राजस्थान की संस्कृति एवं सामाजिक जीवन (रीति-रिवाज)
● भारत के दूसरे प्रदेशों से आकर बसने वाले लोगों के अतिरिक्त यहाँ की सभी जातियों के रीति-रिवाज मूलतः वैदिक परम्पराओं से संचालित होते आए हैं।
● राजस्थान के हर प्रसंग के लिए निश्चित रिवाजों में सरसता और उपयोगिता है, वह इसके सामाजिक जीवन की उच्च भावना की द्योतक है।
● राजस्थान के रीति-रिवाजों की सबसे बड़ी विशेषता उनका सादा व सरल होना है।
● सामन्ती व्यवस्था होने से राजस्थान के रीति-रिवाजों पर भी इनकी छाप रही है।
सोलह संस्कार
● संस्कार शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। वेद में इसका अर्थ धर्म की शुद्धता, पवित्रता लिया गया है।
● मीमांसा दर्शन के अनुसार संस्कार वह प्रक्रिया है, जिसके होने से कोई व्यक्ति या पदार्थ किसी कार्य के योग्य हो जाता है।'
● कुमारिल भट्ट के अनुसार 'संस्कार वे क्रियाएँ या रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं।' मनुष्य को आसुरी या पशुवृत्ति से ऊपर उठाकर दिव्य, दैवीय गुणों से युक्त बनाने के लिए जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु पर्यन्त, अर्थात् अगले जन्म की तैयारी तक सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गई है।
1. गर्भाधान संस्कार- माता-पिता 'हमें कैसी संतान चाहिए' इसका विचार कर उसके अनुरूप खान-पान, आचार-विचार एवं व्यवहार प्रारम्भ करते हैं तथा गर्भधारण की योग्यता, उसके अनुकूल मन: स्थिति, स्वास्थ्य एवं अनुकूल समय का विचार कर यह अनुष्ठान करते हैं।
2. पुंसवन संस्कार- निषेचन के उपरान्त बढ़ते हुए भ्रूण की स्वस्थ वृद्धि के लिए दूसरे या तीसरे माह में यह संस्कार होता है।
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार- गर्भस्थ शिशु के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की यह द्वितीय जाँच का संस्कार है, जो छठे या आठवें मास में होता है।
4. जात कर्म संस्कार- जन्म के उपरान्त नाल काटने तथा पिता द्वारा शिशु के स्वस्थ एवं मेधावी होने की प्रार्थना का संस्कार।
5. नामकरण संस्कार- आठ या दस दिन का होने पर जन्म के समय के ग्रहादि की स्थिति के अनुसार शिशु का गुणवाचक नाम रखने का संस्कार।
6. निष्क्रमण संस्कार - जन्म के चौथे महीने में पिता बच्चे को जच्चा गृह से बाहर लाता है ताकि वह सूर्य दर्शन करे एवं बाह्य वातावरण के अनुकूल हो सके।
7. अन्न प्राशन संस्कार- जन्म के छठे मास में उसे माँ के दूध के साथ अन्न का आहार देना प्रारम्भ करते हैं। इस संस्कार में उसे खीर खिलाते हैं तथा तीन मंत्र पढ़े जाते हैं, जिनका अर्थ है- हमें शान्ति मिले, भोजन का स्वाद मिले, सुगंधि का आनंद मिले।
8. चूड़ाकर्म संस्कार- लगभग एक वर्ष की आयु होने पर जन्म के समय के बालों का प्रथम मुण्डन किया जाता है।
9. कर्णवेध संस्कार- आँत्रवृद्धि आदि रोगों के निवारणार्थ एक्यूपंक्चर चिकित्सा का यह संस्कार है, जिसमें कानों का छेदन कर रजत या स्वर्णाभूषण पहनाते हैं।
10. विद्यारम्भ संस्कार- गुरुकुल में जाकर शिक्षा प्रारम्भ करने का संस्कार।
11. उपनयन संस्कार- इसे यज्ञोपवीत संस्कार भी कहते हैं। विद्याध्ययन आरम्भ की योग्यता तथा आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश के द्वार रूप यह संस्कार है। यज्ञोपवीत में तीन धागे पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण के स्मरण चिह्न हैं।
12. समावर्तन संस्कार- अध्ययन तथा ब्रह्मचर्याश्रम का समय पूरा होने के बाद गृहस्थ बनने से पूर्व होने वाला दीक्षान्त समारोह।
13. विवाह संस्कार - हिन्दू धर्म में विवाह अनुबंध या समझौता न होकर संस्कार है। गृहस्थ के कर्तव्यों के पालन की शपथ लेना है।
14. वानप्रस्थ संस्कार- गृहस्थ के कर्तव्य पूरे करने के पश्चात् समाज सेवा के कार्य की दीक्षा लेना।
15. संन्यास संस्कार- जीवन के अंतिम काल में चिंतन, मनन और लोक कल्याण के लिए जीते हुए संन्यास ग्रहण करते समय किया जाने वाला संस्कार।
16. अन्त्येष्टि संस्कार- सांसारिक जीवन का अवसान मृत्यु में और संस्कारों की समाप्ति विधि-विधान से देह को अग्नि को समर्पित करने की क्रिया अन्त्येष्टि संस्कार में होती है।
जन्म संबंधी रीति-रिवाज
● गर्भाधान- नवविवाहित स्त्री के गर्भवती होने की जानकारी मिलते ही उत्सवों का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा मंगल गीत गाए जाते हैं।
● पंचमासी- यह एक प्रकार से पुंसवन संस्कार है जिसमें गर्भवती महिला का 5 माह का गर्भधारण का समय पूरा हो जाता था, तब गर्भ की सुरक्षा हेतु देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी।
● आठवाँ पूजन- गर्भवती स्त्री के गर्भ को जब सात मास पूर्ण हो जाते हैं तो आठवें मास में आठवाँ पूजन महोत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर प्रीतिभोज का भी आयोजन किया जाता है।
● जन्म- यदि लड़के का जन्म होता है तो घर की बड़ी औरत ‘काँसे की थाली’ बजाती है तथा लड़की के जन्म पर ‘सूप’ बजाया जाता है। जन्म के बाद परिवार की वृद्ध महिला बच्चे को जन्म-घुट्टी पिलाती है।
● आख्या- बच्चे के जन्म के आठवें दिन बहनें आख्या करती हैं तथा सखिया (मांगलिक चिह्न) भेंट करती हैं।
● दसोटण- जोधपुर राजघराने में पुत्र जन्म के बाद 10वें दिन अशौच शुद्धि के अवसर पर किया जाने वाला समारोह।
● सुहावड़- मारवाड़ की परम्परा अनुसार प्रसूता को सौंठ, अजवाइन, घी-खांड के मिश्रण के लड्डू बना कर खिलाए जाते हैं, इसे सुहावड़ कहा जाता है।
● आगरणी- गर्भ धारण के आठ महीने बाद अगरणी पर गर्भवती महिला की माता बेटी के लिए घाट (ओढ़नी) व मिठाई (विशेषकर घेवर) भेजती थी।
● जामणा- पुत्र जन्म पर नाई बालक के पगल्ये (सफेद वस्त्र पर हल्दी से अंकित पद चिह्न) लेकर उसके ननिहाल जाता है। तब उसके नाना या मामा उपहार स्वरूप वस्त्राभूषण, मिठाई लेकर आते हैं, जिसे ‘जामणा‘ कहा जाता है।
● सुआ- इस संस्कार के अन्तर्गत बच्चे के जन्म के बाद सारे घर की शुद्धि की जाती है। जच्चा के घर को सुआ कहते हैं।
● न्हावण या न्हाण- प्रसूता का प्रथम स्नान व उस दिन का संस्कार।
● सतवाड़ौ- प्रसव के सातवें दिन का प्रसूता द्वारा किया गया स्नान।
● पनघट पूजन- बच्चे के जन्म के कुछ दिनों उपरान्त ‘कुआँ पूजन’ की रस्म मनाई जाती है। इस प्रथा को ‘कुआँ पूजन’ या ‘जलवा पूजन‘ भी कहते हैं। इस अवसर पर घर, परिवार और मोहल्ले की स्त्रियाँ, बच्चे की माँ को लेकर देवी-देवताओं के गीत गाती हुई कुएँ पर जाती हैं। कुएँ पर जल पूजा भी की जाती है।
● ढूँढ- बच्चे के जन्म के बाद प्रथम होली पर ननिहाल पक्ष की ओर से उपहार, कपड़े, मिठाई व फूल भेजे जाते हैं।
● गोद लेना- इस रस्म का उद्देश्य वंश चलाना होता है। किसी दम्पती के संतान नहीं होने पर वह अपने रिश्तेदारों अथवा अपने किसी संबंधी की संतान को गोद ले कर अपनी ही संतान की तरह उसका पालन-पोषण करते एवं अधिकार प्रदान करते हैं।
विवाह संबंधी रीतिरिवाज
● सम्बन्ध तय करना- सामान्यत: संबंध माता-पिता द्वारा तय किए जाते हैं तथा संबंधी,मित्र, पुरोहित अथवा नाई मध्यस्थ का कार्य करते हैं।
● सगाई- किसी लड़की के विवाह हेतु लड़का निश्चित करना। इस रिवाज के अनुसार लड़के के घर नारियल व रुपया आदि भेजते हैं। वागड़ क्षेत्र में इसे ‘सपगण’ अथवा ‘टेवलिया’ कहते हैं। राजपूतों में वर के पिता द्वारा अफीम अथवा केसर घोलकर उपस्थित सभी लोगों की मनुहार की जाती है, इसे ‘सगाई का अमल या दस्तूर’ कहा जाता है।
● टीका- सगाई के बाद वर का पिता अपने निकट संबंधियों व परिजनों को आमंत्रित करता है। इस अवसर पर वधू पक्ष वाले वर को चौकी पर बिठा कर उसका तिलक (टीका) कर अपने सामर्थ्यानुसार उसे भेंट प्रदान करते हैं।
● सिंझारा- श्रावण कृष्ण तृतीया पर्व के दिन कन्या या वधू के लिए भेजा जाने वाला सामान सिंझारा कहलाता है।
● चिकणी कौथली- सगाई के बाद वर को मुख्य रूप से गणेश चतुर्थी पर तथा वधू को छोटी तीज, बड़ी तीज व गणगौर पर उपहार भेजे जाते हैं।
● सावौ- विवाह का शुभ मुहूर्त।
● पीली चिट्ठी- सगाई के पश्चात् विवाह तिथि तय करवाकर कन्या पक्ष की ओर से वैवाहिक कार्यक्रम एक कागज में लिखकर एक नारियल के साथ वर के पिता के पास भिजवाया जाता है। इसे लग्न पत्रिका या सावाभी कहते हैं।
● गणपति पूजन- विवाह से कुछ दिन पूर्व वर एवं वधू दोनों ही पक्ष वाले अपने घरों में गणेशजी की स्थापना करते हैं, ताकि विवाह संबंधी सम्पूर्ण कार्य मंगलपूर्ण तरीके से सम्पन्न हो सके। इस अवसर पर गणेशजी को घर के एक कक्ष में बिठाया जाता है।
● कुंकुम पत्रिका- विवाह कार्यक्रम हेतु यह दोनों पक्षों द्वारा छपवाई जाती है। राजस्थान में इसकी प्रथम प्रति रणथम्भौर स्थित त्रिनेत्र गणेशजी अथवा अन्य किसी गणेश मन्दिर में भेजने का रिवाज है।
● इकताई- इसमें वर-वधू की शादी के जोड़े का दर्जी नाप लेता है।
● रीत- विवाह निश्चित होने पर लड़के वालों की तरफ से लड़की को भेजे जाने वाले उपहार।
● मुगधणा - विवाह में भोजन पकाने के लिए काम में ली गई लकड़ियाँ।
● बान या पाट या बाने बिठाना- विवाह के तीन, पाँच, सात या ग्यारह दिन पूर्व लग्न पत्र पहुँचने के पश्चात् वर और वधू के परिवार वाले अपने घरों में वर-वधू को चौकी पर बिठाकर गेहूँ, आटा, घी तथा हल्दी के घोल को इनके बदन पर मलते हैं जिसे पीठी करना कहते हैं। इस क्रिया को ‘बान बिठाना‘ तथा वर या वधू को मेहमान अपनी सामर्थ्य के अनुरूप रुपये देते हैं जिसे बान देना कहते हैं। बान बिठाने के बाद वर अथवा वधू घर से बाहर नहीं जाते हैं।
● कांकनडोरा बाँधना- विवाह के पूर्व वर व वधू के हाथ में बाँधा गया लाल मोली का धागा कांकनडोरा बाँधना कहा जाता है। इस डोरे में मोरफली, लाख व लोहे के छल्ले पिरोए जाते हैं। एक कांकन डोरा वर के दाहिने हाथ पर बाँधा जाता है और दूसरा डोरा वधू को भेजा जाता है।
● परणेत- विवाह से संबंधित गीत।
● बत्तीसी नूतना या भात नूतना- इसमें वर तथा वधू की माता अपने पीहर वालों को निमंत्रण देने व पूर्ण सहयोग की कामना प्राप्त करने जाती है।
● मायरा या भात- लड़की के विवाह के समय ननिहाल पक्ष द्वारा अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार धन देना।
● बनौला या बंदौला- बनौला से तात्पर्य आमंत्रित करना है। इस प्रथा के अन्तर्गत परिवार के सभी लोग बनौला देने वाले के यहाँ खाना खाते हैं। बनौला परिवार के रिश्तेदार या मित्र देते हैं।
● निकासी या बिन्दोरी- विवाह से एक दिन पूर्व वर या वधू को घोड़ी पर बिठाकर गाजे-बाजे के साथ गाँव या कस्बे में घुमाया जाता है। इसे निकासी या बिन्दौरी कहते हैं। इसमें वर या वधू के मित्र, परिचित एवं रिश्तेदार सम्मिलित होते हैं। वर मंदिर में जाकर देवी-देवताओं की पूजा करता है। इसके बाद वर वधू को किसी मित्र या परिचित के घर पर ठहरा देते हैं। निकासी के बाद वर-वधू को लेकर ही वापस अपने घर जाता है।
● बाग पकड़ाई- दूल्हे की घोड़ी की लगाम पकड़ने का नेग।
● बांनौ- विवाह की रस्म प्रारम्भ करने का प्रथम दिन।
● सांकड़ी की रात- विवाह से संबंधित रस्म। इसमें बरात विदा होने से एक दिन पहले रात को ‘मेल की गोठ’ होती है।
● रोड़ी पूजन- इसमें रातिजोगा के दूसरे दिन बरात रवाना होने के पूर्व स्त्रियाँ वर को घर के बाहर कूड़े-कचरे की रोड़ी या थेपड़ी पूजने के लिए ले जाती हैं।
● जानोटण- वर पक्ष की ओर से दिया जाने वाला भोज।
● लडार- कायस्थ जाति में विवाह के छठे दिन वधू पक्ष की ओर से वर पक्ष को दिया जाने वाला भोज।
● बरात- निर्धारित तिथि को वर पक्ष के मित्र, रिश्तेदार एवं परिचित लेकर वधू पक्ष के घर के लिए प्रस्थान करते हैं। जहाँ बरात को डेरे (निश्चित स्थल) पर ठहराया जाता है। इस अवसर पर सामेला की रस्म अदा की जाती है। सामेला के बाद वर अपने मित्रगणों एवं परिजनों के साथ बरात को लेकर वधू के घर पर जाता है। आर्थिक दृष्टि से संपन्न लोग बरात में हाथी, ऊँट को भी सजाकर शामिल करते हैं।
● ढुकाव- वर जब घोड़ी पर बैठकर वधू के घर पहुँचता है तो वह ढुकाव कहलाता है।
● कुँवारी जान का भात- बरात का स्वागत करने के पश्चात् बरात को करवाया जाने वाला भोजन।
● टूँटिया- बरात रवाना होने के बाद वर पक्ष के यहाँ स्त्रियों द्वारा विवाह का स्वांग रचना व हँसी-ठिठोली करना टूंटिया कहलाता है। इस रस्म का प्रारंभ श्रीकृष्ण-रुक्मणी के विवाह से माना जाता है।
● मांडा झाँकना- दामाद का पहली बार ससुराल आना।
● सामेला या मधुपर्क या ठुमावा- जब बरात वधू के यहाँ पहुँचती है तो वर पक्ष से नाई और ब्राह्मण बरात के आने की सूचना वधू पक्ष को देता है। बदले में उसे उचित पारितोषिक दिया जाता है। तत्पश्चात् वधू पक्ष वाले बरात की अगवानी (स्वागत) करते हैं जिसे सामेला या ठुमाव या मधुपर्क कहते हैं।
● बरी पड़ला- वर पक्ष वधू के लिए पोशाक और आभूषणों को लेकर आता है, उसे बरी कहते हैं। पड़ला उसके साथ ले जाने वाले मेवे तथा मिठाइयाँ आदि को कहा जाता है। जब वर पक्ष बरात लेकर आता है तो बरी पड़ला अपने साथ लेकर जाता है। बरी में दी जाने वाली पोशाक को वधू विवाह (फेरों) के समय पहनती है।
● पड़जान- राजपूत समुदाय में बरात के वधू के घर पहुँचने पर वधू के भाई या संबंधी द्वारा बरात का आगे आकर स्वागत करना।
● तोरण मारना- विवाह के अवसर पर दूल्हे द्वारा दुल्हन के घर के मुख्य द्वार पर लटके तोरण पर छड़ी लगाना तोरण मारना कहलाता है। तोरण मारना एक प्रकार से वर की शूरवीरता की परीक्षा करना भी रहा है।
● सुहागथाल- भोजन का थाल जिसमें कुछ सुहागिन स्त्रियाँ, नवविवाहित वधू के साथ भोजन करती है।
● जेवड़ौ- तोरण पर सास द्वारा दूल्हे को आँचल से बाँधने की रस्म।
● झाला-मिला की आरती- तोरण द्वार पर सास अथवा बुआ सास द्वारा की जाने वाली विशेष प्रकार की मांगलिक आरती।
● बिनोटा- दूल्हा – दुल्हन की जूतियाँ।
● कन्यावल- विवाह के दिन वधू के माता-पिता व भाई-बहनों द्वारा किया जाने वाला उपवास, कन्यावल कहलाता है।
● वधू के तेल चढ़ाना- बरात आने के बाद वधू के अन्तिम बार पीठी की जाती है और तेल चढ़ाया जाता है। तेल चढ़ाने के बाद विवाह होना जरूरी है।
● फेरे- फेरों को सप्तपदी भी कहते हैं। यह विवाह की सबसे महत्त्वपूर्ण रस्म होती है। इस रस्म के अनुसार वर अपनी वधू का हाथ अपने हाथ में लेकर (हथलेवा जोड़ना) अग्नि के चारों ओर घूमकर सात फेरे लेता है। पंडित या पुरोहित मांगलिक मंत्रों का उच्चारण करता है। सात फेरों के माध्यम से यह विश्वास किया जाता है कि वर-वधू सात जन्मों तक इस बंधन को निभाते रहेंगे। फेरों के बाद पंडित वर-वधू से वचन निभाने का आश्वासन लेता है।
● कन्यादान- इस रस्म के अनुसार वधू के माता-पिता वधू का हाथ वर के हाथ में देते हैं। इस समय पंडित वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए वधू के माता-पिता से कन्यादान का संकल्प लेता है। वर, कन्या की जिम्मेदारी निभाने का वचन देता है।
● बासी मुजरा (पेसकारा)- विवाह के दूसरे दिन जहाँ बरात ठहराई जाती है वहाँ से वर पुनः वधू के यहाँ नाश्ता करने आता है, इस अवसर पर मांगलिक गीत गाए जाते हैं।
● जेवनवार- वधू के घर पर बरात को चार जेवनवार (भोज) करवाने का रिवाज है।
● सीख (भेंट)- राजस्थान में विवाह के बाद वर-वधू एवं बरातियों को सीख देकर विदा किया जाता है।
● ऊझणौ (ओझण)- वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को दिए जाने वाले राशि एवं उपहार।
● मांमाटा- विवाह में कन्या की सास के लिए भेजी जाने वाली भेंट जिसमें नगद, मिठाई एवं सोने/चाँदी की एक कटोरी भेजी जाती है।
● पहरावणी- बरात विदा करते समय प्रत्येक बराती तथा वर-वधू को यथा शक्ति धन दिया जाता है। इसे पहरावणी की रस्म, समठणी या रंगबरी कहते हैं। पहले सभी बरातियों को पगड़ी पहनाई जाती थी। इसलिए इसे ‘पहरावणी’ कहा जाता था। विदाई के समय वर-वधू पक्ष के लोग एक-दूसरे को रंग/गुलाल लगाते हैं, इसलिए इसे ‘रंगबरी’ भी कहा जाता है। यह अंतिम वैवाहिक रस्म होती है, जो वधू पक्ष के घर पर संपन्न होती है। इसके बाद वधू अपने ससुराल चली जाती है।
● मुकलावा या गौना- विवाहित अवयस्क कन्या को वयस्क होने पर उसे अपने ससुराल भेजना ‘मुकलावा‘करना या ‘गौना‘कहलाता है। वर्तमान में परिपक्व अवस्था में विवाह होने के कारण गौना विवाह के साथ ही कर दिया जाता है।
● विदाई- इसमें वर और वधू के वस्त्रों के छोर परस्पर बाँधे जाते हैं और दोनों की अँगुलियों में चावल के दाने रखे जाते हैं। वधू के परिवार की स्त्रियाँ वधू को विदा करने के लिए विदाई गीत गाती हैं जिसे ‘कोयलड़ी‘ गीत कहते हैं।
● पैसरो- विवाह के बाद दूल्हे के घर के आँगन में सात थालियों की कतार को दूल्हे द्वारा तलवार से इधर-उधर सरकाना और दुल्हन द्वारा जेठानी के साथ मिलकर संग्रह करने की रस्म।
● हथबौलणो- नव आगंतुक वधू का प्रथम परिचय।
● जुआ-जुई- विवाह के दूसरे दिन खाने के पश्चात् दोपहर को एक बर्तन में जल और दूध भरकर वर-वधू के सामने रखकर उसमें पैसा/अँगूठी डाल दी जाती है। वर या वधू में से जिसके हाथ में अँगूठी आ जाती है वही विजयी माना जाता है।
● बढ़ार- यह विवाह के दूसरे दिन वर पक्ष द्वारा अपने रिश्तेदारों व मित्रगणों को दिया जाने वाला भोज है जिसे आजकल आशीर्वाद समारोह तथा अंग्रेजी में रिसेप्शन (Reception) कहते हैं।
● बरोटी- विवाह के बाद वधू के स्वागत में किया जाने वाला भोज।
● हीरावणी- विवाह के समय नववधू को दिया जाने वाला कलेवा।
● ननिहारी- राजस्थान में पिता द्वारा बेटी को विवाह के बाद प्रथम बार विदा करवाकर लाने की परम्परा ‘ननिहारी’ कहलाती है।
● रियाण- पश्चिमी राजस्थान में विवाह के दूसरे दिन अफीम द्वारा मेहमानों की मान-मनवार करना ‘रियाण‘कहलाता है।
● खोल्याँ- शेखावाटी के ठिकानों के कामदार मुसलमान थे। इनके यहाँ विवाह के समय ससुराल में वधू को ‘खोल्याँ‘रखने का एक दस्तूर होता है। वधू को ससुराल के किसी व्यक्ति के ‘खोल्याँ‘ रखकर अर्थात् गोद में रख उसे पिता बना देते हैं। इसका उद्देश्य यह है कि ससुराल में वह उसे अपनी बेटी के समान ध्यान से रखे।
● सोटा सोटी- शादी के बाद वर-वधू नीम की छड़ियों से गोल-गोल घूमकर ‘सोटा सोटी का खेल’ खेलते हैं।
● विड़द खेहटियौ विनायक- विवाह के अवसर पर प्रतिष्ठित की जाने वाली विनायक की मिट्टी की मूर्ति।
● छात- विवाह में नाई द्वारा किए जाने वाले दस्तूर विशेष पर दिया जाने वाला नेग।
● बालाचूनड़ी- मामा द्वारा वधू की माता के लिए लाई गई ओढ़नी।
● कँवरजोड़- मामा द्वारा वधू (भाणजी) के लिए लाई गई ओढ़नी।
● बयाणौ या बिहांणा- विवाह के समय प्रात:काल में गाए जाने वाले गीत।
● खोल या छोल- विवाह के बाद दुल्हन की झोली भरने की रस्म।
● जात देना- विवाह के दूसरे दिन वर व वधू गाँव में अपने देवी-देवताओं के स्थान पर प्रसाद चढ़ाकर धोक देते हैं, इसे जात देना कहते हैं।
मृत्यु संबंधी रीति-रिवाज
● बैकुण्ठी- मृत व्यक्ति के शरीर को बाँस अथवा लकड़ी की शैय्या पर श्मशान घाट ले जाया जाता है उसे ‘अर्थी’ या ‘बैकुण्ठी’ कहा जाता है। बैकुण्ठी पर लेटाते समय सिर, उत्तर दिशा में तथा पाँव, दक्षिण दिशा में रखे जाते हैं। बैकुण्ठी ले जाते समय उसे जो कँधा देते हैं उन्हें काँधिया कहते हैं।
● बखेर अथवा उछाल- वृद्ध (विशेषत:) व्यक्ति की मृत्यु होने पर श्मशान ले जाते समय राह में पैसे बिखेरना।
● दंडोत- बैकुंठी के आगे मृत व्यक्ति अथवा महिला के बच्चे, पोते आदि दंडवत प्रणाम करते हुए चलते हैं।
● पिंडदान- शव को श्मशान ले जाते समय प्रथम चौराहे पर पिंडदान किया जाता है। आटे से बना पिंड, गाय को खिलाया जाता है। अर्थी को चार व्यक्ति कँधा देते हैं जिसे कँधा देना कहते हैं।
● आधेटा- घर और श्मशान तक की यात्रा के बीच में चौराहे पर बैकुण्ठी की दिशा परिवर्तन की जाती है। यह क्रिया आधेटा कहलाता है।
● लांपा- अन्त्येष्टि की क्रिया हेतु अग्नि की आहूति सबसे बड़ा बेटा अथवा निकट के भाई द्वारा की जाती है जिसे लौपा या लांपा कहते हैं।
● अंत्येष्टि- श्मशान में शव को लकड़ी से बनाई गई चिता पर रख दिया जाता है। मृतक का पुत्र तीन परिक्रमा करने के बाद चिता को मुखाग्नि देता है। कपाल फटने के बाद मृतक का पुत्र एक बाँस पर कटा नारियल बाँधकर उसमें घी भरकर मृतक की कपाल पर उड़ेल देता है। इस रस्म को ‘कपाल क्रिया’ कहते हैं।
● सांतरवाड़ा- जब तक मृतक की अन्त्येष्टि क्रिया न हो जाए तब तक घर व पड़ोस में चूल्हे नहीं जलाए जाते हैं। अन्त्येष्टि में गए व्यक्ति स्नान आदि कर मृत व्यक्ति के घर जाते हैं, जहाँ घर का मुखिया उनके प्रति आभार प्रकट करता है। सांतरवाड़ा रस्म के तहत मृत्यु के पश्चात् 12 दिन तक किसी स्थान पर ‘तापड़’ बिछा कर बैठा जाता है।
● भदर- किसी की मृत्यु हो जाने की स्थिति में शोक स्वरूप अपने बाल, दाढ़ी, मूँछ इत्यादि कटवा लेना ‘भदर’ कहलाता है।
● फूल एकत्र करना- मृत्यु के तीसरे दिन मृतक के परिजन श्मशान घाट जाकर चिता की राख में से मृतक की अस्थियाँ चुन कर एक मिट्टी के कलश में इकट्ठा करते हैं, जिन्हें लाल वस्त्र में रखते हैं। इसे ‘फूल चुगना’ कहते हैं। इसके बाद परिवार के कुछ सदस्य कलश में एकत्र अस्थियों को गंगा, पुष्कर या अन्य किसी जलाशय में बहा देते हैं।
● तीये की बैठक- मृत्यु के तीसरे दिन शाम को तीये की बैठक होती है, जो लोग शव यात्रा में नहीं जा पाते हैं, वो तीये की बैठक में भाग लेकर संवेदना व्यक्त करते हैं। बैठक में पुरोहित मृत आत्मा की शांति के लिए शांति पाठ करता है। बैठक में सम्मिलित होने वाले समस्तजन, स्वर्गीय शांति व्यक्ति के चित्र पर पुष्प अर्पित करते हैं और मृतक की आत्मा की के लिए दो मिनट का मौन रखकर प्रार्थना करते हैं।
● मौसर- राजस्थान में मृत्यु भोज की प्रथा है। इसे ‘मौसर’, ‘औसर’ या ‘नुक्ता’ कहते हैं। मृतक के निकटतम संबंधी अपने संबंधियों व ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं। यह क्रम 12 दिन तक जारी रहता है। जीते जी मृत्यु भोज करवाना ‘जोसर’ कहलाता है। आदिवासियों का मृत्यु भोज कोंधिया कहलाता है।
● मूकांण - मृतक के पीछे उसके संबंधियों के पास संवेदना प्रकट करने जाना।
● डांगड़ी रात - तीर्थादि से लौटकर करवाया जाने वाला रात्रि जागरण।
● दोवणियां - मृतक के 12वें दिन घर की शुद्धि हेतु जल से भरे जाने वाले मटके।
● पगड़ी- मौसर के दिन ही मृत व्यक्ति के बड़े पुत्र को उसके उत्तराधिकारी के रूप में पगड़ी बाँधी जाती है।
● रंग बदलना- किसी के पिता की मृत्यु होने पर उसके परिवार के सभी पुरुष सदस्य सफेद साफे बाँधते हैं और 12वें दिन उत्तराधिकारी के ससुराल से गुलाबी रंग के साफे लाए जाते हैं जो पूरे कुटुम्ब में वितरित किए जाते हैं। सफेद साफे उतार कर उसके स्थान पर गुलाबी साफे बाँधने की यह परम्परा ‘रंग बदलना’ कहलाती है।
● महीने का घड़ा- व्यक्ति की मृत्यु के एक माह पश्चात् उसके परिवार द्वारा किया जाने वाला यज्ञ व दान।
● छमाही- व्यक्ति की मृत्यु के छह माह पश्चात् उसके परिवार द्वारा किया जाने वाला यज्ञ व दान।
● बारह माह का घड़ा- व्यक्ति की मृत्यु के एक वर्ष पश्चात् उसके परिवार द्वारा किया जाने वाला यज्ञ व दान।
● श्राद्ध- भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक सोलह दिनों का श्राद्ध पक्ष होता है। श्राद्ध, उसी तिथि को किया जाता है जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई थी।
● ओख- इस प्रथा के अन्तर्गत जब किसी परिवार में त्योहार के अवसर पर कोई मृत्यु हो जाती है तो पीढ़ी दर पीढ़ी उस त्योहार को नहीं मनाया जाता है।
● आदि श्राद्ध- मृत्यु के पश्चात् मृतक के पीछे ग्यारहवें दिन किया जाने वाला श्राद्ध, आदि श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध, उसी तिथि को किया जाता है, जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई थी।
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