राजस्थान की हस्तकला
● हाथ से वस्तुएँ बनाने की कला।
● राजस्थान सम्पूर्ण देश में हस्तकलाओं के आगार के रूप में जाना जाता है।
● हस्तकला, एक लघु उद्योग है।
● लघु उद्योगों का विकास एवं संरक्षण, राजसीको (राजस्थान लघु उद्योगविकास निगम) द्वारा किया जाता है।
● राजस्थान में हस्तकला का प्रमुख केन्द्र- बोरानाडा (जोधपुर)
ब्ल्यू पॉटरी
● ब्ल्यू पॉटरी शुरुआत– महाराजा रामसिंह-द्वितीय के काल में हुई।
● ब्ल्यू पॉटरी – चीनी मिट्टी के बर्तनों पर नीले रंग की चित्रकारी।
● मूल रूप से चीन और फारस की है, जो मुगलकाल में भारत आई।
● दिल्ली के भोला नामक कलाकार से जयपुर निवासी चूड़ामन और कालू कुम्हार ने यह कला सीखकर राजस्थान में इसकी शुरुआत की।
● कृपाल सिंह शेखावत– पद्मश्री से सम्मानित कृपाल सिंह शेखावत ने इस कला को देश-विदेश में पहचान दिलाई।
● इनके अतिरिक्त स्वर्गीय नाथी बाई भी इस कला की प्रसिद्ध महिला कलाकार थी।
● ब्ल्यू पॉटरी के निर्माण के लिए पहले बर्तनों पर चित्रकारी की जाती है फिर इन पर विशेष घोल चढ़ाया जाता है। यह घोल हरा काँच, कथीरा, सागी, क्वार्ट्ज पाउडर और मुल्तानी मिट्टी से बनाया जाता है।
● ब्ल्यू पॉटरी के रंगों में नीला-हरा, मटियाला और ताम्बाई रंग विशेष रूप से काम में लेते हैं।
● तैयार पॉटरी को 800° सेन्टीग्रेड तापमान में पकाया जाता है।
● वर्तमान में ब्ल्यू पॉटरी के प्रमुख कलाकार– त्रिलोकचन्द, दुर्गालाल, गिरिराज, हनुमान सहाय, भगवान सहाय व भैरू खारवाड़ आदि हैं।
ब्लैक पॉटरी - कोटा
● ब्लैक पॉटरी, राजस्थान की सबसे सस्ती पॉटरी है। चीनी मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग की चित्रकारी।
● ब्लैक पॉटरी का कार्य कप, प्लेट, गमलेदान, कूड़ेदान आदि पर किया जाता है।
कागजी पॉटरी
● कागज से निर्मित बर्तनों पर चित्रकारी।
● इस पॉटरी से निर्मित बर्तनों में तरल पदार्थों का प्रयोग नहीं होता है।
सुनहरी पॉटरी
● ‘सुनहरी पॉटरी’ बीकानेर की प्रसिद्ध है।
थेवा कला
● थेवा कला काँच पर सोने का सूक्ष्म चित्रांकन है, काँच पर सोने की अत्यंत बारीकी, कमनीय एवं कलात्मक कारीगरी को थेवा कला कहा जाता है।
● इसके लिए ‘रंगीन बेल्जियम काँच’ का प्रयोग किया जाता है।
● डाक टिकट जारी – नवम्बर, 2002
● थेवा कला में नारी शृंगार के आभूषण, सजावटी वस्तुएँ व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को अलंकृत रूप दिया जाता है।
●थेवा कला पाँच सौ वर्षों से प्रतापगढ़ के सोनी परिवार तक ही सीमित है। यह परिवार इस कला को गोपनीय रखता है इसलिए परिवार की बेटियों को यह कला नहीं सिखाई जाती है।
● थेवा कला के प्रमुख कलाकार – जगदीश सोनी, महेश सोनी, रामप्रसाद सोनी, बेनीराम सोनी, रामविलास सोनी।
मीनाकारी
● जयपुर में मीनाकारी की कला, कच्छवाहा शासक मिर्जा राजा मानसिंह प्रथम (1589-1614 ई.) द्वारा लाहौर से लाई गई।
● लाहौर में यह कला मुगलों द्वारा फारस से लाई गई।
● जयपुर के साथ-साथ नाथद्वारा, बीकानेर में भी मीनाकारी का काम होता है।
● आभूषणों पर मीनाकारी के लिए जयपुर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है।
● जयपुर में मीनाकारी, सोने-चाँदी व ताँबे से निर्मित आभूषणों पर की जाती है।
● परंपरागत रूप से सोने पर मीनाकारी के लिए काले, नीले, नारंगी, गुलाबी, पीले रंग का प्रयोग किया जाता है।
● इस कला के लिए कुदरत सिंह को वर्ष 1988 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया।
● प्रसिद्ध कलाकार – दुर्गासिंह, काशीनाथ व कैलाशचंद्र।
● मीनाकारी की सबसे बड़ी मण्डी जैम्स एण्ड ज्वैलरी पार्क, सीतापुरा (जयपुर) है।
● ताँबे की मीनाकारी, भीलवाड़ा की प्रसिद्ध है।
उस्ता कला
● ऊँट की खाल पर स्वर्ण मीनाकारी और मुनव्वती का कार्य उस्ता कला के नाम से जाना जाता है।
● प्रमुख केंद्र – बीकानेर
● इस कला के लिए हिसामुद्दीन उस्ता को वर्ष 1986 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
● उस्ता कला के प्रमुख कलाकार- हनीफ उस्ता, जलीम उस्ता
● राजस्थान लघु उद्योग निगम उस्ता के नाम पर बीकानेर में ‘कैमल हाईड ट्रैनिंग सेंटर’ खोलकर इस कला को प्रोत्साहन दे रहा है।
मथैरणा कला
● किसी भी धार्मिक अथवा पौराणिक स्थल पर धार्मिक अथवा पौराणिक ग्रंथों का भित्ति चित्रण ‘मथैरणा कला’ कहलाती है।
● यह कला मुख्यत: जैन धर्म से संबंधित है।
● इस कला के कलाकार ‘उस्ताद’ कहलाते हैं।
● मथैरणा कला के प्रमुख उस्ताद- रामलाल, मुन्नालाल व हसन हैं।
वस्त्र पर हस्तकला
दाबू प्रिंट
● कपडे़ में रंगाई–छपाई के दौरान जिस जगह पर रंग नहीं चढ़ाना हो, उसे ‘लई या लुगदी’ से दबा दिया जाता है। यही लुगदी या लई जैसा पदार्थ दाबू कहलाता है।
● प्रमुख केंद्र - आकोला गाँव, चित्तौड़गढ़
● दाबू प्रिंट बेडशीट, चूँदड़ी, कपड़ों, साड़ियों आदि पर किया जाता है।
● इनकी रंगाई-छपाई मुख्यत: मुम्बई के सफेद लट्ठे पर की जाती है।
● सवाई माधोपुर में मोम का, बालोतरा में मिट्टी का तथा सांगानेर व बगरू में गेहूँ के बींधण का दाबू प्रसिद्ध है।
आजम प्रिंट
● प्रमुख केन्द्र - आकोला, चित्तौड़गढ़
जाजम प्रिंट
● प्रमुख केन्द्र - चित्तौड़गढ़
● गाड़िया लोहारों की महिलाओं के कपड़े इसी प्रिंट में बनाए जाते हैं।
बगरू प्रिंट
● प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है।
● बगरू प्रिंट, कपड़े पर बेल-बूँटों की छपाई हेतु प्रसिद्ध है।
● इसके प्रमुख कलाकार रामकिशोर छीपा है जिन्हें वर्ष 2009 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
सांगानेरी प्रिंट
● इस प्रिंट में काला और लाल रंगों का अधिक प्रयोग किया जाता है।
● मुन्नालाल गोयल ने सांगानेरी प्रिंट को देश-विदेश में भी लोकप्रिय बनाया।
● मलमली कपड़ों पर छपाई हेतु प्रसिद्ध है।
● छपाई कला का कार्य – गमछा, साफा, तकिया, दुपट्टा, ओढ़नी आदि पर किया जाता है।
● तैयार कपड़े पर भी विभिन्न रपकार की डिजाइनों की छपाई की जाती है, जिसमें धनिया, बैबून्दी, चक्र, अशर्फी आदि के छापे प्रमुख होते हैं।
अजरक प्रिंट
● मुख्य केंद्र - बाड़मेर
● इसकी दोनों तरफ से छपाई होती है। लाल और नीले रंगों में होती है और इसके अलंकरण ज्यामितीय होते हैं और काफी कुछ तुर्की शैली से मिलते-जुलते होते हैं।
● नीले रंग व ज्यामितीय अलंकरण का अधिक प्रयोग होता है।
● तुर्की शैली का अधिक प्रयोग होता है।
मलीर प्रिंट
● मुख्य केन्द्र - बाड़मेर
● काले व कत्थई रंग का अधिक प्रयोग होता है।
● मोम का दाबू – सवाई माधोपुर
मिट्टी का दाबू – बालोतरा (बाड़मेर)
● गेहूँ का दाबू – सांगानेर (जयपुर)
कोटा डोरिया या मसूरिया साड़ी
● प्रमुख केन्द्र – कैथून, कोटा व मांगरोल, बाराँ
● झाला जालिम सिंह इस कला के कलाकार मंसूर अहमद को हैदराबाद से लाए थे।
● मंसूर अहमद के नाम पर मसूरिया कला भी कहा जाता है।
● कैथून को बुनकरों का गाँव कहते हैं।
बंधेज
● बंधेज से आशय कपड़े को बाँधकर रंगना।
● यह कला बाँधों और रंगों (Tie & Die) के नाम से प्रसिद्ध है।
● बंधेज का कार्य करने वाले व्यक्ति को ‘बंधारा, चढ़ावा व रंगरेज’ कहा जाता है।
● बंधेज कार्य, जयपुर का प्रसिद्ध है।
● चूँदड़ी (ओढ़नी) और साफे पर बंधेज का कार्य प्रसिद्ध है।
● मनपसंद रंगों के डिजाइन प्राप्त करने के लिए कपड़े को बाँधकर फिर रंगा जाता है।
●बंधेज खोलने पर तरह-तरह के डिजाइन बन जाते हैं।
● जयपुर का लहरिया व पोमचा प्रसिद्ध है।
● बीकानेर का लहरिया व मोठड़ा प्रसिद्ध है।
मलयगिरि
● भूरे रंग के इस रंग को कई मिश्रणों से तैयार किया जाता था।
● इस रंग में रंगा हुआ वस्त्र वर्षों तक सुगंधित रहता था।
● जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय की अंगरखियाँ अभी तक सुगंधित है।
अमोवा
● एक रंग की रंगतों में खाकी से मिलती-जुलती रंगत अमोवा कहलाती है।
● इसका प्रयोग शिकारी लोग करते थे।
जसोल की जट पट्टी
● प्रमुख केन्द्र - जसोल गाँव, बाड़मेर
● जट पट्टी उद्योग को जिरोही, भाकला गंदहा के नाम से जाना जाता है।
गलीचे व दरियाँ
● प्रमुख केंद्र - जयपुर व अजमेर
● जयपुर और टोंक का गलीचा उद्योग प्रसिद्ध है।
● सूत और ऊन के ताने-बाने लगाकर लकड़ी के लूम पर गलीचे की बुनाई की जाती है।
● जयपुर के गलीचे गहरे रंग, डिजाइन और शिल्प कौशल की दृष्टि से प्रसिद्ध है।
● जयपुर व बीकानेर की जेलों में दरियाँ बनाई जाती है।
● राजस्थान में दरियाँ बनाने के प्रमुख केंद्र–
- सालावास गाँव (जोधपुर)
- टाँकला गाँव (नागौर)
- लवाण गाँव (दौसा)
● टाँकला गाँव सुन्दर, आकर्षक एवं मजबूत दरी निर्माण के लिए प्रसिद्ध है।
● जोधपुर, नागौर, टोंक, बाड़मेर, भीलवाड़ा, शाहपुरा, केकड़ी और मालपुरा भी दरी निर्माण के अन्य प्रमुख केन्द्र है।
पट्टु, बरड़ी, खेस
● जैसलमेर में बनने वाले कलात्मक ऊनी वस्त्र।
● यह ‘चौकला भेड़ (मेरिनो) की ऊन’ से तैयार की जाती है।
● यहाँ के पुरुषों के लिए हीरावल शॉल प्रसिद्ध है।
● जालोर के लेटा गाँव गुढ़ा बालोतान गाँव ‘खेसले’ की बुनाई के लिए प्रसिद्ध है।
रंगाई-छपाई का कार्य
टुकड़ी छपाई
● जालोर, मारोठ और नागौर टुकड़ी छपाई के लिए प्रसिद्ध है।
रेवड़ी या खड्ढी की छपाई
● लाल रंग की ओढ़नियों पर गोंद मिश्रित मिट्टी की छपाई की जाती है, इसके बाद लकड़ी के छापों द्वारा सोने-चाँदी के तलक की छपाई की जाती है।
● खड्ढी की छपाई के लिए जयपुर एवं उदयपुर प्रसिद्ध है।
रंगरेज
● वस्त्रों की रंगाई-छपाई करने वाला मुस्लिम कारीगर।
छींपा
● कपड़ों पर छपाई व रंगाई का कार्य करने वाले को ‘छींपा’ कहा जाता है।
नीलगर
● वैदिक काल में भी वस्त्रों को रंगना जानते थे, नील के रंग से वस्त्र रंगकर छपाई का काम करने वाले कारीगर नीलघर के नाम से प्रसिद्ध थे। सवाई जयसिंह द्वारा स्थापित कारखानों में सीवन खाना (कपड़े सिलना), रंग खाना, (कपड़े रंगना) व छापाखाना (कपड़े छापना) आदि प्रमुख कारखाने थे।
कढ़ाई
मुकेश
● सूती या रेशमी कपड़े पर बादले से छोटी-छोटी बिंदकी की कढ़ाई ‘मुकेश’ कहलाती है।
जरदोजी
● सुनहरे धागों से जो कढ़ाई का कार्य किया जाता है उसे ‘जरदोजी’ कहते हैं। इसमें सुनहरे तार का प्रयोग होता है उसे ‘कलाबत्तू’ कहते हैं।
कशीदाकारी
● कशीदाकारी कार्य, बाड़मेर-जैसलमेर जिलों की महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसके लिए बाड़मेर जिले की ‘रूमा देवी’ को राज्यस्तरीय पुरस्कार दिया गया।
पेचवर्क
● इसमें विभिन्न रंगों के छोटे-छोटे वर्गाकार अथवा तिकोनी आकृतियों के कपड़े काटकर उनकी आपस में सिलाई की जाती है जिसे पेचवर्क कहा जाता है।
गोटा
● सोने और चाँदी के परतदार तारों से वस्त्रों पर जो कढ़ाई का काम किया जाता है उसे गोटा कहते हैं।
● गोटे का काम जयपुर व बातिक का काम खण्डेला में होता है।
● लप्पा, लप्पी, किरण, बाँकड़ी, गोखरू, बिजिया, मुकेश, नक्शी आदि गोटे के प्रमुख प्रकार हैं।
● जयपुर का गुलाल गोटा देशभर में प्रसिद्ध है।
● खण्डेला, सीकर अपने गोटा उद्योग के लिए प्रसिद्ध है।
काष्ठ कलाकृतियाँ
● इस कला में लकड़ी से विविध प्रकार की कलात्मक वस्तुएँ बनाई जाती है।
● इस कला के प्रधान केन्द्र बस्सी, चित्तौड़गढ़ है। जहाँ पर लकड़ी के बेवाण, कावड़ तथा रंगाई-छपाई के ठप्पे तैयार किए जाते हैं।
● लकड़ी से निर्मित खिलौनों एवं कठपुतली निर्माण के लिए उदयपुर प्रसिद्ध है। लकड़ी की मूर्तियों के लिए जेठाना, डूँगरपुर तथा फर्नीचर के लिए शेखावाटी एवं बीकानेर प्रसिद्ध है।
कठपुतली
● उद्भव स्थल- राजस्थान
● नर्तक जाति - नट या भाट।
● कठपुतली निर्माण के केन्द्र - उदयपुर, चित्तौड़गढ़ व कठपुतली नगर (जयपुर)।
● कठपुतली के क्षतिग्रस्त होने पर इसे फेंका न जाकर जल में प्रवाहित कर दिया जाता है।
● वर्षा काल में कठपुतली का प्रदर्शन नहीं होता है।
● कठपुतलियाँ अरडू की लकड़ी की बनाई जाती हैं।
● स्व. श्री देवीलाल सामर के नेतृत्व में लोक कला मंडल, उदयपुर ने कठपुतली कला को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
● इस कला के विकास के लिए सन् 1968 में स्व. श्रीदेवीलाल सामर को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।
● प्रसिद्ध कठपुतली विषय– राजा विक्रमादित्य की सिंहासन बत्तीसी, पृथ्वीराज-संयोगिता, नागौर के अमरसिंह राठौड़ का खेल।
● चार प्रकार की कठपुतलियाँ हैं -
1. दस्ताना पुतली
2. छड़ पुतली
3. छाया पुतली
4. धागा या सूत्र पुतली
● कठपुतली कला का जनक देवीलाल सामर को माना जाता है।
● वर्ष 1965 में रूमानिया में आयोजित तृतीय अंतर्राष्ट्रीय कठपुतली समारोह में उदयपुर के भारतीय लोक कला मंडल के कलाकारों ने राजस्थान की इस कला में विश्व का प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर तहलका मचा दिया था।
कावड़
● मन्दिरनुमा काष्ठ कलाकृति, जिसमें कई कपाट (द्वार) होते हैं।
● इन कपाटों पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक एवं पौराणिक कथाओं से संबंधित देवी-देवताओं के मुख्य प्रसंग चित्रित होते हैं।
● कावड़ के चित्रों में राम जीवन की बहुलता के कारण इसे राम जी की कावड़ भी कहते हैं।
● यह एक चलता-फिरता देवघर है।
● कावड़ निर्माण के लिए चित्तौड़गढ़ का बस्सी गाँव प्रसिद्ध है।
● कावड़ पूरी लाल रंग से रंगी जाती है व उसके ऊपर काले रंग से पौराणिक कथाओं का चित्रांकन किया जाता है।
● कावड़ निर्माण खैरादी जाति द्वारा किया जाता है।
● मांगीलाल मिस्त्री कावड़ चित्रण के लिए प्रसिद्ध हैं।
बेवाण
● यह लकड़ी का छोटा-सा मंदिर होता है जिसे मिनिएचर वुड टेम्पल कहा जाता है।
● अनंत चतुर्दशी एवं देवझूलनी एकादशी को बेवाण निकालने की परम्परा सदियों से चली आ रही है।
खाण्डा (खांडे)
● होली के अवसर पर लकड़ी से निर्मित तलवारनुमा आकृति। राजस्थान में विवाह के बाद दुल्हन द्वारा दूल्हे के घर खांडे भेजने की परम्परा है।
चौपड़े
● विवाह एवं मांगलिक अवसरों पर कुंकुम, अक्षत आदि रखने हेतु प्रयुक्त लकड़ी का पात्र।
पातरे-तिपरणी
● श्वेताम्बर जैन साधु-सन्तों के प्रयोग में आने वाले लकड़ी के पात्र।
● पीपाड़ (जोधपुर) में विशेष रूप से खैरादी लोगों द्वारा बनाए जाते हैं।
तोरण
● विवाह के अवसर पर वधू के घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर लटकाई जाने वाली लकड़ी की कलाकृति जिसके शीर्ष पर मोर या तोता बना होता है।
● तोरण जाल, बेर या खेजड़ी की लकड़ी का बना होता है।
● वर वधू के घर में प्रवेश करने से पहले हरी डाली, तलवार, खांडे या गोटा लगी डंडी से स्पर्श करता है।
● तोरण शक्ति परीक्षण का प्रतीक माना जाता है। जयपुर का त्रिपोलिया बाजार तोरण निर्माण के लिए प्रसिद्ध हैं।
छापे
● कपड़े पर हाथ से छपाई करने में प्रयुक्त लकड़ी के छापे खैरादी जाति के लोग बनाते हैं।
बाजोट
● लकड़ी की चौकी जिसे भोजन या पूजा के समय प्रयुक्त करते हैं।
बादला
● बादले, पानी भरने के बर्तन जो जिंक से बने होते हैं और इन पर कपड़े या चमड़े की परत चढ़ाई जाती है।
● बादले, जोधपुर के प्रसिद्ध हैं।
● बादले में पानी लम्बे समय तक ठण्डा रहता है।
लाख का काम
● लाख का कार्य करने वाले व्यक्ति को ‘मणिहार’ कहा जाता है।
● लाख से बनी चूड़ियाँ ‘मोकड़ी/भोफड़ी’ कहलाती है।
● लाख के आभूषणों के लिए जयपुर एवं जोधपुर प्रसिद्ध है।
● लाख से चूड़ियाँ, पशु-पक्षी अन्य सजावटी उपकरण बनाए जाते हैं।
● जयपुर निवासी ‘अयाज अहमद’ का लाख का कार्य लोकप्रिय है।
● सवाई माधोपुर, लक्ष्मणगढ़ (सीकर) व इन्द्रगढ़ (बूँदी) लकड़ी के खिलौने व अन्य वस्तुओं पर लाख के काम के लिए प्रसिद्ध है।
● लाख से चूड़ियाँ, चूड़े पशु-पक्षी, पेंसिलें, पेन, काँच जड़े लाख के खिलौने, बिछियाँ आदि तैयार किए जाते हैं।
कुट्टी/पेपरमेशी का काम
● कुट्टी के काम के लिए जयपुर प्रसिद्ध है।
● महाराजा रामसिंह द्वितीय (1835 – 1880 ई.) के शासनकाल से जयपुर में कुट्टी का कार्य हो रहा है।
● कागज, चॉक, फेवीकोल, गोंद व मिट्टी के घोल से निर्मित लुगदी को ‘कुट्टी’ कहा जाता है।
● जाजम की छपाई के लिए चित्तौड़गढ़ प्रसिद्ध है।
● कुट्टी से चौपाये पशु और पक्षी बनाये जाते हैं।
मृण्य शिल्प या टेराकोटा
● मिट्टी से मूर्तियाँ, विभिन्न सजावटी व उपयोगी वस्तुएँ तैयार कर पकाना, टेराकोटा कहलाता है।
● इस कला से मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं।
● मिट्टी के बर्तन, खिलौने, ईंटें खेलू आदि बनाने का कार्य करने वाला व्यक्ति कुंभार या कुम्हार कहलाता है।
● मोलेला, राजसमंद के कुम्हार अपने टेराकोटा कार्य के लिए देश-विदेश में जाने जाते हैं।
● मोलेला तथा हरजी दोनों ही स्थानों में कुम्हार सिरेमिक जैसी मिट्टी में गधे की लीद मिलाकर मूर्तियाँ बनाते हैं व उन्हें उच्च ताप पर पकाते हैं।
● तीव्र लाल, सिन्दूरी, पीला, हरा नीला और कहीं-कहीं फिरोजी रंग इन मूर्तियों का आकर्षक और रहस्यमय रूप प्रदान करता है।
● जालोर के हरजी गाँव के कुम्हार मामाजी एवं गोगाजी के घोड़े बनाते हैं।
● बू-नरावतां गाँव, नागौर में मिट्टी के खिलौने, गुलदस्ते, गमले, पक्षियों की कलाकृतियों के काम के लिए प्रसिद्ध हैं।
● बसवा गाँव, दौसा का अपने मिट्टी के विविध प्रकार, आकार एवं चित्राकर्षण अलंकरण वाले बर्तनों के लिए जाना जाता है।
● यहाँ के मिट्टी के बर्तनों में पानी ठण्डा रखने के लिए कुंजा बड़ा प्रसिद्ध है।
● भरतपुर का मेहटोली गाँव अपनी मृत्तिका शिल्प के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के प्रेमसिंह प्रसिद्ध मृतिका शिल्पकार हैं।
● सवाईमाधोपुर के श्यामोता गाँव में कुम्हारों द्वारा बनाए जाने वाले मिट्टी के खिलौने एवं बर्तन बड़े प्रसिद्ध हैं।
जड़ाई
● सोने अथवा चाँदी के आभूषणों में नग/नगीना को जमाने की क्रिया।
● जड़ाऊ गहनों के लिए जयपुर, जोधपुर, बीकानेर एवं उदयपुर प्रसिद्ध है।
● नग/नगीना - आभूषणों पर जड़े जाने वाले मूल्यवान पत्थर।
● जड़िया – नगों की जड़ाई करने वाले कारीगर।
बरक
● मशीन से खींचकर अथवा हथौड़े से कूटकर सोने अथवा चाँदी को अत्यन्त पतले, झिल्ली के समान बनाए गए ‘पत्तर’ को बरक कहते हैं।
● बरक बनाने वाला ‘बरकसाज’ कहलाता है।
वर्क
● चाँदी के तार को हिरण की खाल के मध्य रखकर पीटने के पश्चात् बनने वाला बारीक पत्र के समान टुकड़ा वर्क या तबक कहलाता है।
● ‘वर्क’ का कार्य जयपुर का प्रसिद्ध है।
कलईगिरी
● कलई – ताँबा, पीतल आदि धातुओं के बर्तनों पर की जाने वाली चमक।
● कलईगर – कलई करने वाला कारीगर।
चमड़े की जूतियाँ
● जूती बनाने का काम रेगर, मोची और चमार करते हैं।
● छोटे बच्चों की घुण्डी और तसमें वाली जूतियाँ ‘खाल्या’ या ‘खोल्या’ कहलाती है।
राजस्थान के जी.आई. टैग |
1. बगरू हैंड ब्लॉक प्रिंट – जयपुर |
2. बीकानेर भुजिया – बीकानेर |
3. ब्लू पॉटरी – जयपुर |
4. मकराना संगमरमर – नागौर |
5. कोटा डोरिया – कोटा |
6. मोलेल मिट्टी कार्य – नाथद्वारा, राजसमंद |
7. फुलवारी – राजस्थान, पंजाब, हरियाणा |
8. सांगानेरी – प्रिंट – जयपुर |
9. थेवा कला – प्रतापगढ़ 10. सोजत – पाली |
लोक कलाएँ
फड़ चित्रण
● रेजी अथवा खादी के कपड़े पर लोक देवताओं की जीवन गाथाएँ, धार्मिक व पौराणिक कथाएँ व ऐतिहासिक गाथाओं के चित्रित स्वरूप को ही ‘फड़’ कहा जाता है।
● मोटे सूती कपड़े (रेजा) पर गेहूँ या चावल के मांड में गोंद मिलाकर कलफ पर पाँच या सात रंगों से बनी छह ग्रामीणों के सरलतम विवरणात्मक क्रमबद्ध कथन का सुंदर प्रतीक है।
● फड़ चित्रण का मुख्य केन्द्र - शाहपुरा (भीलवाड़ा)
● फड़ चित्रण का उद्गम मेवाड़ चित्रशैली के भित्ति चित्रण से माना जाता है।
● शाहपुरा (भीलवाड़ा) का जोशी परिवार फड़ चित्रण हेतु सम्पूर्ण देश में प्रसिद्ध है।
● श्रीलाल जोशी ने ‘फड़’ चित्रकला को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है।
● श्रीलाल जोशी को वर्ष 2006 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।
● श्रीलाल जोशी के शिष्य जयपुर निवासी प्रदीप मुखर्जी ने फड़ शैली में नये-नये प्रयोग कर महत्त्वपूर्ण पौराणिक आख्यानों (श्रीमद्भागवत, गीत-गोविन्द आदि) का चित्रण किया।
● वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फड़ कलाकार – विजय जोशी।
● श्रीमती पार्वती जोशी - कन्हैयालाल जोशी की पत्नी, जो देश की प्रथम फड़ चितेरी महिला हैं।
विशेषताएँ-
● फड़ चित्रण में लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है।
● फड़ कथा में मुख्य चरित्रों की वेशभूषा लाल एवं खलनायक की वेशभूषा हरे रंग की होती है।
● चित्र संयोजन में मुख्य आकृति को सबसे बड़ा बनाकर प्रधानता दी जाती है।
● फड़ का वाचन ‘भोपों’ द्वारा किया जाता हैं।
● चातुर्मास में फड़ का वाचन नहीं होता है क्योंकि देवता सो जाते हैं।
● पुन: देवउठनी ग्यारस (कार्तिक शुक्ल ग्यारस) से फड़ चित्रण का कार्य आरम्भ हो जाता है।
● फड़ का वाचन प्राय: मनौती के रूप में किसी अनिष्ट की आशंका को दूर करने हेतु सामूहिक रूप से प्राय: देवी-देवताओं से संबंधित तिथि पर ही किसी खुली जगह या चौपाल में पूर्ण आस्था व श्रद्धा के साथ होता है।
● फड़ ठंडी करना :- फड़ के फट जाने या जीर्णशीर्ण हो जाने पर पुष्कर सरोवर में विसर्जित कर दिया जाना। इस अवसर पर भोपे समाज में ‘सवामणी’ का आयोजन करते हैं।
● फड़ चित्र का वाचन भोपों द्वारा किसी विशेष वाद्य यंत्र की सहायता से किया जाता हैं।
पाबूजी की फड़-
● फड़ वाचक जाति- ‘नायक’ या ‘थोरी जाति’ के भोपे।
● वाद्य यंत्र- रावणहत्था।
● सबसे लोकप्रिय फड़।
● इस फड़ में मुख के सामने ‘भाले का चित्र’ होता है एवं युद्ध के दृश्यों का चित्रांकन आकर्षक होता है।
● पाबूजी की घोड़ी ‘केसर कालमी’ को काले रंग से चित्रित किया जाता है।
● इस फड़ का वाचन रात्रि में किया जाता है।
देवनारायण जी की फड़-
● फड़ वाचक जाति- गुर्जर जाति के भोपे।
● वाद्य यंत्र- जंतर
● यह फड़ सबसे लम्बी (24 हाथ लम्बी), सबसे पुरानी, सर्वाधिक चित्रांकन वाली एवं सर्वाधिक समय लगने वाली फड़ है।
● देवनारायणजी की फड़ में 335 गीत हैं। जिनका लगभग 1200 पृष्ठों में संग्रह किया गया है एवं लगभग 1500 पंक्तियाँ हैं।
● फड़ के मुख के सामने सर्प का चित्र होता है तथा इनकी घोड़ी ‘लीलागर’ को हरे रंग से चित्रित किया जाता है।
● इस फड़ का वाचन दो या दो से अधिक भोपों द्वारा रात्रि में किया जाता है।
● श्रीलाल जोशी द्वारा बनाई गई देवनारायणजी की फड़ पश्चिमी जर्मनी के एक संग्रहालय में रखी हुई है।
● भारतीय डाक विभाग ने वर्ष 1992 में देवनारायण जयन्ती के अवसर पर देवनारायण जी की फड़ पर 2 X 2 सेमी. के आकार में डाक टिकट जारी किया गया।
● देवनारायणजी की फड़ में नाट्य, गायन, मौखिक साहित्य, चित्रकला एवं लोकधर्म का अनूठा संगम मिलता है।
रामदेवजी की फड़-
● फड़ वाचक जाति- कामड़ जाति के भोपे।
● वाद्य यंत्र :- रावणहत्था।
● इस फड़ का सर्वप्रथम चित्रांकन चौथमल चितेरे ने किया।
● यह फड़ मेघवाल, कोली, चमार, बलाई तथा अन्य रामदेवजी की भक्त जातियों में प्रचलित है।
रामदला – कृष्णदला की फड़ :-
● फड़ वाचक जाति:- भाट जाति के भोपे।
● इस फड़ का वाचन बिना वाद्य यंत्र के किया जाता है।
● इस फड़ का सर्वप्रथम चित्रण धूलजी चितेरे ने किया था।
● यह फड़ राम व कृष्ण भगवान के प्रसंगों पर आधारित होती है।
● इस फड़ का वाचन सर्वाधिक हाड़ौती अँचल में होता है।
● इस फड़ का वाचन दिन में होता है।
भैंसासुर की फड़-
● यह फड़ ‘बावरी’ या ‘बागरी’ जाति के लोग रखते हैं जो चोरी के लिए जाते समय शगुन के रूप में पूजते हैं।
● इस फड़ का वाचन नहीं किया जाता है।
साँझी
● साँझी श्राद्धपक्ष (भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या) में बनाई जाती है।
● साँझी बनाने की परम्परा भगवान श्रीकृष्ण ने प्रारम्भ की थी।
● राजस्थान में साँझी बनाने की परम्परा वृंदावन से आई।
● कुँवारी लड़कियाँ साँझी को पार्वती मानकर अच्छे घर व वर के लिए कामना करती है।
● अंतिम पाँच दिनों में बड़े आकारों में साँझी बनाई जाती है जिसे कोट साँझी कहते हैं।
● नाथद्वारा के श्रीनाथ के मंदिर में ‘केले की साँझी’ (कदली पत्तों की साँझी) बनाई जाती है जो सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
● उदयपुर का मछन्दरनाथ मंदिर, साँझियों के लिए प्रसिद्ध है, उसका नाम ही ‘संझ्या मंदिर’ पड़ गया है।
● जयपुर के लाडली जी के मंदिर में श्राद्ध पक्ष में प्रतिदिन आकर्षक साँझी बनाई जाती है।
पाने
● राजस्थान में विभिन्न पर्व त्योहारों एवं मांगलिक अवसरों पर कागज पर बने देवी-देवताओं के चित्रों को प्रतिष्ठित किया जाता है, जिन्हें ‘पाने’ कहा जाता है।
● ये पाने सुख, समृद्धि व आनन्द के द्योतक माने जाते हैं।
● राजस्थान में लक्ष्मीजी, गणेशजी, राम-कृष्ण, श्रवण कुमार, श्रीनाथजी रामदेवजी, गोगाजी, देवनारायण जी के पाने प्रमुख हैं।
● श्रीनाथ जी का पाना सबसे अधिक कलात्मक है, जिसमें 24 शृंगारों का चित्रण हैं।
● घर में सुख-समृद्धि व विवाह के अवसर पर गणेशजी के ‘पाने’ का प्रयोग करते हैं। दीपावली पर लक्ष्मीजी का पाना प्रयोग में लाया जाता है।
● पानों में गुलाबी, लाल एवं काले रंग का मुख्यत: प्रयोग किया जाता है।
मांडणा
● मांडणा का अर्थ - चित्रित अथवा लिखित चित्र।
● माण्डणे अत्यन्त सरल, अमूर्त व ज्यामितीय शैली का सुंदर सम्मिश्रण हैं।
● ‘मांडणे’ श्री एवं समृद्धि के प्रतीक माने जाते हैं।
● सबसे छोटा मांडणा स्वस्तिक चिह्न होता है जो गणेशजी का प्रतीक है।
● ‘मांडणा’ मांगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा घर-आँगन को लीपपोत कर खड़िया, गेरू से अनामिका की सहायता से निर्मित किए गए ज्यामितीय अलंकरण है।
● विभिन्न क्षेत्रों में मांडणा के नाम -
उत्तरप्रदेश - सोन या चौक पूरना
गुजरात - सातियाँ
महाराष्ट्र - रंगोली
बंगाल - अल्पना
भोजपुरी - थापा
तेलुगु - मोगु
केरल - अत्तापु
तमिल - कोलम
बिहार - अरिपन
ब्रज - साँझा
ताम
● विवाह के समय लग्न मंडप में तैयार किया गया मांडणा।
चौकड़ी
● होली के अवसर पर बनाया गया मांडणा, जिसमें चार कोण होते हैं।
मोरड़ी
● दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में मीणा जनजाति की महिलाओं द्वारा घरों में बनाई जाने वाली मोर की आकृति का मांडणा।
पगल्या
● मांडणे को पूजा-पाठ के अवसर पर आराध्य देव के घर में पदार्पण की अभिलाषा में उनके पदचिह्नों को प्रतीक रूप में तथा उनके स्वागत हेतु घर के आँगन व पूजा के स्थान पर चित्रित किया जाता है।
● राजस्थान के मांडणों में इनका चित्रण सर्वाधिक होता हैं।
गोदना
● किसी तीखे औजार से शरीर की ऊपरी चमड़ी खोदकर उसमें काला रंग भरने से चमड़ी में पक्का निशान बन जाता है, जिसे गोदना कहा जाता है।
● गोदने की कला का आरम्भ भगवान श्रीकृष्ण ने किया था।
● गोदना सौंदर्य के साथ अंधविश्वासों से भी जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि अनगुदा शरीर असुरक्षित होता है।
● गोदने के अलंकरण जाति विशेष व रुचि पर आधारित होते हैं।
मेहंदी
● मेहंदी महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन की प्रमुख रचनाओं में गिना जाता है।
● राजस्थान में मेहंदी को सुहाग एवं सौभाग्य का शुभ चिह्न माना जाता है।
● राजस्थान में मेहंदी के लिए सोजत (पाली) प्रसिद्ध है।
पथवारी
● राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में पथवारी निर्माण की परम्परा सभी जगह दृष्टिगोचर मिलती है।
● गाँवों में पथरक्षक के रूप में पूजे जाने वाले स्थल को पथवारी कहा जाता है।
● पथवारी में एक ओर काला-गौरा भैरु जी एवं दूसरी ओर कावड़िया वीर (श्रवण कुमार) के चित्र होते हैं।
● तीर्थ यात्रा पर जाते समय तथा यहाँ से लौटकर आते समय इसकी पूजा की जाती है।
देवरे
● खुले चबूतरे पर निर्मित मंदिर, जिनकी आकृति त्रिकोणात्मक होती हैं।
● राजस्थान में विभिन्न क्षेत्रों में रामदेवजी, गोगाजी, भैरुजी, तेजाजी आदि के देवरे देखने को मिलते हैं।
थापे
● महिलाओं द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में विभिन्न त्योहार व उत्सवों पर परम्परागत रंगों द्वारा किया गया चित्रण ‘थापा’ कहलाता है।
● ‘थापों’ में राजस्थानी धर्म-संस्कृति के प्रतीक देवी-देवताओं के आदर्श स्वरूप परिलक्षित होते हैं।
पिछवाई
● श्रीनाथजी के स्वरूप के पीछे बड़े आकार के कपड़े के पर्दों पर किया गया चित्रण, ‘पिछवाई’ कहलाता है।
● यह नाथद्वारा चित्रशैली की मौलिक देन है।
● पिछवाई चित्रण का प्रमुख विषय ‘श्रीकृष्ण-लीला’ है।
बटेवड़े या थापड़ा
● सूखे उपलों (गोबर) को सुरक्षित रखने के लिए बनाई गई आकृतियाँ।
वील
● ग्रामीण अँचलों में महिलाओं द्वारा गृह सज्जा एवं दैनिक उपयोग की चीजों को सुरक्षित करने के लिए निर्मित मिट्टी की महलनुमा चित्रित कलाकृति। मेघवाल जाति की महिलाएँ इस कला में दक्ष होती हैं।
सोहरियाँ
● भोजन सामग्री रखने के मिट्टी के बने कलात्मक पात्र।
भराड़ी
● भील जनजाति में लड़की के विवाह पर घर की दीवार पर बनाया जाने वाला लोक देवी भराड़ी का मांगलिक चित्र।
● यह चित्र घर के जँवाई द्वारा चावल के विविध रंगों के घोल से बनाया जाता है।
घोड़ा बावसी
● मिट्टी के बने कलात्मक घोड़े, जिनकी आदिवासी भील, गरासियों में बड़ी मान्यता है।
● मनौती पूर्ण होने पर इन्हें पूजकर इष्ट देवता के चढ़ाया जाता है।
हीड़
● मिट्टी का बना हुआ पात्र, जिसमें ग्रामीण अँचलों में दीपावली के दिन बच्चे तेल व रूई के बिनौले जलाकर अपने परिजनों के यहाँ जाते हैं और बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
ठप्पा
● देवी-देवताओं की छाया को धातु पर उतारकर उनके छोटे-छोटे ठप्पे या फूल बनाना, जो गले में पहने जाते हैं।
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य :-
● नारियल की कलात्मक चूड़ियाँ (पट्टे) बनाने का काम भीलवाड़ा व कपासन (चित्तौड़गढ़) में होता है।
● जूट की गुड़ियाँ, पर्स, जूते आदि बनाने का काम दीनानाथ जी की गली जयपुर में होता है।
● हड्डियों की चूड़ियाँ, आभूषण एवं अन्य सजावटी सामान बनाने का कार्य जयपुर में होता है।
● अंता (बाराँ) में कण्ठियाँ (मालाएँ) बनाने का काम बहुतायत से होता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें