राजस्थानी भाषा और बोलियाँ
राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति एवं विकास :-
● राजस्थानी भाषा पर 10वीं सदी तक पश्चिमी भारत के क्षेत्रों में बोली जाने वाली अपभ्रंश का अत्यधिक प्रभाव रहा।
● हालाँकि राजस्थानी का उद्भव लगभग ईसा की 11-12वीं शताब्दी से हुआ माना जाता है, परन्तु 16वीं सदी के बाद राजस्थानी भाषा का विकास एक स्वतंत्र भाषा के रूप में होने लगा।
राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति :-
आर्य → वैदिक संस्कृत → पालि → प्राकृत → शौरसेनी → गुर्जरी अपभ्रंश
राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों के मत :-
1. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन - नागर अपभ्रंश
2. डॉ. पुरुषोत्तम मेनारिया - नागर अपभ्रंश
3. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी - गुर्जरी अपभ्रंश
4. मोती लाल मेनारिया - गुर्जरी अपभ्रंश
5. एल.पी. टैस्सीटोरी - गुर्जरी अपभ्रंश
6. डॉ. सुनीति चटर्जी - सौराष्ट्री अपभ्रंश
राजस्थानी भाषा के प्रमुख तथ्य :-
● राजस्थानी भाषा के मरुभाषा, मरुभूम भाषा, मरुदेशीय भाषा, मरुवाणीआदि अनेक नाम मिलते हैं।
● आठवीं शताब्दी में रचित उद्योतन सूरि के ग्रंथ कुवलयमाला में वर्णित 18देशी भाषाओं में मरुदेश की भाषा ‘मरुवाणी’ का उल्लेख है।
● आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने प्रमुख भाषाओं में मारवाड़ी का नामगिनाया है।
● राजस्थान की भाषा के लिए राजस्थानी नाम का प्रयोग सर्वप्रथम जॉर्जअब्राहम ग्रियर्सन ने 1912 ई. में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफइण्डिया’ में किया है।
● डॉ. एल.पी. टेस्सीटोरी ने 'इंडियन ऐन्टीक्वेरी पत्रिका' में राजस्थानी भाषाकी उत्पत्ति और विकास पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार गुर्जर अपभ्रंशसे राजस्थानी भाषा का विकास हुआ है।
राजस्थानी भाषा के दो भेद स्वीकार किए जाते हैं :-
1. पश्चिमी राजस्थानी -
● पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप डिंगल।
● डॉ. नामवरसिंह के अनुसार यह गुजराती से समानता रखती है।
2. पूर्वी राजस्थानी -
● पूर्वी राजस्थानी का साहित्यिक रूप पिंगल।
● डॉ. नामवरसिंह के अनुसार यह ब्रजभाषा से प्रभावित है।
क्षेत्रीय बोलियाँ
● डॉ. ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों को पाँच मुख्य वर्गों में विभक्त कियाहै। मगर सामान्यतया या राजस्थान की बोलियों को दो भागों में बाँटा जासकता है–
(क) पश्चिमी राजस्थानी – मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी।
(ख) पूर्वी राजस्थानी – ढूँढाड़ी, हाड़ौती, मेवाती, अहीरवाटी (राठी)।
मारवाड़ी
● राजस्थान की बोलियों में मारवाड़ी का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
● क्षेत्रफल की दृष्टि से मारवाड़ी राजस्थानी बोलियों में प्रथम स्थान रखतीहै।
● यह बोली मुख्य रूप से जोधपुर, पाली, बीकानेर, नागौर, बाड़मेर व जैसलमेर में बोली जाती है।
● मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी, नागौरी, खैराड़ी, गौड़वाड़ी व थली आदि इसकी उपबोलियाँ हैं।
● विशुद्ध मारवाड़ी जोधपुर क्षेत्र में बोली जाती है।
● मारवाड़ी बोली का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है।
● अधिकांश जैन साहित्य ‘मारवाड़ी’ बोली में ही लिखा गया है।
● उदाहरण - राजिया रा सोरठा, वेलि क्रिसन रूक्मणी री, ढोला-मरवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य इसी बोली में हैं।
मेवाड़ी
● मोतीलाल मेनारिया ने मेवाड़ी मारवाड़ी की ही उपबोली माना है।
● मारवाड़ी के बाद यह राजस्थान की दूसरी महत्त्वपूर्ण बोली है।
● यह बोली उदयपुर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़ व राजसमंद जिलों के अधिकांश भाग में बोली जाती हैं।
● कुम्भा की ‘कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति’ में मेवाड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
● मेवाड़ी तथा मारवाड़ी बोली की भाषागत विशेषताओं में साम्य है।
● मेवाड़ी बोली में ‘ए’ और ‘ओ’ की ध्वनि का विशेष प्रयोग होता है।
● मेवाड़ी बोली में साहित्य रचना कम हुई। फिर भी इस बोली की अपनी साहित्यिक परंपरा है।
● इसी कारण मारवाड़ी साहित्य में मेवाड़ी का भी योगदान है।
वागड़ी
● डूँगरपुर तथा बाँसवाड़ा में बोली जाने वाली बोली है।
● इस बोली पर मेवाड़ी तथा गुजराती बोली का प्रभाव है।
● इसमें ‘च’ और ‘छ’ का उच्चारण ‘स’ किया जाता है।
● इस बोली में प्रकाशित साहित्य का लगभग अभाव है।
● जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने इसे ‘भीली बोली’ कहा है।
खैराड़ी
● यह बोली ढूँढाड़ी, मेवाड़ी और हाड़ौती का मिश्रण है।
● प्रमुख क्षेत्र – शाहपुरा (भीलवाड़ा), बूँदी
● यह मीणाओं की प्रिय बोली है।
शेखावाटी
● सीकर, चूरू व झुंझुनूँ, हनुमानगढ़, सूरतगढ़ तथा गंगानगर क्षेत्र में बोली जाती है। इस पर मारवाड़ी व ढूँढाड़ी का प्रभाव देखा जाता है।
गौड़वाड़ी
● लूणी नदी के बालोतरा के बाद अपवाह तंत्र को गौड़वाड़ प्रदेश कहते हैं। इस क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली गौड़वाड़ी है।
● यह मुख्यत: जालोर, पाली व सिरोही क्षेत्र में बोली जाती है।
● इसका प्रमुख केन्द्र बाली (पाली) हैं।
● नरपति नाल्ह द्वारा ‘बीसलदेव रासो’ नामक ग्रंथ इसी भाषा में रचित है।
देवड़ावाटी
● उपनाम – सिरोही बोली।
● यह सिरोही के देवड़ा शासकों की बोली है।
● इसका प्रमुख क्षेत्र सिरोही है।
थली बोली
● बीकानेर के आस-पास बोली जाती है।
ढाटी बोली
● यह बाड़मेर क्षेत्र में बोली जाती है।
ढूँढाड़ी
● यह बोली पूर्वी राजस्थान की प्रमुख बोली है। यह किशनगढ़, जयपुर, टोंक, अजमेर और मेरवाड़ा के पूर्वी भागों में बोली जाती है।
● ढूँढाड़ी की प्रमुख उपबोलियाँ - हाड़ौती, नागरचोल, राजावाटी, तोरावाटी, चौरासी, अजमेरी, किशनगढ़ी आदि।
● यह बोली गुजराती एवं ब्रजभाषा से प्रभावित है।
● दादूपंथ का अधिकांश साहित्य ढूँढाड़ी बोली में लिपिबद्ध है।
● यह बोली साहित्य की दृष्टि से समृद्ध है।
● इस बोली में वर्तमान काल के लिए, ‘छै’ एवं भूतकाल के लिए ‘छी’, ‘छौ’ का प्रयोग होता है।
हाड़ौती
● इस बोली पर गुजराती एवं मराठी का प्रभाव भी है।
● इसे ढूँढाड़ी की उपबोली माना जाता है।
● कोटा, बूँदी, बाराँ और झालावाड़ क्षेत्र को हाड़ौती कहा जाता है। इस क्षेत्र में प्रचलित बोली हाड़ौती कहलाती है।
● बूँदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मीसण की रचनाओं में हाड़ौती बोली का प्रयोग मिलता है।
मेवाती
● मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव दृष्टिगत होता है।
● मेवाती बोली अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली के पूर्वी भाग में बोली जाती है।
● साहित्य की दृष्टि से यह बोली समृद्ध है।
● संत लालदास, चरणदास, दयाबाई, सहजोबाई, डूँगरसिंह आदि की रचनाएँ मेवाती बोली में है।
मालवी
● मालवी बोली पर गुजराती एवं मराठी भाषा का भी न्यूनाधिक प्रभाव देखने को मिलता है।
● मालवी बोली झालावाड़, कोटा एवं प्रतापगढ़ के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है।
● यह कोमल एवं मधुर बोली है।
● इसकी विशेषता सम्पूर्ण क्षेत्र में इसकी एकरूपता है। काल रचना में हो, ही के स्थान पर थो, थी का प्रयोग होता है।
● रांगड़ी तथा नीमाड़ी इसकी उपबोलियाँ हैं।
1. नीमाड़ी बोली – दक्षिणी राजस्थान (डूँगरपुर और बाँसवाड़ा) और उत्तरी मालवा क्षेत्र में बोली जाती है। इसे ‘दक्षिण राजस्थानी बोली’ भी कहा जाता है।
2. रांगड़ी बोली - मालवी और मारवाड़ी का मिश्रण रूप है। मालवा के राजपूतों की कर्कश बोली है।
अहीरवाटी
● अहीरवाटी को 'राठी' के नाम से जाना जाता है।
● अहीरवाटी बोली अलवर जिले की बहरोड़, मुण्डावर तथा किशनगढ़ के पश्चिमी भाग व जयपुर जिले की कोटपुतली तहसील में बोली जाती है।
● यह देवनागरी, गुरुमुखी तथा फारसी लिपि में भी लिखी मिलती है।
● प्राचीनकाल में आभीर जाति की एक पट्टी इस क्षेत्र में आबाद हो जाने से यह क्षेत्र अहीरवाटी या हीरवाल कहा जाता है।
● कवि जोधराज का ‘हम्मीर रासो’ और शंकरराव का ‘भीमविलास’ इसी बोली में हैं।
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