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आपदा प्रबंधन एवं जलवायु परिवर्तन

आपदा प्रबंधन एवं जलवायु परिवर्तन

●   उपजाऊ एवं अमरुस्थलीय भूमि का क्रमिक रूप से शुष्क प्रदेश अथवा मरुस्थल में परिवर्तित हो जाने की प्रक्रिया ही मरुस्थलीकरण कहलाती है।

●   मरुस्थलीकरण एक प्राकृतिक परिघटना है जो जलवायवीय परिवर्तन या दोषपूर्ण भूमि उपयोग के कारण होती है।

●   यह क्रमबद्ध परिघटना है जिसमें मानव द्वारा भूमि उपयोग पर दबाव के परिवर्तन होने से पारितंत्र का अवनयन होता है।

●   मरुस्थलीकरण स्थायी प्रकृति का होता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार अविवेकपूर्ण मानवीय क्रियाओं ने 1.30 करोड़ वर्ग क्षेत्रफल पर मरुस्थलीय भूमि पैदा कर दी है।

●   पृथ्वी सम्मेलन (रियो), 1992 के अनुसार, मरुस्थलीकरण एक प्रक्रम है जो जलवायु के उतार-चढ़ाव मानवीय क्रियाओं और जैवीय क्रियाओं द्वारा शुष्क, अर्द्ध शुष्क एवं उपआर्द्र क्षेत्रों में बढ़ता है।

●   मरुस्थलीकरण की समस्या सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है।

●   संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत परिभाषा के अनुसार जलवायु परिवर्तन एवं मानवीय क्रिया कलापों के द्वारा ऊसर, अर्द्ध-ऊसर एवं शुष्क उपार्द्र क्षेत्रों में भूमि अवनयन मरुस्थलीकरण कहलाता है।

मरुस्थलीकरण का प्रभाव :-

●   मरुस्थलीकरण आज विश्व भर में एक विकराल समस्या के रूप में उभरा है। प्राचीन काल में अनेकों सभ्यताओं के विनाश के लिए मरुस्थलीकरण एवं सूखा प्रमुख कारण थे। मरुस्थलीकरण का प्रभाव जलवायु, मृदा, सभी प्राणी जगत तथा पर्यावरण पर पड़ता है।

मरुस्थल के कारण :-

1. निर्वनीकरण

2. वनोन्मूलन

3. अनियंत्रित पशुचारण

4. भू-क्षरण

5. संसाधनों का अतिदोहन

6. मृदा अपरदन

7. निरन्तर सूखा पड़ना

8. जनसंख्या वृद्धि

9. जलवायु कठोरता (उच्च तापमान, न्यूनतम वर्षा)

10. जलवायु परिवर्तन

11. भू-जल स्तर में गिरावट

12. निरन्तर वर्षा का कम होना

13. वायु अपरदन

14. संसाधनों का अतिदोहन

15. औद्योगिक कचरा

16. उच्च वायुदाब का क्षेत्र होना

17. वनस्पति विनाश

18. जल प्लावन

19. मिट्टी की लवणीयता व क्षारीयता

मरुस्थलीकरण रोकने के उपाय:-

1. शुष्क कृषि प्रणाली

2. वृक्षारोपण

3. अनियंत्रित पशुचारण पर रोक

4. वृक्षों की कटाई पर रोक

5. निर्वनीकरण पर रोक

6. कृषि में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग न करते हुए सूक्ष्म सिंचाई को बढ़ावा देना

7. अवैध खनन पर रोक

8. बूँद-बूँद सिंचाई, खड़ीन पद्धति

9. भूमि संरक्षण

10. ऊर्जा के अन्य साधनों का विकास

11. पशु संख्या पर नियंत्रण

12. वनस्पति को बढ़ावा

13. जल का विदोहन, उपयोग व प्रबंधन संतुलित हो

14. बेहतर भूमि उपयोग, नियोजन एवं प्रबंधन

15. जनसंख्या नियंत्रण

16. जल का समुचित उपयोग

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य :-

●   UNCCD एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो पर्यावरण एवं विकास के मुद्दों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी है।

●   मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCCD) की स्थापना वर्ष 1994 में की गई।

●   प्रत्येक वर्ष 17 जून को ‘विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस’ मनाया जाता है।

●   मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए ‘संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन (UNCCD)’ का गठन किया गया है।

●   भारत UNCCD का हस्ताक्षरकर्ता है।

●   मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेशन (UNCCD) के अनुसार विश्व भर में 3.2 अरब लोग मरुस्थलीकरण से नकारात्मक रूप से प्रभावित है।

●   मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन (UNCCD) के अनुसार विश्व भर के 100 से ज्यादा देशों ने 2030 तक 450 मिलियन हैक्टेयर से अधिक भूमि पर क्षरण को कम करने का संकल्प लिया है।

●   भारत में स्थित मरुस्थल का लगभग 61.11 प्रतिशत   क्षेत्र राजस्थान में विद्यमान है जिसके अंतर्गत राजस्थान के 12 जिले आते हैं।

●   मरुस्थलीकरण प्रमुखत: अतिचारण, अति हलन, अनुचित मृदा एवं प्रबंधन और भूमि प्रदूषण द्वारा ही प्रारंभ एवं प्रोत्साहित होता है।

ऑपरेशन खेजड़ा :-

●   मरुस्थल विकास को रोकने के लिए सरकार द्वारा वर्ष 1991 में प्रारंभ किया गया अभियान।

मरु विकास कार्यक्रम :-

●   वर्ष 1977-78 में केन्द्र सरकार की 100 प्रतिशत सहायता से प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य मरुस्थल के विस्तार को रोकना है।

केन्द्रीय मरु क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) :-

●   वर्ष 1959 में जोधपुर में स्थापना की गई। काजरी मरुस्थल के प्रसार को रोकने तथा वहाँ कृषि की उपज में वृद्धि से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के लिए शोध कार्य सम्पन्न करता है।

सूखा एवं अकाल :-

●   सूखा – भारतीय मौसम विभाग (I.M.D.) के द्वारा सूखे को दो भागों में विभक्त किया गया है–

      1. सामान्य सूखा – वर्षा का औसत वर्षा से 25 प्रतिशत कम बारिश का होना।

      2. प्रचण्ड सूखा में वर्षा का 50 प्रतिशत से भी कम बारिश का होना।

●   सूखे को मुख्यत: तीन भागों में विभक्त किया गया है–

      1. कृषि संबंधी सूखा

      2. जल विज्ञान संबंधी सूखा

      3. मौसम विज्ञान संबंधी सूखा।

●   भारत सरकार के सिंचाई आयोग ने 10 सेमी. से कम वार्षिक वर्षा वाले भागों को शुष्क क्षेत्र माना है।

●   राज्य में अकाल के तीन रूप स्पष्ट होते हैं–

      1. अन्न का अकाल

      2. चारे व अन्न का अकाल (द्विकाल)

      3. चारा, अन्न एवं पानी का अकाल (त्रिकाल)

●   राजस्थान वर्तमान स्वरूप में आने के बाद केवल वर्ष 1959-60, 1973-74, 1975-76, 1976-77, 1990-91, 1994-1995 को छोड़कर राजस्थान में किसी न किसी रूप से अकाल की स्थिति रही हैं।

●   राजस्थान में अकाल का मुख्य कारण वर्षा की अनिश्चितता एवं अनियमितता है।

●   1987 का अकाल बीसवीं सदी का सबसे भयंकर अकाल था। इस अकाल ने त्रिकाल का रूप धारण कर लिया था।

●   राजस्थान में अकाल के कुछ प्रमुख उदाहरण है-

-     1783 ई. (वि. सम्वत् 1840) में चालीसा अकाल,

-     1812-13 में पंचकाल,

-     1842-43 ई. (वि. सवत् 1899-1900) पड़े विनाशकारी अकाल को ‘सहसा मुदसा’ कहा गया।

-     1899-1900 (विक्रम संवत् 1956) का छप्पनिया अकाल।

राज्य में सूखे एवं अभाव की स्थिति के प्रमुख कारण निम्न हैं-

1. प्राकृतिक कारण:- प्राकृतिक स्वरूप एवं जलवायु, मरुस्थलीय स्वरूप, रेतीली एवं बालुका स्तूपयुक्त, पश्चिमी मरुस्थलीय धरातल तथा उच्च तापमान एवं कम वर्षा तथा आँधियाँ, पश्चिमी हवाओं, ताप क्रमीय विभेदन, कम आर्द्रता एवं अधिक वाष्पीकरण के कारण सूखा-अकाल रहता है।

2. आर्थिक कारण:- आर्थिक विकास की कमी, आधारभूत संरचनात्मक ढाँचे की कमी, जनसंख्या का दबाव, सिंचाई, विद्युत, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन आदि सुविधाओं की कमी; उद्योगों का अभाव, बेरोजगारी एवं कृषकों की कम आमदनी, चारागाहों की कमी आदि सूखा-अकाल के प्रमुख कारण हैं।

3. सामाजिक कारण:- वन-विदोहन, अनियंत्रित पशुचारण, अति पशुचारण, वन, जल एवं प्राकृतिक संसाधनों के पूर्ण विदोहन अकाल के कारण हैं।

सूखा-समस्या  संकट:- 

   प्राकृतिक आपदा के अन्तर्गत सूखे से सबसे बड़ा संकट अकाल के रूप में उपस्थित होता है, जल की उपलब्धता जितनी कम होती है, अकाल उतना ही विकराल रूप धारण करता है।

●   सूखे के कारण अकाल के तीन रूप स्पष्ट होते हैं यथा-

1.  प्रथम यदि वर्षा इतनी कम हुई है कि फसलें बर्बाद हो गई है तथा अन्न का उत्पादन पर्याप्त नहीं हो पा रहा है तो वह अन्न का अकाल कहा जाता है।

2.  द्वितीय यदि वर्षा इतनी कम हुई है कि न तो पर्याप्त अन्न हुआ है न ही पर्याप्त चारे का उत्पादन हुआ है तो वह अन्न व चारे दोनों का अकाल कहलाता है। इसे ‘द्विकाल’ भी कहते हैं।

3.  तृतीय यदि वर्षा इतनी कम हुई कि न तो अन्न उपजा है, न चारा व न ही पीने के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध है तो इसे त्रिकाल कहते हैं।

राजस्थान में अकाल/अभाव की स्थिति

कृषिवर्ष

प्रभावित

जिलोंकी

संख्या

प्रभावित

ग्रामोंकी

संख्या

प्रभावित

जनसंख्या

(लाखोंमें)

भू-राजस्व

निलम्बित

(लाख रु. में)

1981-82

26

23246

200.12

646.15

1991-92

30

30041

289.00

325.87

2001-02

18

7964

69.70

45.84

2002-03

32

40990

447.80

429.26

2003-04

3

649

5.82

8.80

2004-05

31

19814

227.65

167.77

2005-06

22

15778

198.44

123.21

2006-07

22

10529

136.73

39.49

2007-08

12

4309

56.12

39.86

2008-09

12

7402

100.12

47.69

2009-10

27

33464

429.13

459.04

2010-11

2

1249

13.67

9.53

2011-12

11

3739

49.95

30.77

2012-13

12

8030

120.90

65.44

2013-14

17

10225

159.38

101.44

2014-15

13

5841

74.30

15.35

2015-16

19

14487

194.87

171.55

2016-17

13

5656

90.38

62.00

2017-18

16

6838

106.50

89.37

2018-19

9

5555

72.50

14.85

2019-20

21

14331

150.72

2020-21

06

2062

21.62

2021-22

10

6122

74.28

2022-23

1*

92

2.36

2023-24

13

5110

58.69

Economic Review, 2023-2024

@ का अर्थ है संभावित

सूखे से निपटने के दीर्घकालीन उपायविकास एवं रोजगारपरक योजनाएँ:-

1.  मरुभूमि विकास कार्यक्रम:-

●   मरु विकास कार्यक्रम राजस्थान में 1977-78 में शुरू किया गया।

2. सूखा-संभावित क्षेत्र कार्यक्रम:-

●   इस कार्यक्रम का उद्देश्य सूखा संभावित क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था को सुधारना। इसके लिए भूमि व जल संसाधनों का बेहतरीन उपयोग किया गया है।

3. हरियाली परियोजना (2003):-

●   हरियाली परियोजना का उद्देश्य पेयजल समस्या का निवारण, सिंचाई हेतु जल की व्यवस्था, जल संग्रहण योजनाओं का क्रियान्वयन वर्षा जल का संचयन, वृक्षारोपण तथा मत्स्यपालन का प्रोत्साहन आदि।

4. मरुगोचर योजना (2003-04)

●   इस योजना का प्रमुख उद्देश्य राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्रों में जल स्रोतों का विकास और सूखे की समस्या के समाधान के लिए नर्सरी और चारागाह का विकास करना।

5. कंदरा सुधार कार्यक्रम 

●   यह योजना 1987-88 से संचालित है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य बीहड़ क्षेत्र में भूमि की घटती उत्पादक क्षमता को पुन: प्राप्त करना और बीहड़ व कंदराओं के विस्तार को रोकना।

●   यह राज्य के आठ दस्यु जिलों-धौलपुर, भरतपुर, करौली, सवाई माधोपुर, झालावाड़, बाराँ, बूँदी एवं कोटा में चलाया जा रहा हैं।

6. बंजर भूमि एवं चारागाह विकास बोर्ड (2016)

●   राज्य में बंजर भूमि एवं चारागाह विकास बोर्ड का गठन राज्य सरकार के आदेश 22 दिसम्बर, 2016 के तहत किया गया। 

●   बंजर भूमि विकास बोर्ड का पुनर्गठन 11 फरवरी, 2022 को किया गया।

●   राज्य के आठ चयनित जिले – कोटा, बाराँ, बूँदी, झालावाड़, जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर व बीकानेर हैं।

सूखा एवं अकाल के प्रभाव को कम करने के सुझाव :-

●   उपग्रह सर्वेक्षण द्वारा भू-जल अभाव क्षेत्रों का पता लगाकर उनके अविवेकपूर्ण दोहन पर रोक लगाना चाहिए।

●   सिंचाई सुविधाओं का विस्तार करना।

●   राहत कार्यों में जनसहभागिता सुनिश्चित करना।

●   वार्षिक योजना में नियमित प्रावधान की अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिए।

●   ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का विकास करना।

●   कृषि वानिकी व चारागाह भूमि विकास को प्रोत्साहन एवं शुष्क व मिश्रित कृषि को प्रोत्साहन देना।

आपदा प्रबन्धन :-

●   राजस्थान में सूखा व अकाल से निपटने हेतु सहायता विभाग की स्थापना सन् 1951 में की गई। अक्टूबर, 2003 से सहायता विभाग का नाम बदलकर आपदा प्रबंधन एवं सहायता विभाग कर दिया गया।

●   आपदा प्रबंधन एवं सहायता विभाग का मुख्यालय जयपुर में है।

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 :-

●   राजस्थान में इस अधिनियम को 1 अगस्त, 2007 से लागू किया गया।

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य :-

●   वर्ष 2002-03 में राजस्थान में सूखा प्रभावित जिलों की संख्या सर्वाधिक थी।

●   त्रि-काल का संबंध चारा, भोजन एवं जल की कमी से है।

●   UNCCD  का संबंध मरुस्थलीकरण की रोकथाम से है, जो रोकथाम के लिए एकमात्र अन्तर्राष्ट्रीय बाध्यकारी समझौता है।

●   मरुस्थलीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केन्द्र (DMRC) जोधपुर में स्थित है।

जलवायु परिवर्तन:-

·    जलवायु परिवर्तन भारत के प्राकृतिक पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और समाज को बढ़ी हुई आवृत्ति और तीव्रता के साथ प्रभावित कर रहा है। लू, बाढ़, मानसून और घटता भूजल भंडार कुछ चरम चुनौतियाँ हैं जिनका प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है। 

·    जलवायु परिवर्तन के कारण निम्नलिखित हैं-

-     खेती या मकान बनाने के लिए वृक्षों की लगातार कटाई।

-     तेजी से शहरीकरण और औद्योगीकरण।

-     तीव्र जनसंख्या वृद्धि।

-     जीवाश्म ईंधन का दहन।

-     प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन।             

·    जलवायु परिवर्तन के कारण निम्नलिखित प्रभाव पड़ सकते है-

-     वार्षिक औसत वर्षा में वृद्धि का अनुमान है।

-    बढ़ते तापमान और वर्षा से हिमनद झील के फटने से बाढ़ और मोराइन-बांधित झीलों पर भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ सकती हैं।

-     स्नोलाइन ऊँचाइयाँ बढ़ेंगी और ग्लेशियरों की मात्रा घटेगी।

-    क्षेत्रीय औसत समुद्र स्तर में वृद्धि जारी रहेगी।

-    शहरों में अधिक गर्मी के कारण तनाव, शहरी बाढ़, समुद्र के स्तर में वृद्धि के कारण लवणता का प्रवेश और चक्रवात जैसे अन्य जलवायु-प्रेरित खतरों का अनुभव करेंगे। 

-    बढ़ती गर्मी की स्थिति के कारण जंगल में आग लगने की घटनाएं बढ़ सकती हैं।

-    जनसंख्या के मामले में भारत वैश्विक स्तर पर सबसे कमजोर देशों में से एक है जो समुद्र के स्तर में वृद्धि से प्रभावित होगा। (प्रभावित होने वाले शहर: मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, गोवा, कोचीन और पुरी सहित अन्य)

-    मक्का सहित खाद्य फसलों की उत्पादकता प्रभावित होगी।

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