारी)।
- राज्याभिषेक के समय आयु - 11 वर्ष
- इनकी माता कर्पूरी देवी इनकी संरक्षिका बनी थीं।
- शासनकाल - 1177-1192 ई.
- उपाधियाँ – 1. ‘रायपिथौरा’
2. ‘दलपुंगल’ (विश्व विजेता)
- सर्वप्रथम इन्होंने 1178 ई. में अपने चचेरे भाई नागार्जुन व भाण्डानकों के विद्रोह का दमन किया था।
- प्रधानमंत्री - ‘कदम्बवास’
- सेना अध्यक्ष - ‘भुवनैकमल्ल’
- ‘तुमुल का युद्ध’ (1182 ई.) - पृथ्वीराज ने महोबा के चंदेल शासक परमर्दिदेव को पराजित किया। इस युद्ध में परमर्दिदेव के सेनापति आल्हा व उदल वीरगति को प्राप्त हुए थे।
- ‘पृथ्वीराज रासो’ के अनुसार 1184 ई. में पृथ्वीराज-तृतीय तथा चालुक्य नरेश भीमदेव-द्वितीय दोनों के मध्य आबू के परमार शासक सलख की पुत्री इच्छिनी से विवाह को लेकर विवाद हुआ था।
- जयचंद की पुत्री संयोगिता को स्वयंवर से उठाकर पृथ्वीराज अजमेर ले आया और उससे विवाह किया था।
- 1186 से 1191 तक गौरी को पृथ्वीराज ने कई बार पराजित किया।
- हम्मीर महाकाव्य के अनुसार 7 बार, पृथ्वीराज प्रबंध में 8 बार, पृथ्वीराज रासो में 21 बार, प्रबन्ध चिंतामणि में 23 बार पृथ्वीराज तृतीय द्वारा मोहम्मद गौरी को पराजित करने का उल्लेख है।
● तराइन का प्रथम युद्ध ( 1191 ई.):-
- पृथ्वीराज-तृतीय और मुहम्मद गौरी के मध्य हुआ।
- युद्ध में गौरी गोविन्दराय के भाले से घायल हो गया।
- पृथ्वीराज-तृतीय ने मुहम्मद गौरी को पराजित किया।
- पृथ्वीराज ने गौरी की भागती हुई सेना का पीछा नहीं किया।
- पृथ्वीराज का सेनापति - ‘चामुण्डराय’
- तबरहिंद पर अधिकार कर जियाउद्दीन को बंदी बनाया और एक बड़ी धनराशि के बदले उसे रिहा कर दिया।
● तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) :-
- पृथ्वीराज के सेनापति - ‘गोविन्दराय तोमर’ और ‘समरसिंह’
- मुहम्मद गौरी की सहायता - कन्नौज के शासक ‘जयचंदगहड़वाल’
- गौरी ने संधि वार्ता का बहाना करके पृथ्वीराज को भुलावे में रखा और प्रात:काल में नित्य क्रिया के समय गौरी ने आक्रमण कर दिया।
- गोविन्दराय व अनेक वीर युद्ध भूमि में काम आए।
- पृथ्वीराज पराजित हुआ था।
- गौरी ने उसे सिरसा के पास बंदी बना लिया और अपने साथ गजनी ले गया।
- पृथ्वीराज रासो के अनुसार मुहम्मद गौरी ने एक प्रतियोगिता रखी जिसमें पृथ्वीराज चौहान ने चन्दबरदाई के कहने पर एक शब्दभेदी बाण चलाया।
- दोहा –
“चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर है सुल्तान मत चुके चौहान”
- पृथ्वीराज-तृतीय के शब्दभेदी बाण से मुहम्मद गौरी की मृत्यु हो गई थी।
- दरबारी विद्वान – पृथ्वीराज रासो के लेखक चन्दबरदाई(पृथ्वीभट्ट), पृथ्वीराज विजय के लेखक जयानक, वागीश्वर, जनार्दन आशाधर, विद्यापति गौड़, विश्वरूप आदि थे।
- डॉ. दशरथ शर्मा ने पृथ्वीराज चौहान को एक सुयोग्य शासक कहा है।
- तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद पृथ्वीराज चौहान का पुत्र गोविन्दराज अजमेर का शासक बना और उसने मुहम्मद गौरी की अधीनता स्वीकार की।
(ii) रणथम्भौर के चौहान
- संस्थापक - गोविन्दराज (पृथ्वीराज-तृतीय का पुत्र)
- गोविन्दराज ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार की।
- गोविन्दराज के पश्चात् वल्लनदेव, प्रह्लादन, वीरनारायण, वागभट्ट व जैत्रसिंह शासक बने थे।
- वीरनारायण ने रणथम्भौर पर इल्तुतमिश के आक्रमण को विफल किया था।
- वागभट्ट के पुत्र जैत्रसिंह ने नासिरुद्दीन के रणथम्भौर के आक्रमण को असफल किया था।
हम्मीर देव चौहान
- शासनकाल - 1282-1301 ई.
- पिता – जैत्रसिंह (जयसिम्हा)
- गुरु - राघव देव
- दरबारी विद्वान – बीजादित्य
- रणथम्भौर की चौहान शाखा का सबसे प्रतापी शासक।
- हम्मीर देव की जानकारी के स्रोत –
1. नयनचंद्र सूरी - हम्मीर महाकाव्य
2. सुर्जन चरित्र
3. जोधराज की रचना - हम्मीर रासो
4. अमृत कैलाश की रचना - हम्मीर बंधन
5. चंद्रशेखर की रचना - हम्मीर हठ
6. व्यास भाण्ड की रचना - हम्मीरायण
- जैत्रसिंह ने अपने जीवनकाल में अपने छोटे पुत्र हम्मीर देव को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर वर्ष 1282 में उसका राज्यारोहण किया।
- न्याय की छतरी - हम्मीर देव द्वारा अपने पिता जयसिंह के 32 वर्षों के शासन की याद में रणथम्भौर दुर्ग में बनवाई गई 32 खंभों की छतरी।
- हम्मीर ने अपनी पुत्री पद्मला के नाम पर ‘पद्मला तालाब’ बनवाया।
- हम्मीर ने दिग्विजय की नीति अपनाते हुए भीमरस के राजा अर्जुन को पराजित करके माण्डलगढ़ से कर वसूल किया।
- इन्होंने दक्षिण के परमार शासक भोज को पराजित किया।
- भोज पर विजय के उपलक्ष्य में हम्मीर ने ‘कोटियजन यज्ञ’ का आयोजन करवाया।
- हम्मीर देव के हठ के बारे में कहा गया है कि –
“सिंह सवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलत इकबार,
तिरिया-तेल हम्मीर-हठ, चढ़े न दूजी बार”
- हम्मीर ने दिग्विजय की नीति अपनाई।
- मेवाड़ के शासक समरसिंह को पराजित किया था।
- जलालुद्दीन खिलजी - 1291 ई. में झाईन दुर्ग पर आक्रमण
चौहान सेना का नेतृत्व - गुरुदास सैनी
आक्रमण का वर्णन - ‘मिफता-उल-फुतुह’ में
- जलालुद्दीन खिलजी को रणथम्भौर दुर्ग जीतने में सफलता नहीं मिली तब खिलजी ने कहा– ‘मैं रणथम्भौर जैसे 10 दुर्गों को मुसलमान के एक बाल के बराबर भी नहीं समझता हूँ।‘
- जलालुद्दीन जून, 1291 में वापस दिल्ली चला गया।
- ‘हम्मीर महाकाव्य’ के अनुसार हम्मीर देव का अलाउद्दीन के विद्रोही मंगोल सेनानायक मुहम्मदशाह को शरण देना खिलजी के रणथम्भौर पर आक्रमण का कारण बना।
- अलाउद्दीन ने वर्ष 1299 के अंत में उलूग खाँ और नुसरत खाँ के नेतृत्व में सेना को रणथम्भौर पर आक्रमण के लिए भेजा।
- खिलजी की सेना ने झाईन दुर्ग (रणथम्भौर की कुंजी) पर अधिकार कर लिया।
- हम्मीरदेव उस समय कोटियजन यज्ञ समाप्त कर मौनव्रत धारण किए हुए था।
- हम्मीर देव ने अपने दो सेनापति भीमसिंह और धर्मसिंह को इनके विरुद्ध भेजा जिन्होंने शाही सेना को पराजित कर लूट का माल लेकर रणथम्भौर की ओर लौट पड़े।
- खिलजी की सेना द्वारा पुन: आक्रमण की सूचना मिलने पर भीमसिंह ने धर्मसिंह को रणथम्भौर भेजकर स्वयं शत्रुओं का मुकाबला करने गया। जहाँ भीमसिंह युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया।
- शाही सेना रणथम्भौर की ओर न आकर दिल्ली लौट गई।
- अलाउद्दीन खिलजी ने उलुग खाँ और नुसरत खाँ को एक बड़ी सेना के साथ रणथम्भौर दुर्ग पर पुन: आक्रमण के लिए भेजा।
- खिलजी की सेना ने रणथम्भौर दुर्ग की घेराबंदी कर दुर्ग की प्राचीरों को तोड़ना शुरू किया।
- दुर्ग में से आए एक गोले से नुसरत खाँ की मृत्यु हो गई। यह सुनकर तुर्की सेना भागने लगी।
- उलूग खाँ ने अलाउद्दीन को नुसरत खाँ की मृत्यु का समाचार भेज कर और अधिक सेना भेजने का अनुरोध किया।
● 1301 ई. अलाउद्दीन खिलजी का रणथम्भौर पर आक्रमण–
- अलाउद्दीन स्वयं एक विशाल सेना लेकर रणथम्भौर आया और दुर्ग की घेराबंदी की। यह घेराबंदी कई दिनों तक चली लेकिन सफलता नहीं मिली।
- वर्षा ऋतु निकट आने और दिल्ली तथा अवध में भयंकर विद्रोह की सूचना मिलने पर खिलजी काफी चिंतित हुआ। खिलजी ने छल-कपट से रणथम्भौर विजय करने का निश्चय किया।
- अलाउद्दीन ने हम्मीर देव को संधि करने का संदेश भेजा। हम्मीर ने रणमल व रतिपाल को संधि करने के लिए खिलजी के शिविर में भेजा।
- अलाउद्दीन ने छल-कपट का सहारा लिया और हम्मीर के सेनापति रतिपाल व रणमल और अधिकारी सुर्जनशाह को अपनी ओर मिला लिया।
- रणमल और रतिपाल ने खिलजी को दुर्ग का गुप्त मार्ग बताया। तुर्की सेना गुप्त मार्ग से दुर्ग में घुसी।
- इतिहासकारों के अनुसार एक वर्ष की लम्बी घेराबंदी के कारण दुर्ग में रसद का अभाव हो गया था ऐसी स्थिति में हम्मीर ने युद्ध करने का निर्णय लिया।
- दुर्ग में हम्मीर देव की रानी रंगदेवी व पुत्री पद्मला के नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों ने जल जौहर किया।
- राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर खिलजी सेना से युद्ध किया।
- हम्मीर देव युद्ध लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
- यह राजस्थान का प्रथम साका था।
- 11 जुलाई, 1301 को रणथम्भौर पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया।
- खिलजी ने विश्वासघाती रणमल और रतिपाल को भी मार दिया।
- युद्ध का आँखों देखा वर्णन ‘अमीर खुसरो’ ने अपने ग्रंथ ‘खजाइन-उल-फुतुह’ में किया।
- अमीर खुसरो ने लिखा कि ‘कुफ्र का गढ़ आज इस्लाम का घर हो गया’।
- हम्मीर देव ने 17 युद्ध किए, जिसमें से 16 युद्ध में विजयी रहा और अंतिम युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
- हम्मीर की मृत्यु के पश्चात् चौहानों की रणथम्भौर शाखा समाप्त हो गई।
(iii) नाडोल के चौहान
- संस्थापक - शाकम्भरी के चौहान शासक वाक्पतिराज का पुत्र लक्ष्मण चौहान था।
- लक्ष्मण चौहान ने 981 ई. में नाडोल में आशापुरा देवी के मन्दिर का निर्माण करवाया।
- लक्ष्मण चौहान की मृत्यु के बाद इनका पुत्र शोभित (सोही) ने भीनमाल के शासक मान-परमार को पराजित कर भीनमाल पर अपना राज्य स्थापित किया।
- महेन्द्र चौहान के पुत्र अल्हण ने गुजरात के शासक भीमदेव-प्रथम को पराजित किया था।
- किराडू अभिलेख के अनुसार प्रवृत्ति समय में नाडोल की चौहान शाखा का शासक अल्हण बना था।
- नाडोल के चौहान शासक अल्हण के छोटे पुत्र कीर्तिपाल (कीतू/कीरत) ने बारहवीं सदी में जालोर में चौहान वंश की नींव डाली।
(iv) जालोर के चौहान
- जालोर का प्राचीन नाम - जाबालिपुर
- जालोर के शासक सोनगरा चौहान कहलाए।
- जालोर में चौहान वंश की स्थापना - 1181, कीर्तिपाल (कीतू)
- कीर्तिपाल के उत्तराधिकारी समरसिंह हुए।
- समरसिंह ने गुजरात के शासक भीमदेव-द्वितीय से अपनी पुत्री लीला देवी का विवाह करवाया।
उदयसिंह
- शासनकाल - 1205-1257 ई.
- कीर्तिकौमुदी के अनुसार समरसिंह के उत्तराधिकारी ’उदयसिंह’(1205-1257 ई.) के समय में जालोर की अधिक परिवृद्धि हुई।
- 1228 में दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश के जालोर आक्रमण को उदयसिंह ने असफल कर दिया।
- फारसी तवारिखों के अनुसार उदयसिंह ने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली तथा 100 ऊँट एवं 20 घोड़े सुल्तान को भेंट किए।
- 1254 ई. में नासिरुद्दीन महमूद का आक्रमण - ‘कान्हड़दे प्रबन्ध’ के अनुसार मुस्लिम सेना को परास्त होकर लौटना पड़ा।
- दशरथ शर्मा के अनुसार - उदयसिंह के पुत्र ‘चाचिगदेव’ (1257-1282 ई.) ने राज्य की सीमा को बढ़ाया। वह नासिरुद्दीन महमूद तथा बलबन का समकालीन था।
सामंतसिंह
- शासनकाल - 1282-1305 ई.
- बरनी के अनुसार चाचिगदेव के बाद उसका पुत्र सामन्तसिंह शासक बना।
- खिलजी शासक फिरोज 1291 ई. सांचौर तक बढ़ आया जिसे बाघेला सारंगदेव की सहायता से धकेला जा सका।
- सामन्तसिंह ने अपने योग्य पुत्र कान्हड़दे के हाथ में राज्य की बागडोर सौंप दी।
कान्हड़देव
- शासनकाल - 1305-1311 ई.
- जालोर के चौहान शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली शासक।
- कान्हड़देव की जानकारी पद्मनाभ के ग्रंथ ‘कान्हड़देव प्रबंध’ में मिलती है।
- कान्हड़देव व अलाउद्दीन खिलजी के मध्य संघर्ष के कारण –
1. अलाउद्दीन की सेना का गुजरात आक्रमण के समय कान्हड़देव ने रास्ता रोक दिया था।
- 1305 ई. में अलाउद्दीन ने अपने सेनापति ऐन-उल-मुल्क मुल्तानी को जालोर पर आक्रमण करने के लिए भेजा।
- ऐन-उल-मुल्क मुल्तानी ने समझौता कर कान्हड़देव को खिलजी के दरबार ले गया।
2. तारीख-ए-फ़रिश्ता ग्रंथ के अनुसार - खिलजी ने हिन्दू शासकों की शक्ति को चुनौती दी थी जिसको कान्हड़देव सहन न कर सका और जालोर लौटकर युद्ध की तैयारियाँ शुरू की थी।
3. नैणसी के अनुसार - कान्हड़देव के पुत्र वीरमदेव ने अलाउद्दीन खिलजी की पुत्री फिरोजा से विवाह करने से इन्कार कर दिया था इसलिए अलाउद्दीन ने आक्रमण किया था।
● अलाउद्दीन खिलजी का सिवाना दुर्ग (जालोर की कुंजी) पर आक्रमण, 1308 ई. –
- खिलजी की सेना का नेतृत्व - कमालुद्दीन गुर्ग
- सिवाना दुर्ग को जीतकर इसका नाम खैराबाद रखा तथा यहाँ का प्रतिनिधि कमालुद्दीन गुर्ग को नियुक्त किया।
● अलाउद्दीन खिलजी का जालोर दुर्ग पर आक्रमण, 1311 ई.-
- अलाउद्दीन ने जालोर दुर्ग पर घेरा डाला लेकिन सफलता नहीं मिली। अंत में अलाउद्दीन खिलजी ने कान्हड़देव के सेनापति बीका दहिया के सहयोग से दुर्ग पर अधिकार किया।
- कान्हड़देव व इनके पुत्र वीरमदेव युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए तथा किले में महिलाओं ने जौहर किया।
- अलाउद्दीन ने जालोर दुर्ग को जीतकर इसका नाम जलालाबादरखा।
- अलाई/तोप खाने की मस्जिद - खिलजी ने जालोर दुर्ग में निर्माण करवाया।
- इस युद्ध की जानकारी पद्मनाथ के ग्रंथ ‘कान्हड़दे प्रबंध’ तथा ‘वीरमदेव सोनगरा री बात’ में मिलती है।
(v) सिरोही के चौहान
- प्राचीन साहित्य में सिरोही को अर्बुद प्रदेश कहा गया है।
- कर्नल टॉड के अनुसार सिरोही नगर का मूल नाम ‘शिवपुरी’ था।
- सिरोही के चौहान वंश का संस्थापक राव लुम्बा था, जो जालोर की देवड़ा शाखा से सम्बन्धित था, इसलिए सिरोही के चौहानों को देवड़ा चौहान कहा गया है।
- लुम्बा देवड़ा ने चंद्रावती व आबू पर 1311 ई. में परमारों को हराकर सिरोही में चौहान वंश की स्थापना की।
- सिरोही के देवड़ाओं का आदिपुरुष लुम्बा देवड़ा था, जिसकी राजधानी चंद्रावती थी।
- शिवभान का उत्तराधिकारी सहसमल हुआ।
- 1425 ई. में सहसमल देवड़ा ने वर्तमान सिरोही नगर की स्थापना की।
- मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने सहसमल को पराजित किया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में राणा कुम्भा ने अचलगढ़ दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया।
- सहसमल का उत्तराधिकारी लाखा देवड़ा हुआ।
- 1452 ई. में लाखा देवड़ा ने पावागढ़ (गुजरात) पर आक्रमण कर वहाँ से कालिका माता की मूर्ति को सिरोही स्थापित किया और लाखनाव तालाब का निर्माण करवाया।
- लाखा का उत्तराधिकारी जगमाल हुआ।
- जगमाल के समय मेवाड़ का महाराणा रायमल था।
- बहलोल लोदी के मेवाड़ आक्रमण (1474 ई.) के समय जगमाल ने मेवाड़ के महाराणा रायमल का साथ दिया।
- जगमाल ने जालोर के मालिक मजीद खाँ को पराजित किया था।
- 1527 ई. में अखेराज देवड़ा ने खानवा के युद्ध में मेवाड़ के महाराणा सांगा की सहायता की थी। इसे ‘उड़ना अखेराज’ भी कहा जाता था।
- 1575 ई. में सुरताण देवड़ा ने अकबर की अधीनता स्वीकार की।
- 1583 ई. में सुरताण देवड़ा ने ‘दत्ताणी युद्ध’ में जगमाल सिसोदिया को हराया था।
- सुरताण देवड़ा के दरबारी कवि दुरसा आढ़ा ने ‘राव सुरताणा कवित्त’ पुस्तक लिखी।
- 1823 ई. में शिवसिंह ने अंग्रेजों के साथ ईस्ट इण्डिया कंपनी से संधि कर ली थी। यह अंग्रेजों के साथ संधि करने वाली अंतिम रियासत थी।
- सिरोही चौहान वंश का अंतिम शासक अभयसिंह देवड़ा था।
(vi) हाड़ौती के चौहान
- हाड़ौती क्षेत्र में वर्तमान बूँदी, कोटा एवं बाराँ के क्षेत्र आते हैं।
- हाड़ा चौहानों के शासन करने के कारण यह क्षेत्र हाड़ौती क्षेत्र कहलाया।
- प्रारम्भ में इस क्षेत्र में मीणा जाति का अधिकार था।
- कुंभा कालीन ‘राणपुर लेख’ में बूँदी का नाम ‘वृंदावती’ मिलता है।
A. बूँदी के चौहान
देवा हाड़ा
- देवा हाड़ा प्रारंभ में मेवाड़ स्थित ‘बम्बावदे’ का सामंत और नाडोल चौहानों का वंशज था।
- 1241 ई. में मीणाओं से बूँदी को छीनकर बूँदी राज्य की स्थापना की।
- देवा हाड़ा के उत्तराधिकारी समरसिंह हाड़ा ने 1264 ई. में कोटिया शाखा के भीलों को पराजित कर कोटा पर अधिकार किया था।
- समरसिंह हाड़ा का उत्तराधिकारी जैत्रसिंह हाड़ा ने कोटा में गुलाब महल व कोटा के किले का निर्माण करवाया था।
- समरसिंह का उत्तराधिकारी नापुजी हाड़ा था, जो 1304 ई. में अलाउद्दीन खिलजी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
- 1354 ई. में बूँदी के शासक बरसिंह हाड़ा ने बूँदी के तारागढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।
राव सुर्जन हाड़ा
- शासनकाल - 1554-1585 ई.
- 1568 ई. में बूँदी को मेवाड़ रियासत से स्वतंत्र किया।
- रणथम्भौर दुर्ग पर अधिकार किया।
- 1569 ई. में रणथम्भौर दुर्ग में अकबर की अधीनता स्वीकार की।
- मुगल बादशाह अकबर ने रावराजा की उपाधि व 5 हजार का मनसब दिया।
- दरबार विद्वान/कवि - चंद्रशेखर
- मृत्यु - 1585 ई. में बनारस में।
- द्वारकापुरी में रणछोड़ जी का मंदिर बनवाया।
रतनसिंह हाड़ा
- शासनकाल - 1607-1631 ई.
- जहाँगीर ने ‘रामराजा’, ‘सरबुलंदराय’ की उपाधियाँ दी।
- इन्होंने खुर्रम के विद्रोह को दबाने के लिए दक्षिण भारत जाकर उसे बंदी बनाकर जेल में डाल दिया था।
बुद्धसिंह
- शासनकाल - 1695-1730 ई.
- राव अनिरुद्धसिंह का ज्येष्ठ पुत्र।
- 1699 ई. में रानी नाथावती ने राणीजी की बावड़ी का निर्माण करवाया।
- ‘नेहतरंग’ नामक ग्रंथ की रचना की।
- मुगल बादशाह फर्रुखसियर के समय बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के कारण बूँदी का राज्य कोटा नरेश भीमसिंह को दे दिया और बूँदी का नाम बदलकर ‘फर्रुखाबाद’ कर दिया।
- राजस्थान में मराठों का सर्वप्रथम हस्तक्षेप बूँदी में हुआ।
- 1734 ई. में बुद्धसिंह की कच्छवाही रानी आनंद कुँवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर व राणो जी को आमंत्रित किया।
उम्मेदसिंह
- शासनकाल - 1749-1770 ई.
- तारागढ़ दुर्ग (बूँदी) में ‘चित्रशाला’ की स्थापना की।
- इनको एक राजा ने घोड़ा भेंट किया जिसका नाम ‘हूंजा’ था।
- उपाधि - श्रीजी
- 1818 ई. में बूँदी शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि कर ली।
- बूँदी का अन्तिम शासक - बहादुरसिंह हाड़ा
- 25 मार्च, 1948 को बूँदी का विलय राजस्थान संघ में कर दिया गया।
B. कोटा के चौहान
- कोटा प्रारम्भ में बूँदी रियासत का ही भाग था।
- जैत्रसिंह हाड़ा ने कोटिया भील को हराकर कोटा पर अधिकार किया था और कोटिया भील के नाम पर इस राज्य का नाम कोटा रखा।
- यहाँ पर ऐतिहासिक काल में कृष्ण भक्ति का प्रभाव था इसलिए कोटा का नाम ‘नंदग्राम’ भी मिलता है।
- बूँदी शासक राव भोज ने अपने पुत्र हृदय नारायण को अकबर की स्वीकृति से कोटा का शासक नियुक्त किया था।
- मुगल स्वीकृति से कोटा राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व हुआ।
- हृदय नारायण हाड़ा बूँदी के शासकों के अधीनस्थ था।
- झूमी के युद्ध (1623 ई.) में हृदय नारायण ने जहाँगीर का साथ छोड़ दिया था। इस कारण जहाँगीर ने हृदय नारायण से कोटा को छीन लिया।
माधोसिंह
- शासनकाल - 1631-1648 ई.
- राव रतनसिंह का पुत्र।
- यहीं से कोटा में चौहानों की हाड़ा शाखा की स्थापना होती है।
- इसके शासनकाल में मुगल राज्य की दृष्टि में हाड़ौती की शक्ति का केन्द्र कोटा था।
- शाहजहाँ ने ‘रफ्तार’ नाम का एक घोड़ा उपहार में दिया।
मुकुन्दसिंह
- शासनकाल - 1648-1658 ई.
- राव माधोसिंह का उत्तराधिकारी।
- 1658 ई. में मुगलों के उत्तराधिकारी युद्ध में शामिल हुए और धरमत के युद्ध में शाही सेना की तरफ से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
- मुकुन्दरा हिल्स में ‘अबली-मीणी’ का महल बनवाया, जिसे राजस्थान का ‘दूसरा ताजमहल’ कहते हैं।
राव किशोरसिंह
- शासनकाल - 1684-1696 ई.
- किशोर सागर तालाब का निर्माण करवाया।
- चाँदखेड़ी के जैन मन्दिर का निर्माण करवाया।
रामसिंह हाड़ा-प्रथम
- शासनकाल - 1696-1707 ई.
- इसने मराठा शासक राजाराम व औरंगजेब के मध्य समझौता करवाने का प्रयास किया था।
- 1707 ई. में जजाऊ के युद्ध में आजम की ओर से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
- उपनाम - ‘भड़भूज्या’
- रामपुरा बाजार, रावटा तालाब, रामपुरा दरवाजा, शहरपनाह, रामगंज तथा सूरजपोल आदि का निर्माण करवाया।
भीमसिंह
- शासनकाल - 1707-1720 ई.
- 1713 ई. में बूँदी पर आक्रमण कर राजकोष, धूलवाणी व कड़क बिजली तोपें छीनकर लाया था।
- मुगल बादशाह फर्रुखसियर ने पाँच हजार की मनसबदारी प्रदान की।
- कोटा का पहला शासक जिसने पाँच हजार की मनसबदारी प्राप्त की तथा महाराव की उपाधि धारण की।
- भीमविलास, भीमगढ़ का किला, बृजनाथ जी व आशापुराजी के मन्दिर का निर्माण करवाया था।
- इनके समय कोटा राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ था।
महाराव दुर्जनशाल
- शासनकाल - 1723-56 ई.
- अपने बड़े भाई श्यामसिंह से उदपुरिया के युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया।
- कोटा का अन्तिम शासक था, जिसके मुगलों से अच्छे सम्बन्ध थे।
- इसके समय में कोटा राज्य पर मुगल प्रभाव समाप्त होकर मराठा प्रभाव स्थापित हुआ था।
- हुरड़ा सम्मेलन में भाग लिया था।
महाराव शत्रुसाल-प्रथम
- शासनकाल - 1756-64 ई.
- 1761 ई. में जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह प्रथम को भटवाड़ा के युद्ध (बाराँ) में पराजित किया। इस युद्ध में सेनापति झाला जालिमसिंह था।
महाराव उम्मेदसिंह
- शासनकाल - 1770-1819 ई.
- 1817 ई. को अंग्रेजों से सन्धि की।
- इसके समय कोटा के दीवान जालिमसिंह ने अंग्रेजों से 1818 ई. में एक गुप्त संधि की थी, जिसके तहत राज्य की प्रशासनिक सत्ता वंशानुगत रूप से अपने परिवार के लिए सुरक्षित कर ली थी।
महाराव किशोरसिंह
- शासनकाल - 1819-1828 ई.
- प्रशासनिक शक्तियों को लेकर झाला जालिमसिंह व महाराव किशोरसिंह के मध्य मत-भेद हो गया था।
- मांगरोल का युद्ध (1821 ई.) - कोटा महाराव किशोरसिंह और दीवान झाला जालिमसिंह के मध्य हुआ। युद्ध में किशोरसिंह पराजित हुआ था।
- इस युद्ध में अंग्रेजों का सहयोग (कर्नल टॉड) झाला जालिमसिंह को मिला था।
- झाला जालिमसिंह और महाराव किशोरसिंह के मध्य 22 नवंबर, 1821 को मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह ने समझौता करवाया।
महाराव रामसिंह-द्वितीय
- शासनकाल - 1828-65 ई.
- अंग्रेजों ने 1838 ई. में कोटा से 17 परगने अलग कर झालावाड़ राज्य की स्थापना की थी तथा झाला मदनसिंह को शासक नियुक्त किया।
- 1857 की क्रांति में जयदयाल व मेहराब खाँ के नेतृत्व में जनता ने इसको कोटा के किले में नजरबंद कर दिया था।
- इस क्रांति में रामसिंह-द्वितीय की असफलता के कारण अंग्रेजों ने इनकी तोपों की सलामी 17 से घटाकर 13 कर दी थी।
महाराव उम्मेदसिंह-द्वितीय
- शासनकाल - 1888-1940 ई.
- मेयो कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की थी।
- इनके समय कोटा के जो 17 परगने जो झालावाड़ को दिए थे उनमें से 15 परगने कोटा राज्य को मिल गए थे।
- इनके समय वायसराय लॉर्ड कर्जन कोटा आए थे, जो एकमात्र वायसराय था, जिसने कोटा की यात्रा की।
महाराव भीमसिंह
- शासनकाल - 1940-48 ई.
- कोटा चौहान वंश का अंतिम शासक।
- कोटा का विलय संयुक्त राजस्थान में 25 मार्च, 1948 को किया गया तथा कोटा को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाई।
- संयुक्त राजस्थान का राजप्रमुख बनाया गया।
C. झालावाड़ के चौहान
- परमार शिलालेख के अनुसार 11वीं-12वीं सदी में झालावाड़ क्षेत्र में परमारों का शासन था।
- इल्तुतमिश ने उज्जैन पर अधिकार किया तब झालावाड़ क्षेत्र इल्तुतमिश के अधीन हो गया था।
- बूँदी के शासक सुर्जनसिंह हाड़ा ने इस क्षेत्र पर हाड़ा वंश का शासन स्थापित किया था लेकिन कुछ समय बाद यह क्षेत्र मुगलों ने अपने अधीन ले लिया था।
- कोटा के महाराव रामसिंह-द्वितीय के समय अंग्रेजों ने 1838 ई. में कोटा से 17 परगने अलग कर झालावाड़ राज्य की स्थापना की थी तथा झाला मदनसिंह को शासक नियुक्त किया था।
- अंग्रेजों ने मदनसिंह झाला को ‘राजराणा’ की उपाधि प्रदान की।
- झाला मदन सिंह ने 1838 ई. में अंग्रेजों से संधि की थी।
- 1857 की क्रांति के समय झालावाड़ का शासक पृथ्वीसिंह था।
- पृथ्वीसिंह के समय राजस्थान में तात्या टोपे ने झालावाड़ रियासत में प्रवेश किया था।
- इनके समय में 1862 ई. में अंग्रेजों ने झालावाड़ रियासत को उत्तराधिकारी गोद लेने का अधिकार दिया था।
- वर्ष 1921 में राजराणा भवानीसिंह ने ‘भवानी नाट्यशाला’ की स्थापना की।
- वर्ष 1929 में राजराणा राजेंद्रसिंह ने सर्वप्रथम दलितों को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी।
- वर्ष 1930 में राजराणा राजेंद्रसिंह प्रथम गोलमेज सम्मेलन में दर्शक के रूप में सम्मिलित हुए।
- राजस्थान के एकीकरण के समय झालावाड़ का शासक हरिश्चंद्र था।
- झालावाड़ रियासत का विलय राजस्थान संघ में हुआ।
- इस शाखा का अंतिम शासक राजराणा हरिश्चन्द्र था।
राठौड़ वंश
- राठौड़ वंश शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द राष्ट्रकूट से हुई है।
- डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने राठौड़ों को बदायूँ के राठौड़ों का वंशज बताया है।
- कर्नल जेम्स टॉड एवं विश्वेश्वर नाथ रेऊ ने मारवाड़ के राठौड़ों को कन्नौज के जयचंद का वंशज बताया है।
- भाटों की पोथियों में राठौड़ों को हिरण्यकश्यप के वंशज बताया गया है।
- दयालदास ने ‘राठौड़ों री ख्यात’ में राठौड़ों को सूर्यवंशी बताते हुए उन्हें भल्लराव ब्राह्मण की संतान माना है।
- नैणसी री ख्यात, जोधपुर राज्य री ख्यात व पृथ्वीराज रासो में राठौड़ों को कन्नौज से संबंधित बताया है।
- मारवाड़ को प्राचीनकाल में मरुवार, धन्वक्षेत्र, नवसहस्त्र अथवा मरुस्थल कहा जाता था।
- जोधपुर, नागौर, पाली, बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर तथा जालोर का कुछ क्षेत्र मारवाड़ के अन्तर्गत आता है।
- मारवाड़ की प्रारंभिक राजधानी मण्डोर थी। मण्डोर को प्राचीनकाल में माण्डव्यपुर, मण्डोवर के नाम से जाना जाता था।
(i) मारवाड़ के राठौड़
राव सीहा
- शासनकाल - 1240 – 1273 ई.
- मारवाड़ के राठौड़ राजवंश का संस्थापक/आदिपुरुष/ मूलपुरुष।
- राव सीहा को कन्नौज के जयचंद गहड़वाल का वंशज माना जाता है।
- बीठू गाँव, पाली के एक शिलालेख के अनुसार राव सीहा मुसलमानों के विरुद्ध 1273 ई. में लाखा झंवर के युद्ध (धौला चोतरा, पाली) में गौ रक्षार्थ शहीद हुए तथा उनकी पत्नी पार्वती सोलंकी सती हुई थी।
राव आसथान/अस्थान
- शासनकाल - 1273 - 1291 ई.
- खेड़ (बाड़मेर) को राजधानी बनाया।
- खेड़ में रणछोड़ राय मन्दिर का निर्माण करवाया।
- 1291 ई. में जलालुद्दीन खिलजी की सेना से पाली की रक्षा करता हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
राव धूहड़
- शासनकाल - 1291 - 1309 ई.
- चक्रेश्वरी देवी की मूर्ति कर्नाटक से लाकर नागाणा गाँव (बाड़मेर) में स्थापित करवाई जो नागणेची माता (18 भुजाओं वाली देवी) कहलाई। यह राठौड़ राजवंश की कुलदेवी हैं।
- राव धूहड़ के पश्चात् इनके वंशज रायपाल, कर्णपाल, वीरमदेव, राव मल्लीनाथ इत्यादि शासक बने।
राव चूंडा
- शासनकाल - 1394 - 1423 ई.
- मारवाड़ के राठौड़ वंश का वास्तविक संस्थापक।
- वीरमदेव का पुत्र।
- वीरमदेव की मृत्यु के पश्चात् चूंडा की माता ने उसे कलाऊ के आल्हा चारण के संरक्षण में रखा था।
- ईंदा ने अपनी पुत्री किशोरी देवी/लालीदेवी का विवाह राव चूंडा के साथ करवा दिया तथा मण्डोर दुर्ग दहेज में दे दिया।
- मण्डोर को अपनी राजधानी बनाया।
- नागौर के शासक जलाल खाँ खोखर को मारकर नागौर पर अधिकार कर लिया तथा नागौर में चूण्डासर नामक तालाब बनवाया।
- रानी चाँद कँवर ने चाँद बावड़ी (जोधपुर) का निर्माण करवाया।
- 1423 ई. में पूंगन के भाटियों के द्वारा धोखे से मारा गया।
राव कान्हा
- शासनकाल - 1423 - 1427 ई.
- राव चूंडा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राव रणमल को राज्य से वंचित करके लाली/किशोरी देवी के प्रेम प्रभाव में आकर कान्हा को मारवाड़ का शासक बना दिया था।
- राव कान्हा अत्याचारी और अयोग्य शासक था।
- इतिहासकारों के अनुसार जोहियावाही में साँखला राजपूतों के विरुद्ध लड़ता हुआ वह मारा गया।
- ख्यात साहित्य के अनुसार राव कान्हा ने करणी माता की गायों की हत्या करवाई थी। इसलिए करणी माता ने कान्हा का वध कर दिया था।
राव रणमल
- शासनकाल - 1427 - 1438 ई.
- चूंडा का ज्येष्ठ पुत्र था।
- राव चूंडा ने कान्हा को मारवाड़ का उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
- रणमल मेवाड़ के महाराणा लाखा की सेवा में चला गया।
- अपनी बहिन हंसाबाई का विवाह राणा लाखा से इस शर्त पर किया कि हंसा बाई से उत्पन्न पुत्र मेवाड़ का शासक होगा।
- कुंभा ने रणमल की प्रेमिका भारमली की मदद से 1438 ई. में रणमल की हत्या करवा दी।
- रणमल की पत्नी कोड़मदे ने कोड़मदेसर, बीकानेर में बावड़ी बनवाई। यह राजस्थान की सबसे प्राचीन बावड़ी है।
राव जोधा
- शासनकाल - 1438-89 ई.
- रणमल व कोड़मदे का पुत्र।
- रणमल की हत्या के बाद मेवाड़ से भागकर बीकानेर के काहूनी गाँव चला गया।
- हड़बू साँखला की मदद से लगातार 15 वर्षों के अथक परिश्रम के पश्चात् 1453 ई. में मारवाड़ पर अधिकार कर लिया।
- आवल-बावल की संधि (1453 ई.) - हंसाबाई की मध्यस्थता से कुंभा व जोधा के बीच हुई।
- संधि के द्वारा मारवाड़ तथा मेवाड़ की सीमाओं का निर्धारण किया गया। इस सीमा निर्धारण का मुख्य बिन्दु सोजत था।
- अपनी पुत्री शृंगार देवी का विवाह कुंभा के पुत्र रायमल से किया।
- 12 मई, 1459 को जोधपुर नगर की स्थापना की एवं उसे अपनी राजधानी बनाया।
- चिड़ियाटूँक पहाड़ी पर मेहरानगढ़ दुर्ग बनवाया। दुर्ग की नींव करणी माता के हाथों रखी गई थी।
- रानी जसमादे ने मेहरानगढ़ दुर्ग में राणीसर तालाब का निर्माण करवाया।
- मारवाड़ में सामंत प्रथा का वास्तविक संस्थापक।
राव सातलदेव
- शासनकाल - 1489 - 1492 ई.
- राव जोधा तथा हाड़ी रानी जसमादे का पुत्र।
- जोधपुर के पीपाड़ नामक स्थान पर गणगौर पूजा कर रहीं 140 कुंवारी कन्याओं का अजमेर के हाकिम मल्लू खाँ के सेनापति घुड़ले खाँ ने अपहरण कर लिया।
- सातलदेव ने घुड़ले खाँ पर आक्रमण कर उन कन्याओं को मुक्त करवाया तथा घुड़ले खाँ का सिर काटकर उसे छिद्रित कर कन्याओं को दे दिया।
- घुड़ले खाँ की पुत्री गींदोली को अजमेर से उठा लाया तथा अपने रंग महल में रख लिया।
- गींदोली ने सातलदेव की अनुमति प्राप्त कर अपने पिता घुड़ले खाँ की याद में घुड़ला त्योहार शुरू करवाया।
- पीपाड़ के युद्ध के दौरान सातलदेव बुरी तरह घायल हो गया था। इससे 1492 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
- रानी फूला भटियाणी ने जोधपुर में फूलेलाव तालाब का निर्माण करवाया था।
राव सूजा
- शासनकाल - 1492 - 1515 ई.
- बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया था।
- रानी जसमादे ने मध्यस्थता करते हुए राजचिह्न व छत्र आदि वस्तुएँ बीका को दिलाते हुए संघर्ष को टाला।
- मेड़ता पर वीरमदेव ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया।
राव गांगा
- शासनकाल - 1515 - 1531 ई.
- बाघा जी का पुत्र तथा राव सूजा का पौत्र।
- राव बाघा की मृत्यु 1510 ई. में सोजत के युद्ध में हो गई थी। अत: गांगा को मारवाड़ का शासक बनाया गया।
- खानवा के युद्ध में अपने पुत्र मालदेव के नेतृत्व में 4000 की सेना भेजकर राणा सांगा की मदद की।
- गांगलाव तालाब, गांगा बावड़ी व गंगश्याम जी के मंदिर का निर्माण करवाया।
- सेवकी का युद्ध (1529 ई.) - विद्रोही चाचा शेखा ने नागौर के दौलत खाँ की सहायता से मारवाड़ पर आक्रमण किया जिसमें शेखा मारा गया।
- दौलत खाँ के हाथी को लेकर कुँवर मालदेव व मेड़ता के वीरमदेव के मध्य युद्ध हुआ था।
- कुछ इतिहासकारों के अनुसार राव गांगा की हत्या उसी के पुत्र मालदेव ने की थी।
राव मालदेव
- शासनकाल - 1531 - 1562 ई.
- राव गांगा व मणिक देवी (सिरोही के राव जगमाल की पुत्री) का सबसे बड़ा पुत्र था।
- मारवाड़ के राठौड़ वंश का प्रथम पितृहंता।
- राज्याभिषेक - 21 मई, 1531 को सोजत में
- हिन्दुओं का सहयोगी होने के कारण हिन्दू बादशाह भी कहा जाता है।
- रानी उमादे (जैसलमेर के राव लूणकरण की पुत्री) रूठीरानी के नाम से जानी जाती है। रानी उमादे को अजमेर से मनाकर ईश्वरदास जी जोधपुर लाए लेकिन आसा बारहठ ने रानी को एक दोहा सुनाया, जिससे वह वापस नाराज हो गई।
- अबुल फज़ल एवं निजामुद्दीन ने ‘हशमत वाला राजा’ कहा था।
- बदायूँनी ने 'भारत का महान पुरुषार्थी राजकुमार' तथा फरिस्ता ने 'हिन्दुस्तान का सबसे शक्तिशाली राजा' कहा है।
- मारवाड़ चित्र शैली का उद्भव मालदेव के काल में हुआ।
- प्रथम अभियान भाद्राजूण के शासक वीरा के विरुद्ध 1531 ई. में आरंभ किया। इसमें वीरा मारा गया तथा भाद्राजून पर अधिकार हो गया।
- हीराबाड़ी (नागौर) का युद्ध (1533 ई.) - नागौर के शासक दौलत खाँ व मालदेव के मध्य हुआ। मालदेव विजयी हुआ व नागौर पर अधिकार करके वीर मांगलियोत को नागौर का सूबेदार बनाया।
- 1535 ई. में मेड़ता पर आक्रमण कर वीरमदेव को पराजित किया तथा अजमेर व मेड़ता पर अधिकार कर लिया। वीरमदेव भागकर शेरशाह की शरण में चला गया।
- 1538 ई. सिवाणा, जालोर व सांचौर पर अधिकार कर लिया।
- पाहेबा/साहेबा का युद्ध (1541 ई.) - सेनापति जैता व कूंपा के नेतृत्व में राव जैतसी के साथ जोधपुर के फलोदी नामक स्थान पर हुआ। राव जैतसी मारा गया तथा बीकानेर का प्रबंध कूंपा को सौंपा गया।
- गिरी-सुमेल का युद्ध, 5 जनवरी, 1544 - सेनापति जैता व कूंपा तथा अफगान शेरशाह सूरी के बीच हुआ। इसे जैतारण का युद्ध भी कहा जाता है। युद्ध से पूर्व शेरशाह ने यह अफवाह फैला दी कि सेनापति जैता व कूंपा शेरशाह से मिले हुए हैं। इस बात की पुष्टि के लिए शेरशाह ने कुछ धन जैता व कूंपा के शिविरों में रखवा दिया। अत: मालदेव रात्रिकाल में ही युद्ध भूमि से चला गया।
- जैता व कूंपा ने अपनी स्वामीभक्ति का परिचय देते हुए अपने सैनिकों के साथ शेरशाह से युद्ध किया। यह आक्रमण इतना भयंकर था कि युद्ध समाप्त होते-होते शेरशाह सूरी को यह कहना पड़ा कि "एक मुठ्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो बैठता।"
- युद्ध में जैता व कूंपा मारे गए। शेरशाह सूरी की विजय हुई। मालदेव सिवाणा दुर्ग चला गया।
- 1545 ई. में कालिंजर युद्ध के दौरान शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई तथा जोधपुर पर मालदेव ने पुन: अधिकार कर लिया।
- हरमाड़ा का युद्ध (1557 ई.) - मेवाड़ के शासक उदयसिंह को पराजित किया।
- मृत्यु - दिसम्बर, 1562
- उमादे मालदेव की पगड़ी के साथ सती हुई।
राव चन्द्रसेन
- जन्म – 16 जुलाई, 1541
- शासनकाल - 1562-1581 ई.
- यह मालदेव का तीसरा पुत्र था लेकिन रानी स्वरूप देवी के कहने पर मालदेव ने राव चन्द्रसेन को उत्तराधिकारी घोषित किया।
- राम व उदयसिंह अकबर की शरण में चले गए।
- सिंहासनारूढ़ – 31 दिसम्बर, 1562
- राम, रायमल व उदयसिंह के विद्रोह का दमन किया।
- लोहावट का युद्ध – चन्द्रसेन व उदयसिंह के मध्य हुआ जिसमें चन्द्रसेन विजयी हुआ।
- अकबर की सेना द्वारा जोधपुर पर अधिकार करने पर चन्द्रसेन भाद्राजून चला गया।
● 1570 ई. का नागौर दरबार –
अकबर ने अकाल राहत हेतु शुक्र तालाब का निर्माण करवाया।
- राव चन्द्रसेन भी नागौर दरबार में उपस्थित हुआ लेकिन अकबर की मंशा भांप वह दरबार से चला गया।
- अकबर ने बीकानेर के रायसिंह को जोधपुर का प्रशासक नियुक्त किया।
- 1571 में भाद्राजून से सिवाणा चला गया।
- 1573 में मुगल सेना के आक्रमण करने पर चन्द्रसेन पहाड़ों में चला गया।
- 1575 में सिवाणा दुर्ग पर अकबर का अधिकार हो गया।
- मुगलों से संघर्ष हेतु धन की आवश्यकता होने पर चन्द्रसेन ने जैसलमेर के हरराय भाटी के पास पोकरण का दुर्ग 1 लाख फदिये में गिरवी रखा।
- 1580 में पुन: मुगल सेना का सामना किया लेकिन असफल होकर पहाड़ों में लौटना पड़ा।
- 7 जुलाई, 1580 को सोजत पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया।
- मृत्यु – 11 जनवरी, 1581 (सिचियाय,पाली)
- ‘जोधपुर राज्य री ख्यात’ के अनुसार चन्द्रसेन की मृत्यु उसके सामन्त वैरसल के द्वारा जहर देने के कारण हुई।
- उपनाम –
1. मारवाड़ का भूला-बिसरा नायक
2. महाराणा प्रताप का पथप्रदर्शक
3. मारवाड़ का राणा प्रताप
- ‘जोधपुर राज्य री ख्यात’ के अनुसार चन्द्रसेन व महाराणा प्रताप की मुलाकात ‘कोरड़ा गाँव’ में हुई थी।
- मारवाड़ का प्रथम शासक था, जिसने छापामार युद्ध प्रणाली का प्रयोग किया और अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।
मोटा राजा उदयसिंह
- शासनकाल - 1583 - 1595 ई.
- राव चन्द्रसेन का भाई।
- राव चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद अकबर ने जोधपुर को 1581 ई. से 1583 ई. के मध्य खालसा घोषित कर दिया था।
- अगस्त, 1583 में उदयसिंह को मारवाड़ का राज्य प्रदान किया तथा मोटा राजा की उपाधि प्रदान की गई।
- जोधपुर का प्रथम शासक था जिसे मुगल मनसबदारी (1000) प्राप्त हुई।
- मारवाड़़ का पहला शासक था जिसने मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित करते हुए अधीनता स्वीकार कर ली थी।
- अपनी पुत्री जोधा बाई (जगत गुसाईं) का विवाह 1587 ई. में सलीम (जहाँगीर) के साथ किया।
- शहजादा खुर्रम जोधा बाई का पुत्र था।
- मृत्यु - 1595 ई. में लाहौर अभियान के दौरान
- उदयसिंह के पुत्र किशनसिंह ने 1609 ई. में किशनगढ़ में राठौड़ वंश की स्थापना की।
सवाई सूरसिंह
- शासनकाल - 1595 - 1619 ई.
- राज्याभिषेक लाहौर में हुआ तथा अकबर ने सवाई की उपाधि प्रदान की।
- यह मारवाड़ के शासकों को प्रदान की गई प्रथम सवाई की उपाधि थी।
- जहाँगीर ने 5000 जात एवं 3000 सवार का मनसब दिया था।
महाराजा गजसिंह
- शासनकाल - 1619 - 1638 ई.
- राज्याभिषेक बुरहानपुर (महाराष्ट्र) में हुआ।
- जहाँगीर ने 3000 जात व 2000 सवार के मनसब एवं ‘राजा’ की उपाधि से सम्मानित किया।
- दक्षिण अभियानों के दौरान वीरता से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने इसे 1621 ई. में दलथम्भन की उपाधि दी थी।
- अपनी प्रेमिका अनारा बेगम के कहने पर अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह प्रथम को उत्तराधिकारी घोषित किया।
- मृत्यु - 1638 ई. आगरा में
महाराजा जसवंतसिंह प्रथम
- शासनकाल - 1638 - 1678 ई.
- जन्म - दिसम्बर, 1626 में बुहरानपुर में
- गजसिंह का दूसरा पुत्र।
- गजसिंह का बड़ा पुत्र अमरसिंह राठौड़ था।
- अमरसिंह राठौड़ शाहजहाँ की सेवा में चला गया। शाहजहाँ ने अमरसिंह को ‘राव’ की उपाधि प्रदान की। अमरसिंह के पास नागौर की जागीर थी।
- मतीरे री राड़ (1644 ई.) - अमरसिंह व बीकानेर के करणसिंह के मध्य युद्ध हुआ।
- शाहजहाँ ने ‘महाराजा’ की उपाधि प्रदान की थी।
- जोधपुर का प्रथम महाराजा उपाधि प्राप्त शासक था।
- राज्याभिषेक आगरा में हुआ।
- शाहजहाँ ने 4000 जात व सवार का मनसब प्रदान किया था।
- 1848 ई. में कंधार अभियान के दौरान वीरता से प्रभावित होकर शाहजहाँ ने मनसब 6 हजार कर दिया।
- धरमत का युद्ध (1657 ई.) - दाराशिकोह की ओर से औरंगजेब व मुराद के विरुद्ध लड़कर हारा था।
- रचित ग्रंथ - भाषा-भूषण, अपरोक्ष सिद्धान्त सार व प्रबोध चन्द्रोदय
- दरबारी - वीर दुर्गादास राठौड़ व मुहणोत नैणसी
- हाड़ी रानी जसवंतदे ने जोधपुर में राईका बाग तथा कागा उद्यान का निर्माण करवाया।
- रानी अतिरंगदे ने जोधपुर में ‘जानसागर तालाब’ का निर्माण करवाया, जिसे ‘शेखावत जी का तालाब’ भी कहा जाता है।
- मारवाड़ चित्रशैली का स्वर्णकाल।
- मृत्यु - 1678 ई. में जमरूद, अफगानिस्तान में
- मृत्यु के समय जसवंतसिंह की रानियाँ जादम और नरूकी दोनों गर्भवती थीं।
- जादम रानी से अजीतसिंह और नरूकी रानी से दलथम्भन का जन्म हुआ।
- जसवंतसिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा कि “आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया।”
- जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने मारवाड़ को खालसा घोषित कर दिया।
महाराजा अजीतसिंह
- शासनकाल - 1678 - 1724 ई.
- जसवन्तसिंह प्रथम का पुत्र था।
- औरंगजेब ने अजीतसिंह व उसकी माँ को दिल्ली के नूरगढ़ किले में नजरबंद कर दिया था लेकिन दुर्गादास राठौड़ ने अपने साथियों रघुनाथ भाटी, रणछोड़ राठौड़, रूपसिंह राठौड़ आदि को साथ लेकर अजीतसिंह को दिल्ली से निकालकर मुकुंददास खींची के यहाँ रखा।
- मुकुंददास खींची ने अजीतसिंह को कालिंद्री (सिरोही) के जयदेव ब्राह्मण के यहाँ छोड़ा जहाँ इनका लालन-पालन गौरा धाय ने किया।
- गौरा धाय को मारवाड़ की पन्नाधाय कहा जाता है।
- मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने संधि के तहत अजीतसिंह को केलवा की जागीर प्रदान की।
- औरंगजेब ने मेवाड़-मारवाड़ के इस संगठन को तोड़ने हेतु अपने पुत्र शहजादे अकबर द्वितीय को भेजा।
- राजपूतों ने उसे लालच देकर अपनी ओर मिला लिया तथा अकबर द्वितीय ने 1681 ई. में पाली के नाडोल में स्वयं को भारत का बादशाह घोषित कर दिया।
- देबारी का समझौता - आमेर के जयसिंह, मारवाड़ के अजीतसिंह, मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह द्वितीय के मध्य।
- 30 वर्षोँ के निरंतर संघर्ष के पश्चात् 1707 ई. में देबारी समझौते के तहत अजीतसिंह को मारवाड़ का राज्य मिला।
- अपनी पुत्री इन्द्रकुँवरी का विवाह मुगल बादशाह फर्रुखसियर से किया तथा फर्रुखसियर की हत्या होने पर इन्द्रकुँवरी का पुनर्विवाह एक हिन्दू युवक के साथ कर दिया।
- मंडोर के जनाना महल व घनश्यामजी के मंदिर का निर्माण करवाया।
- अजीतसिंह की हत्या उसके पुत्र बख्तसिंह द्वारा 1724 ई. में कर दी गई।
- भाषा गुण सागर एवं दुर्गा पाठ नामक ग्रंथों की रचना की थी।
महाराजा अभयसिंह
- शासनकाल - 1724 - 1749 ई.
- अजीतसिंह का पुत्र था।
- हाकिम गिरधारीदास ने खेजड़ली गाँव में खेजड़ी के वृक्षों को काटने का आदेश दिया।
- वृक्षों को बचाने के लिए 28 अगस्त, 1730 को अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में 363 लोगों ने बलिदान दिया।
- चारण कवि करणीदान ने 'सूरज प्रकाश' नामक ग्रंथ की रचना की थी।
- उत्तराधिकारी – पुत्र रामसिंह (1749-1751 ई.) तथा भाई बख्तसिंह (1751-1752 ई.)
महाराजा विजयसिंह
- शासनकाल - 1752 - 1793 ई.
- बख्तसिंह का पुत्र था।
- जयअप्पा सिंधिया की नागौर के पास धोखे से हत्या करवाई।
- जोधपुर में विजयशाही नाम से चाँदी के सिक्के चलवाए।
- तुंगा का युद्ध (1787 ई.) - जयपुर के साथ मिलकर मराठों को हटाकर अजमेर पर पुनः अधिकार किया।
- 1790 ई. में पाटन के युद्ध में मराठों से पराजित होने के बाद 1791 ई. में अजमेर पुन: सिंधिया को सौंपना पड़ा।
- गुलाबराय नामक दासी को अपनी पासवान बना लिया।
- कविराजा श्यामलदास ने विजयसिंह को जहाँगीर का नमूनातथा गुलाबराय को जोधपुर की नूरजहाँ कहा था।
- गुलाबराय ने जोधपुर में रानीसर तालाब व महिलाबाग झालरा का निर्माण करवाया।
महाराजा भीमसिंह
- शासनकाल - 1793 - 1803 ई.
- विजयसिंह का पौत्र था।
- 1799 ई. में मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह की पुत्री कृष्णा कुमारी से सगाई हुई लेकिन विवाह से पूर्व ही 1803 ई. में इनकी मृत्यु हो गई।
महाराजा मानसिंह
- शासनकाल - 1804 - 1843 ई.
- नाथ सम्प्रदाय का अनुयायी।
- उपनाम - संन्यासी राजा
- आयसनाथ की प्रेरणा से जोधपुर में महामंदिर का निर्माण करवाया जो राजस्थान में नाथ सम्प्रदाय का केन्द्र तथा प्रमुख पीठ है।
- गिंगोली का युद्ध (13 मार्च, 1807) - महाराजा मानसिंह व जयपुर के शासक जगतसिंह द्वितीय के मध्य मेवाड़ की राजकुमारी कृष्णाकुमारी विवाद को लेकर परबतसर में हुआ जिसमें जगतसिंह द्वितीय विजयी हुआ।
- 1805 ई. में मेहरानगढ़ किले में मानसिंह पुस्तक प्रकाश नामक पुस्तकालय बनवाया।
- 6 जनवरी, 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि कर ली।
- 1841 ई. में मारवाड़ में त्याग प्रथा पर रोक लगाई।
महाराजा तख्तसिंह
- शासनकाल - 1843-1873 ई.
- राज्याभिषेक में पॉलिटिकल एजेन्ट लुडलो ने भाग लिया था।
- 1857 ई. की क्रांति के समय जोधपुर शासक।
- बिथौड़ा का युद्ध – 8 सितम्बर, 1857 को आउवा के ठाकुर कुशालसिंह चम्पावत के विरुद्ध जोधपुर के तख्तसिंह की सेना तथा कैप्टन हीथकोट के बीच पाली के बिथौड़ा नामक स्थान पर युद्ध हुआ, जिसमें कुशालसिंह चंपावत की विजय हुई। औनाड़सिंह (तख्तसिंह का सेनापति) मारा गया और हीथकोट भाग गया।
- चेलावास का युद्ध – 18 सितम्बर, 1857 को जोधपुर के गवर्नर मैकमोसन व क्रांतिकारियों के मध्य पाली में चेलावास नामक स्थान पर युद्ध हुआ था। इसमें क्रांतिकारियों ने मैकमोसन का सिर काटकर आउवा के किले के दरवाजे पर लटका दिया। इस युद्ध को ‘काला-गोरा’ का युद्ध भी कहा जाता है।
- जोधपुर में शृंगार चौकी व बिजोलाई महल का निर्माण करवाया।
- 1870 ई. में लॉर्ड मेयो के दरबार में भाग नहीं लिया था।
महाराजा जसवंतसिंह द्वितीय
- शासनकाल - 1873 - 1895 ई.
- दिसम्बर, 1875 में कोलकाता दरबार तथा 1877 ई. में दिल्ली दरबार में भाग लिया।
- पूर्णतया अंग्रेज सहयोगी शासक था।
- 1879 ई. में अंग्रेजों से नमक समझौता किया।
- 1887 ई. में महारानी विक्टोरिया के स्वर्णजुबली उत्सव में भाग लेने के लिए मारवाड़ के प्रतिनिधि के रूप में प्रतापसिंह को इंग्लैंड भेजा।
- 1883 ई. में महर्षि दयानंद सरस्वती जोधपुर आए।
- 1881 ई. में जोधपुर में पहली जनगणना हुई एवं 1884 ई. में नगरपालिका स्थापित की गई।
- 1885 ई. में बाल-विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया।
महाराजा सरदारसिंह
- शासनकाल - 1895-1911 ई.
- इसे ‘पोलो’ का शौक था, जिस कारण इसके शासनकाल में जोधपुर को ‘पोलो का घर’ कहते थे।
- चीन के बॉक्सर युद्ध को दबाने हेतु अंग्रेजों की सहायता के लिए मारवाड़ी सेना को भेजा था। फलस्वरूप मारवाड़ के झण्डे पर ‘चाइना 1900’ लिखने का सम्मान मिला।
- जसवंतसिंह द्वितीय की याद में जसवंतथड़ा का निर्माण करवाया जो 'राजस्थान का ताजमहल' के नाम से प्रसिद्ध है।
- जोधपुर में घंटाघर का निर्माण करवाया।
महाराजा सुमेरसिंह
- शासनकाल - 1911-1918 ई.
- सुमेर कैमल कोर की स्थापना की गई।
- 1911 ई. में लंदन में जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण समारोह में भाग लिया तथा 1911 ई. में दिल्ली दरबार में भी भाग लिया।
महाराजा उम्मेदसिंह
- शासनकाल - 1918-1947 ई.
आधुनिक मारवाड़ का निर्माता।
- पाली के सुमेरपुर में जवाई बाँध का निर्माण करवाया तथा अकाल राहत कार्यों के तहत 18 नवम्बर, 1929 को उम्मेद भवन पैलेस / छीतर पैलेस का निर्माण शुरू करवाया जो कि वर्ष 1938 तक चला।
- गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए जे.डब्ल्यू.यंग को भेजा था।
- जयनारायण व्यास को मारवाड़ की ओर से संविधान सभा का प्रतिनिधि नियुक्त किया था।
महाराजा हनुवंतसिंह
- शासनकाल - 1947-1948
- जोधपुर राठौड़ वंश का अन्तिम शासक।
- जोधपुर रियासत को स्वतंत्र रखना चाहता था तथा बाद में जोधपुर को पाकिस्तान में शामिल करने का प्रयास भी किया। अंत में सरदार पटेल व माउन्टबेटन के प्रयासों से 9 अगस्त, 1947 को भारतीय संघ अधिनियम पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।
- 30 मार्च, 1949 को जोधपुर का वृहद् राजस्थान में विलय हो गया।
(ii) बीकानेर के राठौड़
राव बीका
- शासनकाल - 1465-1504 ई.
- बीकानेर के राठौड़ वंश का संस्थापक।
- मारवाड़ के शासक राव जोधा का पुत्र।
- विवाह - पूगल के राव शेखा भाटी की पुत्री ‘रंगदे’ से हुआ था।
- 1465 ई. में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
- बीकानेर राजपरिवार का राजतिलक ‘गोदारा जाट’ ही करते थे।
- करणी माता के आशीर्वाद से 1488 ई. में जांगल प्रदेश में ‘राठौड़ वंश’ की स्थापना की तथा 1488 ई. में ‘नेरा जाट’ के सहयोग से ‘बीकानेर’ नगर की स्थापना की।
- प्रारंभ में अपनी राजधानी ‘कोड़मदेसर’ को बनाना चाहा लेकिन पूगल के भाटियों के विरोध करने पर ‘बीकानेर’ को अपनी राजधानी बनाया।
- ‘कोड़मदेसर’ में भैरूजी का मंदिर बनाया।
- बीकानेर से पूर्व इस स्थान को ‘राती घाटी’ कहते थे।
- बीकाजी ने जिस स्थान पर निवास किया था उसे ‘बीकाजी की टेकरी’ या ‘गढ़ गणेश’ कहा जाता है।
- देशनोक में करणी माता के मूल मंदिर का निर्माण करवाया।
- उत्तराधिकारी - ज्येष्ठ पुत्र नरा
राव लूणकरण
- शासनकाल - 1505 - 1526 ई.
- 1505 ई. में नेरा की मृत्यु होने के बाद शासक बना।
- ‘बीठू सूजा’ ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘राव जैतसी रो छन्द’ में ‘कलियुग का कर्ण‘कहा है।
- ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकंकाव्यम्’ ग्रंथ में इसकी दानशीलता की तुलना ‘कर्ण’ से की गई है।
- लूणकरणसर झील का निर्माण करवाया।
- ढोसी का युद्ध (1526 ई.) - नारनौल के नवाब अबीमीरा से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
राव जैतसी
- शासनकाल - 1526-1541 ई.
- खानवा के युद्ध में राणा सांगा की सहायता के लिए अपने पुत्र कुंवर कल्याणमल को भेजा था।
- कामरान ने 1534 ई. में भटनेर पर अधिकार कर लिया।
- जैतसी ने अक्टूबर, 1534 को अचानक कामरान पर आक्रमण कर उसे गढ़ छोड़ने के लिए बाध्य किया। उस समय भटनेर का किलेदार खेतसिंह कांधल था। इस युद्ध की जानकारी बीठू सूजा की पुस्तक ‘राव जैतसी रो छन्द’ से मिलती है।
- ‘पाहेबा/साहेबा’ का युद्ध (1541ई.) - राव जैतसी व मारवाड़ शासक मालदेव के बीच हुआ।
- मारवाड़ का सेनापति - कूँपा
- युद्ध का प्रमुख कारण - मालदेव की साम्राज्य विस्तार की नीति।
- युद्ध में राव जैतसी मारा गया और कूँपा को बीकानेर का प्रशासक नियुक्त किया गया और कुंवर कल्याणमल शेरशाह सूरी की शरण में चला गया।
राव कल्याणमल
- शासनकाल - 1544-1574 ई.
- राव जैतसी का पुत्र था।
- जैतसी की मृत्यु के समय सिरसा में था।
- गिरी-सुमेल के युद्ध में शेरशाह सूरी की सहायता की थी।
- शेरशाह ने बीकानेर का राज्य कल्याणमल को दे दिया।
- नागौर दरबार (1570) - अकबर की अधीनता स्वीकार की एवं वैवाहिक संबंध स्थापित किए।
- पुत्र – 1. रायसिंह
2. कवि पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल)
- पृथ्वीराज की रचना ‘वेलि किसन रुकमणी री’ को कवि ‘दुरसा आढ़ा’ ने 5वाँ वेद एवं 19वाँ पुराण कहा है।
- लुईजी पिओ टेस्सीटोरी ने पृथ्वीराज को डिंगल का हेरोंस कहा है।
- अकबर ने पृथ्वीराज को ‘गागरोन का किला’ जागीर में दिया था।
महाराजा रायसिंह
- जन्म – 20 जुलाई, 1541
- कल्याणमल का उत्तराधिकारी
- अकबर व जहाँगीर का समकालीन।
- शासनकाल – 1574-1612 ई.
- उपनाम - ‘राजपूताने का कर्ण‘ (मुंशी देवीप्रसाद ने कहा)
- उपाधियाँ –
1. महाराजाधिराज और महाराजा (बीकानेर का शासक बनते ही रायसिंह ने उपाधियाँ धारण की)
2. महाराजा (अकबर द्वारा प्रदत्त)
3. राजेन्द्र (कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकंकाव्यम् ग्रंथ में)
4. राय (अकबर द्वारा प्रदत्त)
- अकबर ने रायसिंह को सर्वप्रथम जोधपुर का अधिकारी नियुक्त किया था।
- अकबर ने 1593 ई. में बुरहान-उल-मुल्क के विरुद्ध दानियाल के थट्टा अभियान में भेजा।
- दत्ताणी का युद्ध, 1583 - रायसिंह और सिरोही के सुरताण देवड़ा के मध्य हुआ।
- महाराणा प्रताप का सौतेला भाई जगमाल शाही सेना की तरफ से लड़ता हुआ मारा गया।
- अकबर ने 1593 ई. में जूनागढ़ का प्रदेश और 1604 ई. में शमशाबाद तथा नूरपुर की जागीर दी।
- 1605 ई. में जहाँगीर ने रायसिंह को 5000 जात एवं 5000 सवार का मनसब दिया।
● ‘जूनागढ़ दुर्ग’ का निर्माण - 1587 से 1594 के मध्य मंत्री कर्मचन्द की देखरेख में करवाया।
- राव बीका द्वारा बनवाए गए पुराने (जूना) किले पर ही नए किले का निर्माण करवाया।
- किले में ‘रायसिंह प्रशस्ति‘ उत्कीर्ण करवाई।
- जूनागढ़ के मुख्य प्रवेश द्वार सूरजपोल के बाहर ‘जयमल-फत्ता’ की हाथी पर सवार पाषाण मूर्तियाँ स्थापित करवाई।
- जालोर के ताज खाँ को पराजित किया।
- रायसिंह ने ‘रायसिंह महोत्सव, वैधक वंशावली, बालबोधिनी एवं ज्योतिष रत्नमाला की टीका लिखी।
- मृत्यु -1612, बुरहानपुर
महाराजा कर्णसिंह
- शासनकाल - 1631-1669 ई.
- रचना - साहित्य कल्पद्रुम
- दरबारी विद्वान - गंगानंद मैथिल
रचना - कर्णभूषण तथा काव्य डाकिनी
- चिंतामणि भट्ट द्वारा रचित ग्रंथ शुकसप्तति में ‘जांगलधर बादशाह’ कहा गया है।
- ‘मतीरे री राड़‘ (1644 ई.) - कर्णसिंह व नागौर के अमरसिंह राठौड़ के बीच युद्ध हुआ।
- 1658 ई. मुगल उत्तराधिकारी विवाद के समय अपने दो पुत्रों ‘पद्मसिंह’ और ‘केसरीसिंह’ को औरंगजेब की सहायता के लिए भेजा।
महाराजा अनूपसिंह
- शासनकाल - 1669-1698 ई.
- दक्षिण में मराठों के विरुद्ध की गई कार्यवाहियों से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने ‘महाराजा‘ एवं ‘माही मरातिब‘ की उपाधि से सम्मानित किया।
- एक प्रकाण्ड विद्वान, कूटनीतिज्ञ, विद्यानुरागी एवं संगीत प्रेमी थे।
- अनूपसिंह द्वारा रचित संस्कृत ग्रन्थ –
1. अनूपविवेक 2. काम-प्रबोध
3. अनूपोदय 4. श्राद्धप्रयोग चिंतामणि
5. गीतगोविन्द पर टीका
- दरबारी विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थ –
1. मणिराम - अनूप व्यवहार सागर एवं अनूपविलास
2. अनंन भट्ट - तीर्थ रत्नाकर
3. संगीताचार्य भावभट्ट - संगीत अनूपांकुश, अनूप संगीत विलास, अनूप संगीत रत्नाकर
- दक्षिण भारत से अनेकानेक ग्रन्थ लाकर अनूप संस्कृत पुस्तकालय में सुरक्षित किए।
- दयालदास की ‘बीकानेर रा राठौड़ां री ख्यात‘ में जोधपुर व बीकानेर के राठौड़ वंश का वर्णन है।
- दक्षिण में रहते हुए संगृहीत की गई मूर्तियाँ बीकानेर के पास ‘33 करोड़ देवी-देवताओं के मंदिर‘ में सुरक्षित हैं।
- बीकानेर चित्रशैली का स्वर्णिम काल।
महाराजा जोरावरसिंह
- शासनकाल - 1735-1746 ई.
- 1734 ई. में हुरड़ा सम्मेलन में बीकानेर का प्रतिनिधित्व किया।
- पूजा-पद्धति व वैधक सार ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की।
महाराजा गजसिंह
- शासनकाल - 1746-1787 ई.
- अवध के नवाब सफदरजंग को दबाने के लिए मुगल सेना के साथ अपनी सेना भेजी लेकिन स्वयं कभी मुगल दरबार में उपस्थित नहीं हुए।
- मुगल बादशाह ने 7,000 मनसब एवं श्री राजेश्वर महाराजाधिराज महाराजा शिरोमणि श्री गजसिंह का खिताब दिया।
- बीकानेर शहर का कोर्ट बना।
महाराजा सूरतसिंह
- शासनकाल - 1787-1828 ई.
- 16 अप्रैल, 1805 को मंगलवार के दिन भाटियों को हराकर उसने भटनेर को बीकानेर राज्य में मिला लिया तथा भटनेर का नाम हनुमानगढ़ रख दिया।
- 1818 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि की।
महाराजा रतनसिंह
- शासनकाल - 1828-1851 ई.
- 1836 ई. में गया (बिहार) में सामंतों को ‘कन्या वध’ को रोकने की शपथ दिलाई।
- 1844 ई. में कन्याओं को न मारने की ‘आण’ (शपथ) जारी की।
- बीकानेर में ‘रतन बिहारी’ मंदिर का निर्माण करवाया।
महाराजा सरदारसिंह
- शासनकाल - 1851-1872 ई.
- 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के सहयोग के लिए सेना को बाडलू (पंजाब) भेजा। एकमात्र राजा जो राज्य की सीमा से बाहर जाकर लड़ा।
- अंग्रेजों ने टिब्बी परगने के 41 गाँव दिए थे।
महाराजा डूंगरसिंह
- शासनकाल - 1872-1887 ई.
- 1878 ई. में अंग्रेजों की सहायता हेतु काबुल में 800 ऊँट भेजे।
- अंग्रेजों के सहयोग से सामंतों का दमन किया।
- बीकानेर के प्रसिद्ध बीकानेरी भुजिया की शुरुआत हुई।
महाराजा गंगासिंह
- शासनकाल - 1887-1943 ई.
- प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की।
- ‘वर्साय’ के शांति सम्मेलन में भाग लिया।
- 1913 ई. में ‘प्रजा प्रतिनिधि’ सभा की स्थापना की।
- 1927 ई. में गंग नहर का निर्माण करवाया। इसका उद्घाटन भारत के तत्कालीन ‘वायसराय लॉर्ड इरविन’ ने किया।
- 1927 ई. में ‘बटलर समिति’ के समक्ष माँग की कि उनके संबंध भारत सरकार से न होकर इंग्लैंड के राजतंत्र से माने जाए।
- तीनों ‘गोलमेज सम्मेलनों’ (1930, 1931, 1932 ई. लंदन) में भाग लिया।
- लंदन से भारत लौटते समय एक नोट लिखा जो ‘रोम नोट’ के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने 15 मई, 1917 को ऑस्टिन चेम्बरलेन को उस नोट को अग्रेषित किया।
- 1900 ई. में चीन के ‘बॉक्सर विद्रोह’ में अंग्रेजों की मदद की अत: अंग्रेजों ने उनको ‘केसर-ए-हिंद’ की उपाधि दी एवं ’चीन युद्ध मेडल’ प्रदान किया।
- 1919 ई. ‘पेरिस सम्मेलन’ में देशी रियासतों के रूप में हस्ताक्षर किए।
- 1916 ई. में मदनमोहन मालवीय को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए आर्थिक सहायता दी तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के आजीवन चांसलर रहे।
- द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में अपनी विख्यात ‘ऊँटों की सेना (कैमल कॉर्प)’ ब्रिटेन भेजी। इस सेना को ‘गंगा रिसाला’ कहा जाता था।
- बीकानेर में ‘न्याय सुधार’, ‘जेल सुधार’, ‘स्थानीय स्वशासन’ आदि इनके समय विकसित हुए।
- 1891 ई. में सड़क निर्माण के लिए पी.डब्ल्यू.डी. (सार्वजनिक निर्माण विभाग) की स्थापना हुई।
- 1899-1900 ई. तक भयंकर अकाल पड़ा, जिसे ‘छप्पनिया अकाल’ के नाम से जाना जाता है।
- छप्पनिया अकाल में बीकानेर में ‘शहरपनाह’ व ‘गजनेर’ झील का निर्माण करवाया।
- अपने पिता लालसिंह की याद में लालगढ़ पैलेस का निर्माण करवाया।
- मृत्यु - 2 फरवरी, 1943 को बम्बई में
महाराजा शार्दूलसिंह
- शासनकाल - 1943-1949 ई.
- बीकानेर रियासत का अंतिम शासक।
- भारत का प्रथम शासक था जिसने 7 अगस्त, 1947 को भारत के विलय पत्र ‘इन्स्टूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर सर्वप्रथम हस्ताक्षर किए।
- ‘तख्तनशीनी की छाछ’ (उत्तराधिकार कर) एवं ‘नोता’ (विवाह निमंत्रण कर) समाप्त किया था।
- के.एम. पणिक्कर को संविधान निर्मात्री सभा के लिए बीकानेर राज्य के प्रतिनिधि के रूप में मनोनीत किया।
कच्छवाहा वंश
- राजस्थान में कच्छवाहा राजपूतों का उदय 12वीं शताब्दी की शुरुआत में हुआ।
- कच्छवाहा राजपूत स्वयं को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी के पुत्र कुश का वंशज मानते हैं जो कुशवाहा और बाद में कच्छवाहा कहलाए।
- सूर्यमल्ल मीसण के अनुसार कच्छवाहा कूर्म नामक रघुवंशी शासक की संतान थे जो कूर्मवंशी कहलाते थे और बाद में साधारण भाषा में कच्छवाहा कहलाने लगे।
- डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार इनका मूल पुरुष कच्छवाहा था इसलिए उन्हें कच्छवाहा कहा जाने लगा।
- कच्छवाहा रियासत का झंडा प्रारम्भ में श्वेत रंग का था। कालान्तर में मानसिंह प्रथम ने काबुल अभियान के बाद नया झंडा पचरंगा तैयार किया। इसमें नीला, पीला, लाल, हरा व काला रंग तथा झंडे के मध्य सूर्य की आकृति है।
- आमेर के राज्यचिह्न में सबसे ऊपर राधा-गोविंद का चित्र तथा नीचे राज्य का मूल मंत्र 'यत्र धर्मस्ततो जय:'।
- कुल देवी - जमुवाय माता हैं। इन्हें अन्नपूर्णा माता भी कहा जाता है।
- इष्ट देवी - शिला माता
- कच्छवाहा प्रारंभ में चौहानों के सामंत थे।
- कच्छवाहा वंश के ‘नरू’ से ‘नरूका’ और ‘शेखा’ से ‘शेखावत’ शाखाएँ निकली।
- शेखा द्वारा स्थापित राज्य-क्षेत्र ‘शेखावाटी’ कहलाया।
दुलहराय
- बचपन का नाम - तेजकरण
- नरवर के शासक सोढ़ासिंह का पुत्र था।
- विवाह - मौरा के चौहान शासक की पुत्री सुजान कंवर से हुआ।
- डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार दुलहराय ने दौसा के मीणा व बड़गुर्जरों को पराजित कर 1137 ई. में ढूँढाड़ में कच्छवाहा राजवंश की नींव रखी।
- दुलहराय ने दौसा को अपनी प्रारम्भिक राजधानी बनाई।
- दुलहराय ने इसके बाद भाण्डरेज एवं माची के मीणाओं को पराजित अपने अधीन कर लिया।
- माची में एक दुर्ग का निर्माण कर उसका नाम अपने पूर्वज श्रीराम के नाम पर रामगढ़ रखा तथा वहाँ पास ही अपनी कुलदेवी जमुवाय माता का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया और जमवारामगढ़ को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
- दुलहराय द्वारा बसाए गए कस्बे जमवारामगढ़ को 'ढूंढाड़ का पुष्कर' भी कहा जाता है।
- 1170 ई. में मीणाओं के आक्रमण के दौरान दुलहराय वीरगति को प्राप्त हुआ।
कोकिल देव
- दुलहराय के बाद उसका बड़ा पुत्र कोकिल देव शासक बना।
- कोकिलदेव ने 1207 ई. में आमेर के मीणाओं को पराजित कर आमेर को अपनी राजधानी बनाया। आमेर 1727 ई. तक कच्छवाहों की राजधानी रहा।
- इन्होंने यादवों से ‘मेड़’ व ‘बैराठ’ जीते।
- कोकिलदेव ने अपने शासनकाल में खोह, झोटवाड़ा, गैटोर आदि क्षेत्र के मीणाओं को हराकर राज्य विस्तार किया।
राजदेव
- राजदेव ने 1237 ई. में आमेर में कदमी महलों का निर्माण करवाया था, जहाँ बनी छतरी में कच्छवाहा शासकों का राजतिलक होता था।
- पंचवनदेव कच्छवाहा वंश में शक्तिशाली शासक हुआ।
- पंचवनदेव के बाद क्रमश: मालसी, जिलदेव, रामेदव, किल्हण, कुन्तल, नरसिंह, उदयकरण व चन्द्रसेन शासक हुए।
पृथ्वीराज कच्छवाहा
- शासनकाल - 1503 - 1527 ई.
- पृथ्वीराज कच्छवाहा प्रारम्भ में कनफटे नाथ योगी का शिष्य था लेकिन कालान्तर में रामानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी का शिष्य बन गया।
- पृथ्वीराज ने राणा सांगा के नाम पर अपने पुत्र का नाम सांगा रखा।
- पृथ्वीराज कच्छवाहा के 12 पुत्र थे। उत्तराधिकार विवाद से बचने के लिए पृथ्वीराज ने अपने राज्य को 12 भागों में बाँटा इसलिए आमेर को बारहकोटड़ी भी कहा जाता है।
- 17 मार्च, 1527 को खानवा के युद्ध में पृथ्वीराज राणा सांगा की तरफ से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
- पृथ्वीराज की रानी बालाबाई ‘आमेर की मीरा बाई’ कहलाती हैं।
- इन्हीं के पुत्र सांगा ने ‘सांगानेर’ कस्बा बसाया।
पूर्णमल
- शासनकाल - 1527 - 1533 ई.
- पृथ्वीराज ने अपनी रानी बालाबाई (बीकानेर के राव लूणकर्ण की पुत्री) के कहने पर पूर्णमल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
- पूर्णमल 1527 ई. में आमेर का शासक बना तथा पूर्णमल के शासक बनते ही पृथ्वीराज के बड़े पुत्र भीमदेव ने विद्रोह कर दिया।
भीमदेव कच्छवाहा
- शासनकाल - 1533 - 1536 ई.
- पृथ्वीराज का बड़ा पुत्र था।
- 1533 ई. में पूर्णमल को पराजित कर आमेर का शासक बना।
- उत्तराधिकारी - रतनसिंह
रतनसिंह
- शासनकाल - 1536 - 1547 ई.
- रतनसिंह सदैव शराब के नशे में मस्त रहता था एवं राजकार्य में रुचि न लेता तथा इसके शासन के सभी काम तेजसी रायमलोत देखता था।
- रतनसिंह 1540 ई. तक स्वतंत्र शासक रहा तत्पश्चात् शेरशाह सूरी की अधीनता स्वीकार कर ली।
- भारमल के कहने पर रतनसिंह के छोटे भाई आसकरण ने रतनसिंह को विष देकर मार दिया और स्वयं आमेर का शासक बन गया।
- भारमल ने आसकरण को अपने भाई का हत्यारा बताते हुए गद्दी से हटा दिया।
भारमल
- शासनकाल - 1547 - 1573 ई.
- भारमल जब शासक बना तब उसकी आयु 50 वर्ष थी।
- मजनू खाँ की सहायता से सर्वप्रथम दिसम्बर, 1556 (आगरा) में अकबर से मिला था।
- जनवरी, 1562 में मुगल बादशाह अकबर से उसकी मुलाकात अजमेर यात्रा के दौरान अपने मित्र चगताई खाँ की मदद से सांगानेर के निकट हुई।
- अकबर की अधीनता स्वीकार की तत्पश्चात् सांभर में अपनी पुत्री हरकूबाई/शाही बाई/मानमति/हरका बाई का विवाह अकबर के साथ करवा दिया।
- 20 जनवरी, 1562 को सांभर में अपने पुत्र भगवंतदास व पौत्र मानसिंह को अकबर की सेवा में भेज दिया।
- राजस्थान का पहला शासक जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर उनके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए।
- सलीम/जहाँगीर जोधाबाई (हरकाबाई) का पुत्र था।
- अकबर ने जोधाबाई को मरियम की उपाधि दी। शेख सलीम चिश्ती ने उसे उज्मानी की उपाधि दी। इस बात का उल्लेख जहाँगीर की पुस्तक तुजुक-ए-जहाँगीरी में मिलता है।
- अकबर द्वारा भारमल को 5000 का मनसब प्रदान किया गया तथा ‘राजा’ व ‘अमीर-उल-उमरा’ की उपाधि दी।
भगवंतदास
- शासनकाल - 1573 - 1589 ई.
- अकबर के द्वारा 5000 का मनसब एवं अमीर-उल-उमरा की पदवी प्रदान की गई।
- अकबर के चित्तौड़ अभियान (1568 ई.) के समय साथ था।
- 1585 ई. में अपनी पुत्री मानबाई का विवाह शहजादे सलीम/जहाँगीर के साथ किया।
- जहाँगीर, मानबाई को सुल्तान ए निशा नाम से बुलाता था वहीं मुगल दरबार में मानबाई को शाह बेगम का पद हासिल था।
- 1604 ई. में मानबाई ने अपने पुत्र खुसरो के पितृद्रोही व्यवहार से दु:खी होकर आत्महत्या कर ली।
- अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने हेतु सितम्बर, 1573 में भेजा था।
- 1583 से 1589 ई. तक उसे पंजाब की सूबेदारी प्रदान की गई।
- मृत्यु - 1589 ई. में लाहौर में
मानसिंह प्रथम
- जन्म – 1550, मौजमाबाद (मुहणोत नैणसी के अनुसार)
- अकबर व जहाँगीर के समकालीन
- शासनकाल – 1589-1614 ई.
- 1589 ई. में आमेर का शासन संभाला।
- उपाधि - ‘फर्जन्द’ (अकबर द्वारा प्रदत्त)
- अकबर द्वारा 7000 का मनसब प्रदान किया गया।
- अकबर के नवरत्नों में शामिल।
- 1569, सुर्जन हाड़ा को मुगल अधीनता स्वीकार करवाने में अहम भूमिका निभाई।
- अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने हेतु मानसिंह को जून, 1573 में मेवाड़ भेजा।
- हल्दीघाटी युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व किया।
- हल्दीघाटी युद्ध के परिणामों से नाराज अकबर ने मानसिंह के मनसब में 2000 की कटौती की और ड्योढी बंद कर दी।
- मानसिंह को 1587 ई. में बिहार की सूबेदारी मिली।
- राज्याभिषेक - 15 जनवरी, 1590, पटना (1589 ई. में पिता की मृत्यु के पश्चात्)
- काबुल में रोशनाइयों के विद्रोह का दमन किया।
- 1592 में उड़ीसा जीतकर पहली बार उसे मुगल साम्राज्य का अंग बनाया।
- मानपुर (बिहार) और अकबरपुर/राजमहल (बंगाल) की स्थापना की।
- रोहतासगढ़ (बिहार) के सुन्दर महलों का निर्माण करवाया।
- बंगाल शासक केदारनाथ को हराया।
- बंगाल से शिलादेवी की मूर्ति लाकर उसे आमेर में प्रतिष्ठित करवाया।
- जगत शिरोमणि मंदिर (आमेर) का निर्माण – मानसिंह की पत्नी कनकावती द्वारा बंगाल अभियान के दौरान मानसिंह के पुत्र जगतसिंह की मृत्यु होने के कारण उसकी स्मृति में करवाया गया।
- जगतशिरोमणि मंदिर की मूर्ति मानसिंह चित्तौड़ के मीरा मंदिर से लाए थे।
- संत दादू दयाल का मानसिंह के दरबार में आना-जाना था।
- पुष्कर में मान महल तथा आमेर के पंचमहल का निर्माण करवाया।
- ब्लू पॉटरी/मीनाकारी कला मानसिंह लाहौर से आमेर लाए।
- मृत्यु - 6 जुलाई, 1614 (इलिचपुर, महाराष्ट्र में)
- छतरी - हाडीपुर (आमेर)
भावसिंह
- शासनकाल - 1614 – 1621 ई.
- मानसिंह के बड़े पुत्र जगतसिंह की मृत्यु मानसिंह के जीवनकाल में ही हो गई थी।
- अत: जगतसिंह का पुत्र महासिंह उत्तराधिकारी होना था लेकिन जहाँगीर ने भावसिंह को आमेर के राजसिंहासन पर नियुक्त कर दिया।
मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम
- शासनकाल - 1621 - 1667 ई.
- महासिंह का पुत्र।
- 11 वर्ष की अल्पायु में आमेर की गद्दी पर बैठा।
- मुगल बादशाह जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब के समकालीन।
- जहाँगीर ने सर्वप्रथम 1623 ई. में अहमदनगर के मलिक अम्बर के विरुद्ध अभियान में भेजा।
- शाहजहाँ ने 4000 का मनसब प्रदान कर जाटों के विद्रोह का दमन करने भेजा।
- 1629 ई. में उत्तर-पश्चिम के उज्बेगों तथा 1630 ई. में खानेजहाँ लोदी के विद्रोह को दबाया।
- 1636 ई. में शाहजहाँ के साथ बीजापुर एवं गोलकुंडा के विद्रोह को दबाने गया, जहाँ उनकी वीरता देखकर बादशाह ने इनका मनसब 5000 कर दिया।
- 1637 ई. में सूजा के साथ कन्धार अभियान किया, इसी अवसर पर जयसिंह को शाहजहाँ ने 'मिर्जा राजा' की उपाधि से अलंकृत किया।
- 1647 ई. में मध्य एशिया का अभियान किया तथा 1651 ई. में कन्धार को घेरा और 10 वर्ष तक कांगड़ा, कन्धार व पेशावर की लड़ाइयों में सक्रिय योगदान रहा।
- 1653 ई. तक दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह (शाहजहाँ का पौत्र) के साथ काबुल की सूबेदारी में सहयोग किया।
- मुगल उत्तराधिकार संघर्ष - जयसिंह ने शाही सेना का सहयोग किया और शुजा की सेना को 1658 ई. में बहादुरपुर (बनारस) के युद्ध में पराजित किया। तब बादशाह ने मनसब बढ़ाकर 6000 कर दिया।
- अंत में औरंगजेब के पक्ष में चला गया। औरंगजेब ने 1659 ई. में जयसिंह का मनसब बढ़ाकर 7000 कर दिया था।
- शिवाजी के खिलाफ एक मजबूत सेना का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया गया।
- पुरन्दर की संधि - 1665 को शिवाजी व मिर्जाराजा जयसिंह के मध्य। विदेशी यात्री डॉ. मनूची भी उपस्थित था।
- इस संधि का आँखों देखा वर्णन प्रसिद्ध विदेशी लेखक 'मनूची' ने किया।
- शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5,000 के मनसब के साथ मुगल दरबार में उपस्थित होना तय हुआ।
- 1666 ई. में जयसिंह के कहने पर शिवाजी दिवान-ए-खास में मुगल दरबार आगरा में उपस्थित हुए।
- दरबारी कवि –
1.कुलपति मिश्र
2. बिहारीलाल चौबे, रचना - बिहारी सतसई
3. रामकवि, ग्रंथ - जयसिंह चरित्र
- जयपुर में जयगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।
- औरंगाबाद में जयसिंहपुरा नामक कस्बा बसाया।
- निधन - 2 जुलाई, 1667 को दक्षिण अभियान के दौरान बुरहानपुर में
- जदुनाथ सरकार के शब्दों में मिर्जा जयसिंह की मृत्यु एलिजाबेथ के दरबार में सदस्य वॉल सिंघम की भाँति हुई जिसने अपना बलिदान ऐसे स्वामी के लिए किया जो काम लेने में कठोर और मूल्यांकन में कृतघ्न था।
महाराजा रामसिंह प्रथम
- शासनकाल - 1667 – 1689 ई.
- मिर्जा राजा जयसिंह का ज्येष्ठ पुत्र।
- सितम्बर, 1667 को आमेर का शासक बना।
- पुरंदर संधि के पश्चात् विवाद के कारण शिवाजी को रामसिंह की हवेली में कैद किया गया लेकिन शिवाजी जैसे-तैसे वहाँ से निकलकर भागने में सफल हुए इस वजह से औरंगजेब रामसिंह से नाराज हो गया।
- अत: पूरे शासनकाल के दौरान रामसिंह को किसी बड़े अभियान का नेतृत्व नहीं दिया गया।
- दरबारी विद्वान –
1. कुलपति मिश्र - रस रहस्य
2. दलपतिराम - चगता पातशाही
3. शंकर भट्ट - वैद्य विनोद संहिता
- निधन - 1689 ई. में काबुल में
विष्णुसिंह/विशनसिंह
- शासनकाल - 1689 - 1699 ई.
- रामसिंह का पौत्र।
- आमेर का पहला शासक जिसने आमेर की सैन्य किलेबंदी की थी।
सवाई जयसिंह द्वितीय
- शासनकाल - 1700 - 1743 ई.
- जन्म - 3 दिसम्बर, 1688
- वास्तविक नाम - विजयसिंह
- रणकौशल से प्रभावित होकर औरंगजेब ने इसका नाम जयसिंह रखते हुए इसे सवाई का खिताब दिया तथा इसके छोटे भाई का नाम विजयसिंह रख दिया।
- सवाई जयसिंह के पश्चात् जयपुर के सभी शासकों ने अपने नाम के आगे सवाई लगाया।
- इसे आधुनिक चाणक्य भी कहा जाता है।
- 1707 ई. का मुगल उत्तराधिकारी संघर्ष - आजम का पक्ष लिया लेकिन मुअज्जम विजयी हुआ और बहादुरशाह के नाम से शासक बना।
- बहादुरशाह ने आमेर पहुँचकर विजयसिंह को आमेर का शासक बना दिया और आमेर का नाम ‘इस्लामाबाद/मोमिनाबाद’ कर दिया।
- 1708 ई. में मेवाड़ की राजकुमारी चन्द्रकुँवरी से विवाह किया।
- मेवाड़ की सहायता से आमेर पर पुन: अधिकार कर लिया और इसे मुगल बादशाह की भी स्वीकृति मिल गई।
- 1713 ई. में बादशाह फर्रुखसियर ने मालवा का सूबेदार बनाया।
- 1729 ई. जयसिंह द्वारा बूँदी के मामले में हस्तक्षेप करने के कारण मराठों को राजपूताना की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया था।
- 1730 व 1732 में जयसिंह को पुन: मालवा की सूबेदारी मिली।
- हुरड़ा सम्मेलन - 17 जुलाई, 1734 को हुरड़ा नामक स्थान पर सवाई जयसिंह द्वारा आयोजित किया गया।
- इस सम्मेलन का उद्देश्य राजपूत राजाओं को संगठित कर मराठों का मुकाबला करना था लेकिन यह सम्मेलन असफल रहा।
- जाटों के विद्रोह के दमन के कारण मुहम्मद शाह ने 'राजेश्वर श्रीराजाधिराज' उपाधि दी।
- राजस्थान का अंतिम शासक जिसने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करवाया।
- जलमहल, चन्द्रमहल व सिसोदिया रानी महल का निर्माण करवाया।
- 1714 ई. में वृन्दावन से गोविन्ददेव जी की मूर्ति लाकर आमेर में स्थापित की एवं गोविन्द देव जी मंदिर का निर्माण करवाया।
- 1727 ई. में जयनगर/जयपुर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाई।
जयपुर नगर निर्माण का वास्तुकार - बंगाली पंडित विद्याधर
- जयपुर को एडवर्ड पंचम ने गोल्डन बर्ड, स्टेनले रीड ने पिंक सिटी तथा सी.वी. रमन ने रंग श्री द्वीप की उपमा दी।
- दिल्ली, जयपुर, मथुरा, उज्जैन, बनारस में पाँच वैधशालाओं का निर्माण करवाया।
- जयपुर का जंतर-मंतर भारत की सबसे बड़ी सौर वैधशाला है जिसे वर्ष 2010 में UNESCO ने विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया।
- साहित्यकारों के लिए ‘ब्रह्मपुरी’ की स्थापना की।
- मथुरा में संन्यासियों के लिए ‘वैराग्यपुरा’ नामक बस्ती बसाई।
- मोहम्मद शाह रंगीला से जजिया कर (1720 ई.), गया में तीर्थकर (1728 ई.) एवं इलाहाबाद सूबे में गंगा स्नान पर आने वाले यात्रियों का कर समाप्त करवाया।
- सात मुगल शासकों की सेवा की।
- 1725 ई. में नक्षत्रों की शुद्ध सारणी बनवाई तथा उसका नाम ‘जीज मोहम्मदशाही’ रखा।
- ज्योतिष ग्रंथ ‘जयसिंह कारिका’ की भी रचना की।
- 1734 ई. में जयपुर में ‘नाहरगढ़/सुदर्शनगढ़’ दुर्ग का निर्माण करवाया।
- जयगढ़ दुर्ग में एशिया की सबसे बड़ी तोप ‘जयबाण तोप’ का निर्माण करवाया, इसे सवाई रामसिंह - II ने पहियों पर रखवाया।
- मृत्यु - 1743 ई.
सवाई ईश्वरीसिंह
- शासनकाल - 1743 - 1750 ई.
- राजमहल का युद्ध (1747 ई.) - सवाई माधोसिंह व सवाई ईश्वरी सिंह के मध्य जयपुर की राजगद्दी को लेकर उत्तराधिकारी संघर्ष हुआ। ईश्वरी सिंह विजयी हुए।
- इस विजय के उपलक्ष्य में त्रिपोलिया बाजार में ‘ईसरलाट यासरगासूली’ का निर्माण करवाया। यह 7 मंजिला इमारत चित्तौड़ के विजय स्तंभ से प्रेरित है।
- बगरू का युद्ध (1748 ई.) में माधोसिंह ने मराठों की सहायता से ईश्वरीसिंह को पराजित किया।
- राजपूताने का एकमात्र शासक था जिसने मराठों के दबाव से आत्महत्या (1750 ई.) की थी।
सवाई माधोसिंह प्रथम
- शासनकाल - 1750 - 1768 ई.
- मेवाड़ की राजकुमारी चन्द्रकुँवरी और सवाई जयसिंह का पुत्र।
- मल्हार राव होल्कर व जयप्पा सिंधिया ने 2 जनवरी, 1751 को जयपुर का शासक माधोसिंह को बनाया।
- मराठों की धन की माँग से दु:खी होकर 1751 ई. में मराठों का कत्ले-आम करवा दिया।
- भटवाड़ा का युद्ध (नवम्बर, 1761) - रणथम्भौर दुर्ग को लेकर सवाई माधोसिंह प्रथम व कोटा के महाराव शत्रुशाल के बीच हुआ जिसमें शत्रुशाल विजयी हुआ।
- कामां के युद्ध में भरतपुर के शासक जवाहरसिंह को परास्त किया।
- रणथम्भौर दुर्ग को मुगलों से छीनकर जयपुर रियासत में सम्मिलित किया।
- 1763 ई. में सवाईमाधोपुर शहर बसाया।
- शील की डूँगरी एवं चाकसू में शीतला माता मंदिर का निर्माण करवाया।
सवाई प्रतापसिंह
- शासनकाल - 1778 - 1803 ई.
- गोविन्द देव जी को जयपुर का वास्तविक शासक एवं स्वयं को उनका दीवान मानता था।
- आदेशों का आरम्भ ‘श्री दीवान बचनात’ शब्दों से होता था।
- तुंगा का युद्ध (28 जुलाई, 1787) - मराठा महादजी सिंधिया को पराजित किया।
- महादजी सिंधिया ने डी-बोई को सेनापति बनाकर पाटन के युद्ध (20 जून, 1790) में सवाई प्रतापसिंह को पराजित किया।
- काव्य नाम - ब्रजनिधि
- कविता संग्रह - ब्रजनिधि ग्रंथावली
- संगीत ब्रजनिधि सम्मेलन का आयोजन किया तथा ‘राधा गोविन्द संगीत सार’ नामक ग्रन्थ लिखा।
- दरबार में बाईस विद्वान रहते थे, जिन्हें ‘प्रताप बाईसी /गंधर्वबाईसी’ कहा जाता था, जिसका प्रधान ‘चाँद खाँ’ था।
- संगीत गुरु - चाँद खाँ
- चाँद खाँ को प्रतापसिंह ने बुद्ध प्रकाश की उपाधि दी।
- काव्य गुरु - गणपति भारति
- 1799 ई. में हवामहल का निर्माण करवाया, जो भगवान विष्णु को समर्पित है।
- वास्तुकार - उस्ताद लालचन्द
सवाई जगतसिंह द्वितीय
- शासनकाल - 1803 - 1818 ई.
- 5 अप्रैल, 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि की।
- ‘रसकपुर’ नामक नर्तकी के साथ सम्बन्ध था जिसको जगतसिंह ने आधा राज्य दिया व सिक्कों पर उसका नाम लिखवाया।
- उपनाम - जयपुर का बदनाम शासक
- गिंगोली का युद्ध (13 मार्च, 1807) - सवाई जगतसिंह द्वितीय व जोधपुर के महाराजा मानसिंह के मध्य परबतसर (नागौर) में मेवाड़ की राजकुमारी कृष्णा कुमारी से विवाह को लेकर हुआ जिसमें मानसिंह पराजित हुआ।
सवाई रामसिंह द्वितीय
- शासनकाल - 1835 - 1880 ई.
- राज्याभिषेक के समय अल्पवयस्क था इसलिए प्रारम्भ में शासन पर मेजर लुडलो का नियंत्रण रहा।
- लुडलो ने ‘समाधि प्रथा व कन्या क्रय-विक्रय’ पर रोक लगाई।
- 1857 की क्रांति को दबाने के लिए अंग्रेजों का तन-मन-धन से सहयोग किया।
- अंग्रेजों ने ‘सितार-ए-हिन्द’ की उपाधि दी।
- जयपुर में ‘मदरसा हुनरी’ की स्थापना की जिसका माधोसिंह II ने नाम बदलकर ‘राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स’ कर दिया।
- ब्रिटिश शासक एडवर्ड पंचम के जयपुर आगमन पर 1868 ई. में जयपुर को गुलाबी रंग से रंगवाया। एडवर्ड पंचम ने जयपुर को ‘गोल्डन बर्ड’ कहा।
- 1876 ई. में पोथीखाना एवं प्रिंस अल्बर्ट के जयपुर आगमन पर ‘अल्बर्ट हॉल संग्रहालय’ की स्थापना की। यह राजस्थान का प्रथम संग्रहालय है।
- रामप्रकाश थियेटर, रामनिवास बाग, महाराजा स्कूल, संस्कृत स्कूल एवं मौन मंदिर आदि का निर्माण करवाया।
- ‘संस्कृत भाषा की रचनाओं’ एवं ‘ब्लू पॉटरी’ का स्वर्णकाल।
- झाड़शाही सिक्के (वजन 167 ½ ग्रेन) चलाए।
सवाई माधोसिंह द्वितीय
- शासनकाल - 1880 - 1922 ई.
- राजस्थान में सर्वप्रथम 1904 ई. में डाक टिकिट एवं पोस्टकार्ड की शुरुआत जयपुर में हुई।
- ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड पंचम के राज्याभिषेक में लंदन अपने साथ चाँदी के दो बड़े कलश में गंगाजल लेकर गया। ये दुनिया में सबसे बड़े चाँदी के पात्र हैं जो वर्तमान में सिटी पैलेस में सुरक्षित हैं।
- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए मदनमोहन मालवीय को 5 लाख रु. का अनुदान दिया था।
- चन्द्रमहल में मुग़ल, राजपूत एवं यूरोपीय शैली में ‘मुबारक महल’ का निर्माण करवाया।
- माधवेन्द्र भवन - अपनी 9 पासवानों के लिए नाहरगढ़ में एक जैसे 9 महल बनवाए।
सवाई मानसिंह द्वितीय
- शासनकाल - 1922 - 1949 ई.
- जयपुर में पहली बार विद्युत सेवा की शुरुआत एवं पंचायती कानून बने।
- प्रधानमंत्री मिर्जा इस्माइल को ‘आधुनिक जयपुर का निर्माता’कहा जाता है।
- कच्छवाहा वंश का अंतिम शासक।
- 1949 – 1956 ई. तक राजस्थान के राजप्रमुख।
- पोलो के प्रसिद्ध खिलाड़ी।
भाटी वंश
- प्रतिहार शासक कक्कुक के घटियाला शिलालेख में इस प्रदेश के लिए माड, वल्ल, त्रावणी शब्दों का प्रयोग किया गया है।
- भाटियों को 'उत्तर भड़ किवाड़ भाटी' कहा जाता था क्योंकि भाटी वंश ने उत्तर भारत के रक्षक के रूप में लम्बे समय तक शासन किया।
- भाटी चन्द्रवंशी हैं वे स्वयं को श्रीकृष्ण के वशंज मानते हैं।
- कुलदेवता - लक्ष्मीनाथजी।
- कुलदेवी – स्वांगिया माता।
- भाटियों का मूल स्थान पंजाब था। सातवीं सदी के आरंभ में भाटी जाति का इस क्षेत्र में आगमन हुआ तथा भाटी राजवंश की स्थापना हुई।
भट्टी
- भाटी राजवंश के आदिपुरुष
- भट्टी के पुत्र भूपत ने 285 ई. में ‘भटनेर दुर्ग’ का निर्माण करवाया।
केहर
- ‘केहरोर दुर्ग’ का निर्माण करवाया तथा तनोट दुर्ग की नींव रखी।
तणु
- केहर का उत्तराधिकारी।
- 787 ई. के लगभग तनोट दुर्ग का निर्माण पूर्ण करवाया तथा तनोट माता का मंदिर बनवाया।
- वृद्धावस्था के कारण अपने जीवनकाल में ही पुत्र विजयराज को तनोट का शासक बनाया।
देवराज
- 10 वर्षों तक इधर-उधर भटकने के पश्चात् शक्ति का संचय कर अपने मामा जजा भूटा की सहायता से ‘देरावल दुर्ग’ बनवाया।
- यहाँ से लाखा फुलाणी नामक योद्धा की सहायता से अपने पिता की हत्या का बदला लेते हुए हारे हुए क्षेत्रों पर पुन: अधिकार कर लिया।
- योगी रत्नू ने सिद्धदेवराज का नाम प्रदान किया और ‘रावल’ की उपाधि प्रदान की।
- लोद्रवा को अपनी राजधानी बनाया।
- देवराज के बाद मूंध, बच्छराज, दुसाज नामक शासक बने।
राव जैसल
- लोद्रवा से दूर जैसलमेर नगर बसाया तथा त्रिकूट पहाड़ी पर 12 जुलाई, 1155 को जैसलमेर दुर्ग की नींव रखी।
- जैसलमेर को अपनी राजधानी बनाया।
रावल जैतसिंह
- समकालीन दिल्ली शासक बलबन था।
- 1308 ई. में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनानायक कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में जैसलमेर पर सेना भेजी।
- कमालुद्दीन गुर्ग ने 2 वर्ष तक घेरा डाले रखा लेकिन सफलता नहीं मिली।
- अत: मलिक कापूर के नेतृत्व में सेना भेजी जिसने जैसलमेर दुर्ग पर सीधा आक्रमण कर दिया जिससे तुर्क सेना को अत्यधिक क्षति हुई और सफलता हासिल नहीं हुई।
- अलाउद्दीन खिलजी ने एक बार फिर कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में विशाल सेना भेजी।
- गुर्ग ने किले को चारों ओर से घेर लिया इसी घेरे के दौरान जैतसिंह की मृत्यु हो गई।
रावल मूलराज प्रथम
- 1312-13 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय दुर्ग के चारों ओर से घिरा होने के कारण खाद्य सामग्री की कमी हो गई। अत: राजपूतों ने केसरिया धारण किया तथा वीरांगनाओं ने जौहर किया।
- 1312-13 ई. में जैसलमेर का प्रथम प्रामाणिक साका हुआ। इस युद्ध का वर्णन 'तारीख-ए-मासूमी' में मिलता है।
रावल दूदा
- शासनकाल - 1319-31 ई.
- जैसलमेर पर फिरोजशाह तुगलक का आक्रमण हुआ।
- दूदा के नेतृत्व में त्रिलोकसी व अन्य भाटी सरदारों ने केसरिया धारण किया व महिलाओं ने जौहर किया।
- यह जैसलमेर का द्वितीय साका था।
- रावल दूदा एवं फिरोजशाह तुगलक के मध्य हुए युद्ध का ऐतिहासिक स्रोत, जैसलमेर रियासत संबंधी ख्यातें हैं।
- लेकिन इस युद्ध के प्रामाणिक स्रोतों का अभाव है।
रावल घड़सी
- शासनकाल - 1343-61 ई.
- दिल्ली जाकर अलाउद्दीन खिलजी से जैसलमेर वापस प्राप्त किया।
- जैसलमेर में ‘घड़सीसर जलाशय’ का निर्माण करवाया।
रावल लक्ष्मण
- शासनकाल - 1396-1436 ई.
- जैसलमेर दुर्ग में लक्ष्मीनाथ (विष्णु) मंदिर का निर्माण करवाया।
- नई शासन पद्धति चलाई जिसमें जैसलमेर के मुख्य शासक लक्ष्मीनाथ तथा रावल उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन चलाएंगे।
रावल बैरसिंह
- शासनकाल - 1436-1447 ई.
- रत्नेश्वर महादेव मन्दिर एवं बुलीसर नामक कूप का निर्माण करवाया।
- राव जोधा को शरण दी।
रावल लूणकरण
- शासनकाल - 1528-50 ई.
- समकालीन दिल्ली का बादशाह बाबर था।
- अपने पिता जैतसिंह-द्वितीय द्वारा शुरू करवाए गए जैतबाँध का कार्य पूर्ण करवाया तथा उसके किनारे एक फलों का बाग लगवाया जिसे बड़ा बाग कहते हैं। यहाँ पर जैसलमेर भाटी शासकों की छतरियाँ हैं।
- बड़ी पुत्री राम कंवरी तथा छोटी उमादे का विवाह जोधपुर के राव मालदेव के साथ किया। उमादे रूठी रानी के नाम से जानी जाती हैं।
- जैतबाँध यज्ञ का आयोजन कर उन भाटियों को पुन: हिन्दू धर्म में शामिल करवाया जिन्होंने किसी कारण से इस्लाम स्वीकार कर लिया था। यह शुद्धीकरण की दिशा में किया गया पहला प्रयास था।
- अर्द्धसाका - कांधार का अपदस्थ शासक अमीर अली खाँ जो कि लूणकरण के यहाँ शरणागत था। उसने धोखे से दुर्ग में पहुँचकर आक्रमण कर दिया इस युद्ध में लूणकरण के नेतृत्व में वीरों ने केसरिया धारण किया लेकिन वीरांगनाओं को जौहर का समय नहीं मिल पाया।
- इस युद्ध में लूणकरण वीर गति को प्राप्त हुआ लेकिन भाटियों की विजय हुई।
रावल हरराय
- शासनकाल - 1561-1577 ई.
- रावल मालदेव भाटी का पुत्र था।
- भारमल कच्छवाहा के समझाने पर 1570 ई. में नागौर दरबार में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा अपनी पुत्री नाथी बाई का विवाह अकबर से किया।
- प्रथम भाटी शासक था जिसने मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए।
- नई सामंती प्रणाली की शुरुआत की जिसके अंतर्गत ‘जीवणी’ व ‘डावी’ मिसलों की स्थापना की।
- मालिया महल व खाबड़ियों की हवेली का निर्माण किया।
रावल भीम
- शासनकाल - 1577-1613 ई.
- अपनी पुत्री का विवाह सलीम/जहाँगीर से किया। जहाँगीर ने इसे मलिका-ए-जहाँ उप नाम से संबोधित किया।
- महारानी ने घड़सीसर तालाब के किनारे ‘नीलकंठ महादेव मंदिर’ का निर्माण करवाया।
- जैसलमेर दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया और दो प्रमुख द्वारों के दरवाजे ‘गणेश पोल’ एवं ‘सूर्य पोल’ लगावाए।
- बैरीशाल बुर्ज का भी पुन:निर्माण करवाया।
महारावल कल्याण
- शासनकाल - 1613-1627 ई.
- सेठ थारूशाह के देरासर स्थित एक स्तम्भ लेख में महारावलकी उपाधि से सुशोभित किया। यह प्रथम साक्ष्य जिसमें जैसलमेर के शासकों को रावल के स्थान पर महारावल सम्बोधित किया गया।
महारावल सबलसिंह
- शासनकाल - 1650-1660 ई.
- 1659 ई. में ताँबे की डोडिया मुद्रा का प्रारम्भ किया।
महारावल अमरसिंह
- शासनकाल - 1660-1701 ई.
- अमरसागर झील एवं राणीबाग का निर्माण करवाया।
- दो प्रमुख प्रशासनिक सुधार –
1. मुद्रा का टंकन 2. माप-तौल का निर्धारण
- 65 कलदार रुपयों का एक सेर वजन तौलने का आधार निर्धारित किया।
महारावल अखैसिंह
- शासनकाल - 1722-1761 ई.
- रणछोड़ जी मन्दिर की प्रतिष्ठा व राडविलास नामक महल का निर्माण करवाया।
- जैसलमेर दुर्ग के मुख्य द्वार अखैपोल का निर्माण करवाया।
महारावल मूलराज द्वितीय
- शासनकाल - 1761-1819 ई.
- 12 दिसम्बर, 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि की।
महारावल रणजीतसिंह
- शासनकाल - 1846-1864 ई.
- 1857 क्रांति के दौरान शासक था।
- खुले तौर पर ईस्ट इंडिया कंपनी का सहयोग किया।
- चाँदी के सिक्कों पर से मुगल बादशाह मोहम्मदशाह का नाम हटाकर महारानी विक्टोरिया का नाम लिखा जाने लगा था।
- गुलाब सागर नामक सरोवर का निर्माण करवाया।
- सिक्कों पर राज चिह्न के रूप में छत्र व सुगन चिड़ी को भी अंकित किया जाने लगा।
महारावल बैरीशाल
- शासनकाल - 1864-1891 ई.
- मेहता जगजीवन के रूप में पहली बार दीवान के पद पर किसी बाहरी व्यक्ति को नियुक्त किया गया।
- ऐसा क्रांतिकारी कदम एक ही वंश के एकाधिकार को हमेशा के लिए समाप्त करने के उद्देश्य से उठाया गया था।
- प्रथम ब्रिटिश डाकखाना जैसलमेर में खोला गया।
महारावल जवाहरसिंह
- शासनकाल - 1914-49 ई.
- राज्य में नगरपालिका, जवाहर प्रिन्टिंग प्रेस एवं प्रथम बिजलीघर की स्थापना की गई।
- पशुओं की पीठ पर जाति एवं कबीलों के पृथक्-पृथक् चिह्नों को दागने की प्रथा प्रारम्भ की गई।
- शिक्षा-दीक्षा मेयो कॉलेज अजमेर में हुई।
- प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश शासन की सहायता की।
- राजस्थान के अंतिम दुर्ग मोहनगढ़ का निर्माण करवाया गया।
- प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सागरमल गोपा को अमानवीय यातनाएँ देकर 4 अप्रैल, 1946 को मार डाला गया।
जाट वंश
(i) भरतपुर जाट वंश
- स्वतंत्रता के समय राजस्थान में दो जाट रियासतें ‘भरतपुर’ तथा ‘धौलपुर’ थीं।
- लोक मान्यता के अनुसार, भरतपुर का नाम मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी के छोटे भाई ‘भरत’ के नाम पर रखा गया।
- कुलदेवता – लक्ष्मण
- वंश के राज चिह्न में ‘लक्ष्मण’ का नाम अंकित है।
- औरंगजेब ने जब हिंदू मंदिरों को तुड़वाया तथा जजिया कर लगाकर प्रताड़ित किया, तब इस क्षेत्र के जाट किसानों ने आंदोलन कर दिया।
गोकुल
- तिलपट्ट गाँव (मथुरा) का जमींदार था।
- जाटों ने इसके नेतृत्व में संगठित होकर औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। औरंगजेब ने हसन अली खाँ के नेतृत्व में सेना भेजकर इस विद्रोह को दबाया तथा गोकुल को बंदी बना लिया।
- गोकुल को बंदी बनाकर आगरा ले जाकर उस पर इस्लाम स्वीकार करने का दबाव बनाया गया लेकिन मना करने पर आगरा की कोतवाली के सामने उसका एक-एक अंग काटकर फेंक दिया गया।
- इस दमन के पश्चात् एक बार के लिए जाट शांत हो गए।
राजाराम
- भज्जा के सात पुत्रों में सबसे बड़ा था।
- राजाराम के नेतृत्व में 1685 में दूसरा जाट विद्रोह हुआ था।
- लूट-मार कर मुगलों को परेशान करना शुरू किया तथा छापामार पद्धति से युद्ध कर अपने क्षेत्रों पर वापस अधिकार कर लिया।
- मार्च, 1688 में आगरा में स्थित अकबर की कब्र को खोदकर हड्डियों को जला दिया एवं वहाँ रखा सारा सामान लूट लिया।
- 1688-89 ई. में आमेर के कच्छवाहा शासक बिसनसिंह व औरंगजेब के पौत्र बीदरबक्श के नेतृत्व में मुगल सेना ने राजाराम को उसके क्षेत्र में मार गिराया तथा इसका कटा सिर औरंगजेब के पास ले जाया गया, जहाँ पर औरंगजेब ने इसके कटे सिर के साथ बड़ा उत्सव मनाया।
चूड़ामन जाट
- शासनकाल - 1695-1721 ई.
- 1688 ई. में राजाराम के बाद उसके भतीजे चूड़ामन ने जाट विद्रोह का नेतृत्व किया।
- जाट साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है।
- सोखेर, उज्जैन, सोगर व कासोट आदि स्थानों पर अपने थाने स्थापित किए।
- 1707 ई. के जाजू के युद्ध में पराजित आजम की सेना को लूटा।
- बहादुरशाह ने दिल्ली-आगरा मार्ग पर नियंत्रण रखने हेतु नियुक्त किया।
- सिखों के विरुद्ध मुगल बादशाह के अभियान में भाग लिया था।
- मुगल बादशाह फर्रुखसियर ने बारामुला से सिकन्दरा तक के शाही मार्ग की शहदारी वसूल करने का अधिकार दिया।
- थून के किले का निर्माण करवाया व थून को अपनी राजधानी बनाया।
- मुगल बादशाह फर्रुखसियर के वजीर अब्दुला खाँ ने भरतपुर क्षेत्र में जागीर देकर ‘राहदार खाँ’ का खिताब दिया।
- 1721 में सवाई जयसिंह-द्वितीय ने इसके भतीजे बदनसिंह के सहयोग से थून के किले पर अधिकार कर लिया।
- इसके बाद चूड़ामन जाट ने आत्महत्या कर ली।
- इतिहासकार कानूनगो ने चूड़ामन के लिए लिखा है कि – “वह असफल देशभक्त और सफल विद्रोही था। यद्यपि वह राजोचित सम्मान और पदवियों से सम्मानित नहीं हो पाया था । मराठों की चालाकी व राजनीतिक दूरदर्शिता का अनुपम मिश्रण उसके चरित्र में देखा जा सकता है।”
बदनसिंह
- शासनकाल - 1722-1755 ई.
- चूड़ामन के भाई भावसिंह का पुत्र था।
- सवाई जयसिंह-द्वितीय ने डीग की जागीर देकर ‘ब्रजराज’ की उपाधि दी एवं एक राजा की तरह राजतिलक किया।
- अपना राज्य भरतपुर से लेकर आगरा तक विस्तृत कर दिया।
- कुम्हेर, डीग, भरतपुर एवं वैर में नए किलों का निर्माण करवाया और डीग को अपना निवास बनाया।
- सर्वप्रथम भरतपुर नामक रियासत का गठन किया।
- जाट राजवंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
- सवाई जयसिंह ने जयपुर दिल्ली व आगरा के शाही मार्गों की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा।
- 1730 ई. में मेवात क्षेत्र के मेवों का दमन किया।
- 1756 ई. में रियासत की बागडोर अपने पुत्र सूरजमल को सौंप दी।
- मृत्यु - 1756 ई. में डीग में
महाराजा सूरजमल
- शासनकाल - 1756 – 63 ई.
- पिता बदनसिंह ने अपने जीते जी 1756 ई. में शासन सौंप दिया।
- भरतपुर में एक नए दुर्ग का निर्माण करवाकर इसे अपनी राजधानी बनाया।
- शिक्षा एवं साहित्य के प्रति असीम अनुराग के कारण जाटजाति का प्लेटो अथवा जाटों का अफलातून कहा जाता है।
- जयपुर के ईश्वरीसिंह को सिंहासन पर बिठाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- 1754 ई. में भरतपुर पर हुए मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर के आक्रमण को विफल किया।
- 1757 ई. में अब्दाली के ब्रज आक्रमण में ब्रज के तीनों तीर्थों को बचाने के लिए सूरजमल के सैनिकों ने अपना बलिदान दिया।
- 1761 ई. अहमद शाह अब्दाली के विरुद्ध मराठों का साथ दिया।
- 12 जून, 1761 को आगरा किले पर अधिकार कर लिया।
- जाट राज्य की शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर थी।
- पानीपत की पराजय के बाद मराठों को शरण एवं सहायता दी।
- 1763 ई. में रूहेलों के विरुद्ध युद्ध में देहांत हो गया।
- पुरोहित मंगलसिंह की ‘सुजान संवत विलास’ और कवि सूदन द्वारा रचित ‘सुजानचरित’ में सूरजमल के पराक्रमपूर्ण जीवन का वर्णन किया गया है।
- 1733 ई. में लोहागढ़ दुर्ग एवं डीग में जलमहलों का निर्माण करवाया।
जवाहरसिंह
- शासनकाल - 1765-68 ई.
- सूरजमल का पुत्र था।
- इसके समय जाट शक्ति का पतन शुरू हो गया।
- पेशेवर सेना का निर्माण करवाया।
- मराठा, रूहेलों एवं राजपूतों से लगातार संघर्ष करना पड़ा।
- 1764 ई. में होल्कर की सहायता से रूहेला सरदार नजीबुद्दौला को पराजित किया।
- विदेशी सैनिकों को अपनी सेना में भर्ती किया।
- 1766 ई. में होल्कर को परास्त कर धौलपुर पर अधिकार कर लिया।
- मांडवा का युद्ध 1767 ई.- इसे कच्छवाहों ने पराजित किया।
- इसकी हत्या इसी के एक सैनिक ने कर दी।
- उत्तराधिकारी रतनसिंह था जिसने केवल 9 माह तक शासन किया।
- रतनसिंह के बाद उसका पुत्र केसरीसिंह शासक बना।
रणजीतसिंह
- शासनकाल - 1775-1805 ई.
- 1775 ई. में केसरीसिंह को हटाकर भरतपुर का शासक बना।
- 29 सितंबर, 1803 को ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि कर ली।
- दिसंबर, 1804 में मराठा सेना नायक होल्कर को लेकर हुए विवाद के कारण अंग्रेज सेनापति लॉर्ड लेक ने भरतपुर पर आक्रमण कर दिया। पाँच माह तक लगातार जबरदस्त आक्रमणों के बावजूद अंग्रेज दुर्ग को नहीं जीत पाए। अंग्रेजों की इस हार के कारण भरतपुर का देशभर में नाम हुआ।
- अप्रैल, 1805 में भरतपुर राज्य ने अंग्रेजों से संधि कर ली।
जसवंतसिंह
- शासनकाल - 1853-1893 ई.
- अल्पवयस्क होने के कारण शासन का कार्यभार पॉलिटिकल एजेंट मॉरिसन के हाथों में था।
- यह 1857 की क्रान्ति के समय भरतपुर का शासक था।
- 1879 ई. में अंग्रेजों के साथ ‘नमक समझौता’ किया।
रामसिंह
- शासनकाल - 1893-1900 ई.
- अपने निजी सेवक की हत्या के आरोप में 1900 ई. में सिंहासन से अपदस्थ कर दिया गया।
बलवन्तसिंह
- शासनकाल - 1825-1853 ई.
- अंग्रेजों ने प्रथम बार भरतपुर के किले (लोहागढ़) पर अधिकार कर लिया।
किशनसिंह
- शासनकाल - 1900-1929 ई.
- 1918 ई. में शासनाधिकार दिए गए।
- इसे शासन सौंपने से पूर्व भरतपुर की सेना का प्रयोग प्रथम विश्व युद्ध में किया गया।
- भरतपुर रियासत के आधुनिकीकरण के प्रयास किए।
- 1928 ई. में पी.जी. मेकेन्जी को भरतपुर का दीवान नियुक्त कर वित्त व प्रशासन संबंधी समस्त अधिकार दे दिए गए।
बृजेन्द्रसिंह
- शासनकाल - 1929-1947 ई.
- भरतपुर के जाट राजवंश का अंतिम शासक।
- 31 जुलाई, 1947 को विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर भरतपुर का विलय कर दिया गया।
(ii) धौलपुर का जाट वंश
- 1791 में गोहद में लोकेन्द्रसिंह ने खुद को भरतपुर राज्य से स्वतंत्र कर एक नवीन जाट राजवंश की स्थापना की।
- 1805 ई. में अंग्रेजों द्वारा कीरतसिंह को गोहद से निकाले जाने पर कीरतसिंह ने धौलपुर में जाट राजवंश की स्थापना की।
करौली यादव वंश
- करौली का यादव राजवंश स्वयं को चन्द्रवंशी क्षत्रिय एवं योगीराज श्रीकृष्ण का वंशज मानता है।
- महाजनपद काल में इस क्षेत्र का कुछ भाग मत्स्य जनपद का एवं कुछ भाग सूरसेन जनपद का था। सूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा थी।
विजयपाल
- करौली के यादव शाखा का मूलपुरुष/आदिपुरुष/संस्थापक।
- 1040 ई. में अपने राज्य की राजधानी मथुरा से अलग बयाना (विजयमंदिर गढ़) को बनाया।
तिमनपाल - 'तिमनगढ़ दुर्ग' बनवाकर उसे अपनी नई राजधानी बनाई।
धर्मपाल - धौलडेरा में जाकर ‘धौलगढ़’ बनवाया, जिसे अब धौलपुर का दुर्ग कहते हैं।
अर्जुनपाल
- 1327 ई. में तिमनगढ़ दुर्ग को मुस्लिमों से छीनकर यहाँ पर पुन: यादवों का शासन स्थापित किया।
- 1348 ई. में लीसिल नदी के तट पर ‘कल्याणपुर’ कस्बा बसाया।
- कल्याणपुर कस्बा वर्तमान में ‘करौली’ के नाम से जाना जाता है।
- यहाँ हनुमानजी की माता 'अंजनी माता का मंदिर' एवं ‘गढ़कोट का दुर्ग’ बनवाया।
हरवक्षपाल
- 1812 ई. में नवाब मुहम्मदशाह खाँ से ‘मांची का युद्ध’ हुआ जिसमें विजयी रहा।
- 15 नवम्बर, 1817 में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि कर अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली।
- करौली, राजस्थान की पहली रियासत थी जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ अधीनस्थ संधि की।
मदनपाल
- शासनकाल - 1854-1869 ई.
- 1857 की क्रांति में अंग्रेजों की सहायता की।
- अंग्रेजों ने इसे ‘ग्रांड कमाण्डर ऑफ द ऑर्डर ऑफ स्टार ऑफ इण्डिया’ की उपाधि दी।
- इनके आग्रह पर ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1865 ई. में राजस्थान की प्रथम बार यात्रा की।
गणेशपाल
- शासनकाल - 1941-1947 ई.
- करौली रियासत का अंतिम शासक।
- 1945 ई. में रियासत में नया संविधान लागू किया।
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