भूकंप एवं ज्वालामुखी : प्रकार, वितरण एवं उनका प्रभाव
(Earthquakes and Volcanoes : Types, Distribution and their Impact)
भूकम्प (Earthquake) -
भूकम्प भू-पृष्ठ पर होने वाला आकस्मिक कंपन है जो भूगर्भ में चट्टानों के लचीलेपन या समस्थिति के कारण होनेवाले समायोजन का परिणाम होता है। यह प्राकृतिक व मानवीय दोनों ही कारणों से हो सकता है। भूकंप आने के पहले वायुमंडल में ‘रेडॉन’ गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। अतः इस गैस की मात्रा में वृद्धि का होना उस प्रदेश विशेष में भूकंप आने का संकेत होता है।
जिस जगह से भूकंपीय तरंगें उत्पन्न होती हैं उसे ‘भूकंप मूल’ (Focus) कहते हैं तथा जहाँ सबसे पहले भूकंपीय लहरों का अनुभव किया जाता है उसे भूकंप अध्केन्द्र (Epi Centre) कहते हैं। यह भूकंप मूल के ठीक ऊपर भूपर्पटी पर स्थित होता है।
भूकंप के इस दौरान जो ऊर्जा भूकम्प मूल से निकलती है, उसे ‘प्रत्यास्थ ऊर्जा’ (Elastic Energy) कहते हैं। भूकंप के दौरान कई प्रकार की भूकंपीय तरंगें (Seismic Waves) उत्पन्न होती हैं जिन्हें तीन श्रेणियों में रखा जा सकता हैः-
(i) प्राथमिक अथवा लम्बात्मक तरंगें (Primary or Longitudinal): इन्हें ‘P’ तरंगें भी कहा जाता है। ये अनुदैर्ध्य तरंगें हैं एवं ध्वनि तरंगों की भांति चलती हैं। तीनों भूकंपीय लहरों में सर्वाधिक तीव्र गति इसी की होती है। यह ठोस के साथ-साथ तरल माध्यम में भी चल सकती है, यद्यपि ठोस की तुलना में तरल माध्यम में इसकी गति मंद हो जाती है। ‘S’ तरंगों की तुलना में इसकी गति 40% अधिक होती है।
(ii) अनुप्रस्थ अथवा गौण तरंगें (Secondary or Transverse Waves): इन्हें ‘S’ तरंगें भी कहा जाता है। ये प्रकाश तरंगों की भांति चलती हैं। ये सिर्फ ठोस माध्यम में ही चल सकती है, तरल माध्यम में प्रायः लुप्त हो जाती है। चूंकि ये पृथ्वी के क्रोड से गुजर नहीं पाती, अतः ‘S’ तरंगों से पृथ्वी के क्रोड के तरल होने के संबंध में अनुमान लगाया जाता है।
(iii) धरातलीय तरंगें (Surface or Long Period Waves): इन्हें ‘L’ तरंगें भी कहा जाता है। ये पृथ्वी के ऊपरी भाग को ही प्रभावित करती है। ये अत्यधिक प्रभावशाली तरंगें हैं एवं सबसे अधिक लंबा मार्ग तय करती है। यद्यपि इनकी गति काफी धीमी होती है और यह सबसे देर में पहुँचती है परंतु इनका प्रभाव सबसे विनाशकारी होता है।
P, S व L तरंगों का पथ एवं पृथ्वी की आंतरिक संरचना
भूकम्पमूल की गहराई के आधार पर भूकम्पों को तीन वर्गों में रखा जाता हैः (1) सामान्य भूकम्प- 0-50 कि.मी. (2) मध्यवर्ती भूकम्प- 50-250 कि.मी. (3) गहरे या पातालीय भूकम्प- 250-700 कि.मी.। जिन संवेदनशील यंत्रों द्वारा भूकम्पीय तरंगों की तीव्रता मापी जाती है उन्हें ‘भूकम्प लेखी’ या ‘सीस्मोग्राफ’ (Seismograph) कहते हैं, इसके तीन स्केल (Scale) हैं-
1. रॉसी - फेरल स्केल (Rossy Feral Scale): इसके मापक 1 से 11 रखे गए थे।
2. मरकेली स्केल (Mercall Scale): यह अनुभव प्रधान स्केल है। इसके 12 मापक हैं।
3. रिक्टर स्केल (Richter Scale): यह गणितीय मापक है, जिसकी तीव्रता 0 से 9 तक होती है और प्रत्येक बिन्दु दूसरे बिन्दु की तीव्रता का 10 गुना अधिक तीव्रता रखता है।
समान भूकम्पीय तीव्रता वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को ‘समभूकम्पीय रेखा’ या ‘भूकम्प समाघात रेखा’ (Isoseismal Lines) कहते हैं। एक ही समय पर आने वाले भूकम्पीय क्षेत्रों को मिलाने वाली रेखा होमोसीस्मल लाइन (Homoseismal Lines) कहलाती है।
भूकम्पों का विश्व वितरण : विश्व में भूकम्पों का वितरण उन्हीं क्षेत्रों से संबंधित है जो अपेक्षाकृत कमजोर तथा अव्यवस्थित हैं। भूकम्प के ऐसे क्षेत्र मोटे तौर पर दो विवर्तनिकी घटनाओं से संबंधित है- (1) प्लेट के किनारों के सहारे तथा (2) भ्रंशों के सहारे।
विश्व में भूकम्प की कुछ विस्तृत पेटियाँ इस प्रकार हैः
- प्रशान्त महासागरीय तटीय पेटी (Circum Pacific Belt): यह विश्व का सबसे विस्तृत भूकम्प क्षेत्र है जहाँ पर सम्पूर्ण विश्व के 63% भूकम्प आते हैं। इस क्षेत्र में चिली, कैलिफोर्निया, अलास्का, जापान, फिलीपींस, न्यूजीलैंड आदि आते हैं। यहाँ भूकम्प का सीधा संबंध भूपर्पटी के चट्टानी संस्तरों में भ्रंशन तथा ज्वालामुखी सक्रियता से है।
- मध्य महाद्वीपीय पेटी (Mid-continental Belt) :इस पेटी में विश्व के 21% भूकम्प आते हैं। इसमें आने वाले अधिकांश भूकम्प संतुलनमूलक तथा भ्रंशमूलक हैं। यह पट्टी केपवर्डे से शुरू होकर अटलांटिक महासागर, भूमध्यसागर को पारकर आल्प्स, काकेशस, हिमालय जैसी नवीन पर्वतश्रेणियों से होते हुए दक्षिण की ओर मुड़ जाती है और दक्षिणी पूर्वी द्वीपों में जाकर प्रशान्त महासागरीय पेटी में मिल जाती है। भारत का भूकम्प क्षेत्र इसी पेटी के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है।
- मध्य अटलांटिक पेटी (Mid-Alantic Belt) : यह मध्य अटलांटिक कटक में स्पिटबर्जन तथा आइसलैंड (उत्तर) से लेकर बोवेट द्वीप (दक्षिण) तक विस्तृत है। इनमें सर्वाधिक भूकम्प भूमध्यरेखा के आसपास पाए जाते हैं।
- अन्य क्षेत्र : इसमें पूर्वी अफ्रीका की लंबी भू-भ्रंश घाटी, अदन की खाड़ी से अरब सागर तक का क्षेत्र तथा हिन्द महासागर की भूकम्पीय पेटी सम्मिलित की जाती है।
सुनामी (Tsunami): स्यू-ना-मी जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है तट पर आती समुद्री लहरें। ये बहुत लंबी व कम कंपन वाली समुद्री लहरें हैं जो महासागरीय भूकंपों के प्रभाव से महासागरों में उत्पन्न होती हैं। सुनामी लहरों के साथ जल की गति संपूर्ण गहराई तक होती है, इसलिए ये अधिक प्रलयकारी होती हैं। सुनामी लहरों की दृष्टि से प्रशांत महासागर सबसे खतरनाक स्थिति में है। महासागरीय प्लेटों के अभिसरण क्षेत्र में ये सर्वाधिक शक्तिशाली होती है। इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में 26 दिसंबर, 2004 को हिंद महासागर के तली के नीचे उत्पन्न सुनामी लहरें भारतीय प्लेट के बर्मी प्लेट के नीचे क्षेपण का परिणाम थी। भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 8.9 थी जिसके कारण प्रलयकारी सुनामी लहरों की उत्पत्ति हुई। इंडोनेशिया, मलेशिया, श्रीलंका व भारत समेत कुल 11 देश इन लहरों की चपेट में आए। भारत में तमिलनाडु का नागपट्टनम जिला सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र था।
अक्टूबर, 2007 को भारत ने विश्व की सबसे आधुनिक सुनामीचेतावनी प्रणाली प्रारंभ की है। इस प्रणाली से मिलने वाली जानकारी भारत पड़ोसी देशों को भी देगा। यह प्रणाली भूकम्प की तीव्रता गहराई और केन्द्र बताएगी। हिन्द महासागर में हर तरह की भूकम्पीय हलचल को सिर्फ 20 मिनट में आकलन कर यह प्रणाली निकटवर्तीय क्षेत्रों में सूचना उपलब्ध करा देगी। यह प्रणाली भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केन्द्र हैदराबाद में लगाई जाएगी।
भारत के भूकंपीय क्षेत्र व आपदा प्रबंधन
हिमालय का पर्वतीय भाग एवं उत्तर का मैदानी भाग भूकंप की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र है क्योंकि भारतीय प्लेट, यूरेशियन प्लेट को निरंतर धक्का दे रही है। इसलिए यह भाग भू-संतुलन की दृष्टि से काफी अस्थिर है एवं अक्सर यहाँ पर भूकंप आते रहते हैं। पिछली एक सदी में इस क्षेत्र में अनेक बड़े भूकंप आ चुके हैं जिनमें आसाम, कांगड़ा, बिहार व नेपाल, उत्तरकाशी में आए भूकंप शामिल हैं।
हाल के वर्षों में दक्षिणी प्रायद्वीपीय पठार, जो कि सामान्यतः भू-गर्भीय रूप से स्थिर समझा जाता रहा है एवं भूकंप के कम संभावित प्रदेशों के अंतर्गत आता है, वहाँ भी भूकंप आ गया है। इस संदर्भ में वर्ष 1993 में महाराष्ट्र के लातूर भूकंप का उदाहरण लिया जा सकता है। इससे प्रायद्वीपीय पठार के भू-गर्भीय स्थिरता की अवधारणा को झटका लगा। अब यह माना जाने लगा है कि भारत का कोई भी प्रदेश, भूकंप रहित नहीं है, क्योंकि भारतीय प्लेट के उत्तरी खिसकाव के कारण एवं उससे उत्पन्न दबाव जनित बल से पठारी भाग के आंतरिक भागों में ऊर्जा तरंगों का प्रभाव बढ़ा है। जब यह ऊर्जा बाहर विनिर्मुक्त होने का प्रयास करता है तो भारतीय प्लेट में भ्रंश निर्माण की स्थितियाँ बनती हैं यही कारण है कि भूगर्भिक रूप से स्थिर भारतीय प्लेट में भी अनेक भ्रंश उत्पन्न हो गए हैं, जहाँ बड़े भूकंप आने की आशंका रहती है। सन् 2001 में कच्छ के भुज क्षेत्र में आए भूकंप का मुख्य कारण, इसका सर्वाधिक भूकंप संभावित क्षेत्र (Zone V) में बसा होना है। साथ ही इस क्षेत्र में छोटे-छोटे प्लेटों के अंतरा-प्लेटीय गतिविधियों के कारण दबावजनित बल उत्पन्न होता रहता है। इस भ्रंश क्षेत्र में बसे होने से और भारतीय प्लेट के उत्तरी खिसकाव के कारण भ्रंशों में फैलाव होने से यहाँ अत्यधिक तीव्रता का भूकंप आया। जिसकी तीव्रता रिएक्टर स्केल पर 6.9 थी।
मानवीय प्रभाव के कारण भी कई बार भूकंप आ जाते हैं। बड़े बाँध, समस्थिति जनक बल उत्पन्न करते हैं जिनसे जल-संग्रहण क्षेत्र में या उसके आस-पास भूकंप आने की आशंका बढ़ जाती है। वर्ष 1967 में महाराष्ट्र के कोयना में आया भूकंप इसका उदाहरण है। कई बार परमाणुविक परीक्षण के कारण भी भूकंप आते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क निर्माण करते समय चट्टानी संरचना का ध्यान नहीं रखने के कारण भी भू-स्खलन व भूकंप की घटनाएँ बढ़ी हैं। भारत में भूकंप के संबंध में पर्याप्त सुरक्षोपाय नहीं होने के कारण रिक्टर स्केल पर कम तीव्रता के भूकंप भी जान-माल की अति क्षति करते हैं। जहाँ जापान में सामान रूप से रिक्टर स्केल 7 तीव्रता के भूकंप भी अधिक हानि की स्थिति उत्पन्न नहीं करते वहीं भारत में 5 से अधिक तीव्रता के भूकंप भी गंभीर संकट उत्पन्न कर देते हैं। अवैज्ञानिक निर्माण कार्य तथा कच्चे व उपस्तरीय मकानों का निर्माण भूकंप के कारण उत्पन्न होने वाले संकट को बढ़ा देते हैं जिससे जन-धन की काफी हानि होती है। भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान, बेंगलुरु के प्रो. विनोद कुमार गौड़ का यह सुझाव रहा है कि सभी भूकंपीय संभावना वाले क्षेत्रों में आपदा के वैज्ञानिक मूल्यांकन की आवश्यकता हैं। इन क्षेत्रों में भूमि उपयोग एवं विविध तरह के निर्माण कार्यों में भूकंप की आशंका एवं उसके खतरे को कम करने के लिए पर्याप्त ध्यान दिया जाना नियोजन करना अपेक्षित हैं। जनजागरूकता व शैक्षिक अभियानों के द्वारा भूकंप के प्रति लोगों को सचेत किया जा सकता है। अग्रिम चेतावनी द्वारा सघन क्षेत्रों को तुरंत खाली कराया जा सकता है एवं यातायात संचार व शक्ति प्रणालियों को बंद किया जा सकता है। भूकंप विज्ञान में सेंसर डिजॉयनिंग, टेलीमैट्री ऑन लाइन कंप्यूटिंग व बेहतर संचार जैसे नवीन विकासों को वैज्ञानिक उपयोग कर भूकंप से होने वाली जान-माल की हानि को कम किया जा सकता है। यद्यपि देश में ऐसी कोई प्रणाली नहीं है, जिसके आधार पर भूकंप की पूर्व सूचना मिल सके, पर अब कुछ शोधों से भूकंप आने से पूर्व की स्थिति का आकलन करना संभव हो रहा है। हल्के झटको वाले भूकंप को सिस्मोफोन, माइक्रोफोन एवं अन्य दुर्गम उपकरणों से मापा जा सकता है। कुओं के जलस्तर में आए बदलाव से, कुओं में तरंगे उठने एवं तापमान के अघ्ययन से, पशुओं के व्यवहार में आए बदलाव से और भूकंप के मुख्य केंद्र बिंदु में हुई भू-गर्भीय हलचल से भूकंप का आकलन किया जा सकता है। ऑटोनेस वॉटर लेवल रिकॉर्डर हर 15 मिनट के अंतराल में टेलीमैट्री नेटवर्किंग के माध्यम से पानी में होने वाली हलचल की जानकारी इंटरनेट पर दर्शाएगा, जिसके आधार पर भू-वैज्ञानिक भूकंप कि भविष्यवाणी को संभव मान रहे है। अध्ययन के अनुसार 1 से 3 घंटे पहले भूकंप की सूचना मिलनासंभव हो पाएगा। देश के भू-गर्भीय हलचल से भी भूकंप का आकलन किया जा सकता है जो भूकंपीय जोन की बेहतर समझ पर निर्भर है।
वर्तमान समय में हिमालय क्षेत्र के भूगर्भिक संरचना व प्लेट विवर्तनिक क्रिया के संबंध में पर्याप्त जानकारी हासिल हो चुकी है एवं भारत के अन्य क्षेत्रों में भी भूकंप के आशंका वाले क्षेत्रों में पर्याप्त जानकारी सुलभ हुई है। भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के दिशा निर्देशन भूकंपीय मानचित्रों को अद्यतन बनाने का प्रयास किया गया है। इस मानचित्र में भारत में भूकंप की आशंका वाले क्षेत्रों के निर्धारण में अधिक परिशुद्धता लाने के लिए पहले से उपलब्ध भूगर्भिक एवं विवर्तनिक आँकड़ों का पुनरीक्षण किया जा रहा है। भूकंप के जोखिमों के अध्ययन व मूल्यांकन हेतु स्थलाकृतिक मानचित्रों के एवं उपग्रह सर्वेक्षणों को भी सहारा लिया जा रहा है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंध आयोग का गठन शीर्ष निकाय के रूप में किया गया है। जो भूकंप समेत विभिन्न आपदाओं के प्रबंध हेतु तत्कालीन व दीर्घकालीन रणनीति तैयार करता है। इसके राजनीतिक प्रशासनिक व तकनीकी तीनों की विभाग है। जो अपने-अपने कार्यों को विशेष रूप से अंजाम देने में लगे हैं। भूकंप की आशंका वाले क्षेत्रों में पूर्व सुरक्षोपाय अपनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। वर्तमान समय में महाराष्ट्र ही एक मात्रा ऐसा प्रांत है जहाँ भूकंप के जाखिम को कम करने हेतु मलबा हटाने वाले वाहनों सुसज्जित बचाव दल व चिकित्सा वाहनों, उपग्रह संचार आधारित निगरानी कक्ष, आदि की व्यवस्था है। वर्ष 2001 में भुज में आए भूकंप में जान-माल की अधिक हानि का मुख्य कारण भूकंप के जोखिम को कम करने के लिए पर्याप्त प्रबंध का नहीं होना था। अतः तत्कालीन के साथ-साथ दीर्घकालीन रक्षोपाय पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। जापान से तकनीकी संबंधी मदद भी ली जा रही है। भूकंपरोधी मकानों के निर्माण एवं आपदा प्रबंधन की पर्याप्त व्यवस्था के द्वारा भूकंप से हानि की आशंकाओं को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
ज्वालामुखी (Volcanoes)
ज्वालामुखी मुख्य रूप से एक विवर या छिद्र होता है जिसका संबंध पृथ्वी के आन्तरिक भाग से होता है तथा जिसके माध्यम से लावा, राख, गैस, जलवाष्प आदि का निर्गमन होता है। ज्वालामुखी क्रिया के अन्तर्गत मैग्मा के निकलने से लेकर सतह या उसके अंदर विभिन्न रूपों में इसके ठंडा होने की प्रक्रिया शामिल होती है।
प्रारंभ में मैग्मा तथा लावा एवं आग्नेय शैल का वर्गीकरण उनमें मौजूद सिलिका की मात्रा के आधार पर किया जाता था। सिलिका की मात्रा के आधार पर लावा के दो प्रकार हैः-
1. Acid Lava - इस लावा में सिलिका की अधिक मात्रा होने के कारण यह काफी गाढ़ा तथा चिपचिपा होता है। इसे धरातल पर अधिक फैलने का मौका नहीं मिलता, अतः यह क्रेटर के आसपास जमा होकर तीव्र ढालवाले ‘गुंबदाकार शंकु’ का निर्माण करता है। इटली में स्ट्राम्बोली तथा फ्रांस में पाई-डी-डोम इसके अच्छे उदाहरण हैं।
2. Basic Lava - इसमें सिलिका की मात्रा कम होती है। अतः यह अम्ल लावा की अपेक्षा अधिक तरल तथा पतला होता है। यह धरातल पर दूर तक फैलता है जिसके कारण शंकु की ढाल मंद होती है। इसे ‘शील्ड शंकु’ या ‘चपटा शंकु’ कहते हैं। हवाई द्वीप का मोनालोआ शंकु इसका उदाहरण है।
वर्तमान समय में मैग्मा तथा लावा एवं आग्नेय शैलों का वर्गीकरण रासायनिक व खनिज संघटन के आधार पर किया जाता है। खनिजों को हल्के रंग व गहरे रंग की दो कोटियों में विभक्त किया जाता है। हल्के रंग के खनिजों को फेल्सिक (Felsic) एवं गहरे रंग के खनिजों को मैफिक (Mafic) कहते हैं। फेल्सिक समूह में सिलिका प्रधन खनिज क्वार्ट्ज तथा फेल्सफार प्रमुखता से होते हैं जबकि मैफिक समूह में मैग्नेशियम व लौह तत्त्व की अधिकता वाले खनिज पायरॉक्सींस, एम्फीबोल्स तथा ऑल्वीन की प्रधानता होती है। फेल्सिक व मैफिक के मध्यस्थ गुणों वाले खनिजों को अल्ट्रामैफिक (Ultramafic) कहा जाता है। इसमें सिलिकन व एल्युमिनियम की मात्रा अधिक होती है। फेल्सिक, अल्ट्रामैफिक व मैफिक के अंतर्गत ग्रेनाइट, डायोराइट व गैब्रो क्रमशः अंतर्जात लावा के एवं रायोलाइट, एंडेसाइट व बैसाल्ट क्रमशः बहिर्जात लावा के उदाहरण हैं।
स्थिति के आधार पर ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों को दो भागों में बाँट सकते हैं-
ज्वालामुखी निर्मित आन्तरिक व बाह्य स्थलाकृतियाँ
(A) आभ्यंतरिक स्थलाकृतियाँ (ग्रेनाइट चट्टानें)
(क) आन्तरिक लावा
(ख) बैथोलिथ
(ग) लैकोलिथ
(घ) पफैकोलिथ
(ङ) लोपोलिथ
(च) सिल
(छ) डाइक
(ज) स्टॉक
(B) बाह्य स्थलाकृतियाँ (बैसाल्ट चट्टाने)
(क) विभिन्न प्रकार के शंकु
(ख) क्रेटर व काल्डेरा
(ग) लावा पठार या ट्रेप
(घ) लावा मैदान
(ङ) धुआँरे तथा गेसर
आभ्यंतरिक स्थलाकृतियों को निम्न भागों में बाँटकर समझा जा सकता हैः
(i) बैथोलिथ : किसी भी प्रकार के चट्टानों में ग्रेनाइट के गुंबदाकार निक्षेप को बैथोलिथ कहते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ ज्वालामुखी उद्गार होते हैं, यह संरचना पाई जाती है।
(ii) लैकोलिथ : यह भी गुंबदनुमा होता है जो सिर्फ अवसादी चट्टानों में मैग्मा के जमाव से बनता है। इसकी ढाल उत्तल होती है।
(iii) फैकोलिथ : जब ज्वालामुखी उद्गार से प्राप्त मैग्मा मोड़दार पर्वतों के अपनति तथा अभिनति में जमा हो जाता है तो फैकोलिथ का निर्माण होता है।
(iv) लोपोलिथ : जब मैग्मा का जमाव धरातल के नीचे अवतल ढाल वाली छिछली बेसिन में होता है तब उसे लोपोलिथ कहते हैं।
(v) सिल : जब मैग्मा का जमाव लगभग क्षैतिज रूप में परतदार या रूपान्तरित शैलों की विभिन्न परतों के बीच हो जाता है तो वह सिल कहलाता है। इसकी पतली परत को शीट (Sheet) कहते हैं।
(vi) डाइक : यह सिल के विपरीत लम्बवत एवं पतले रूप में मिलने वाला मैग्मा का जमाव है।
बाह्य स्थलाकृतियां -
लावा तथा अन्य पदार्थों का निकास एक प्राकृतिक नली द्वारा होता है जिसे ‘ज्वालामुखी नली’ (Volcanic Pipe) कहते हैं। ज्वालामुखी शंकु के शीर्ष पर प्याले या कीप की आकृति का जो गड्ढा होता है उसे क्रेटर (Crater) कहते हैं। जब क्रेटर में वर्षा-जल भर जाता है तो वह क्रेटर झील (Crater Lake) कहलाता है। दक्षिणी अमेरिका की टिटीकाका झील तथा भारत में महाराष्ट्र का लोनार झील इसके सुन्दर उदाहरण हैं। काल्डेरा (Caldera) का निर्माण क्रेटर के धंसाव से या ज्वालामुखी में पुनः विस्पफोट से क्रेटर के मुख के बड़ा हो जाने से होता है। विश्व का सबसे बड़ा काल्डेरा ‘आसो’ है, जो जापान में स्थित है। कभी-कभी ज्वालामुखी में पुनः विस्फोट से बड़े क्रेटर में अनेक छोटे-छोटे क्रेटरों का निर्माण हो जाता है जिसे घोंसलादार क्रेटर (Nasted Crater) कहते हैं।
गेसर (Gyser) गर्म जल के ऐसे स्रोत हैं जहाँ से समय-समय पर गर्म जल की फुहारें निकलती रहती हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण U.S.A. के येलोस्टोन नेशनल पार्क (Yellow Stone National Park) में ओल्ड फेथफुल (old faithful) तथा एक्सेल्सियर (Exelsiar) गेसर है। आइसलैंड का ग्रांड (Grand) गेसर भी विख्यात है। धुआँरे (Fumaroles) से गैस व जलवाष्प निकला करते हैं। अलास्का (U.S.A.) के कटमई पर्वत को ‘हजारों धुआँरों की घाटी’ (A valley of ten thousand smokes) कहा जाता है। ईरान का कोह सुल्तान धुआँरा तथा न्यूजीलैंड की प्लेन्टी खाड़ी में स्थित ह्वाइट द्वीप का धुआँरा भी प्रसिद्ध है।
ज्वालामुखी के दरारी उद्भेदन से बैसाल्टिक भाग शान्त रूप से प्रवाहित होकर धरातल के ऊपर मोटी परत के रूप में जमा हो जाता है। इन परतों को लावा पठार या ट्रैप (Trapp) कहते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण भारत का ‘दक्कन ट्रैप’ है।
विभिन्न आधारों पर ज्वालामुखी का निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया जाता हैः-
(A) सक्रियता के आधार पर :-
1. सक्रिय (Active) ज्वालामुखी : वैसे ज्वालामुखी जिनसे लावा, गैस तथा विखण्डित पदार्थ सदैव निकला करते हैं। वर्तमान समय में उनकी संख्या लगभग 500 है। इनमें सिसली के उत्तर में लेपारी द्वीप का स्ट्राम्बोली (भूमध्यसागर का प्रकाश स्तंभ), इटली का एटना, इक्वेडोर का कोटोपैक्सी (विश्व का सबसे ऊँचा सक्रिय ज्वालामुखी), अंटार्कटिका का एकमात्रा सक्रिय ज्वालामुखी माउंट इरेबस तथा अंडमान-निकोबार के बैरेन द्वीप में सक्रिय ज्वालामुखी प्रमुख हैं।
2. सुषुप्त (Dormant) ज्वालामुखी : अर्थात् वैसे ज्वालामुखी जो वर्षों से सक्रिय नहीं है पर कभी भी विस्फोट कर सकते हैं। इनमें इटली का विसुवियस, जापान का फ्यूजीयामा, इंडोनेशिया का क्राकाताओ तथा अंडमान-निकोबार के नारकोंडम द्वीप में दो सुषुप्त ज्वालामुखी उल्लेखनीय है।
3. मृत (Dead or Extinct) ज्वालामुखी : इसके अंतर्गत वैसे ज्वालामुखी शामिल किए जाते हैं जिनमें हजारों वर्षों से कोई उद्भेदन नहीं हुआ है तथा भविष्य में भी इसकी कोई संभावना नहीं है। अफ्रीका के पूर्वी भाग में स्थित केनिया व किलिमंजारो, इक्वेडोर का चिम्बाराजो, म्यांमार का पोपा, ईरान का देमबन्द व कोहसुल्तान और एंडीज पर्वतश्रेणी का एकांकागुआ इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
(B) क्रेटर के आधार परः
1. केन्द्रीय उद्भेदन (Central Erruption) : ज्वालामुखी उदगार जब भारी धमाके के साथ केन्द्रीय मुख से उद्भेदित होता है तो उसे केन्द्रीय उद्भेदन कहते हैं। यह विनाशात्मक प्लेट किनारों के सहारे होता है। इटली का एटना, जापान का फ्यूजीयामा तथा इटली का विसुवियस इसके अच्छे उदाहरण हैं।
2. दरारी उद्भेदन (Flssure Erruption) : भू-गर्भिक हलचलों से भूपर्पटी की शैलों में दरारें पड़ जाती हैं। इन दरारों से लावा धरातल पर प्रवाहित होकर निकलता है जिसे दरारी उद्भेदन कहते हैं। यह रचनात्मक प्लेट-किनारों के सहारे होता है।
ज्वालामुखी का विश्व वितरण : प्लेट विवर्तनिकी के आधार पर ज्वालामुखी क्षेत्रों की व्याख्या वर्तमान में सबसे मान्य संकल्पना है। इसके अनुसार 80% ज्वालामुखी विनाशात्मक प्लेट किनारों पर, 15% रचनात्मक प्लेट किनारों पर तथा शेष प्लेट के आन्तरिक भागों में पाए जाते हैं।
ज्वालामुखियों का मेखलाबद्ध वितरण इस प्रकार है-
1. परि-प्रशान्त महासागरीय मेखला (Circum Pacific Belt) : यहाँ विनाशात्मक प्लेट किनारों के सहारे ज्वालामुखी मिलते हैं। विश्व के ज्वालामुखियों का लगभग 2/3 भाग प्रशान्त महासागर के दोनों तटीय भागों, द्वीप चापों तथा समुद्री द्वीपों के सहारे पाया जाता है। इसे ‘प्रशान्त महासागर का अग्निवलय’ (Fire ring of the Pacific Ocean) कहते हैं। यह पेटी अंटार्कटिका के माउन्ट इरेबस से शुरू होकर दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वतमाला व उत्तर अमेरिका के रॉकीज पर्वतमाला का अनुसरण करते हुए अलास्का, पूर्वी रूस, जापान, फिलीपींस आदि द्वीपों से होते हुए ‘मध्य महाद्वीपीय पेटी’ में मिल जाती है।
2. मध्य महाद्वीपीय पेटी (Mid-continental Belt) : इस मेखला के अधिकांश ज्वालामुखी विनाशात्मक प्लेट किनारों के सहारे मिलते हैं क्योंकि यहाँ यूरेशियन प्लेट तथा अफ्रीका व इंडियन प्लेट का अभिसरण होता है। इसकी एक शाखा अफ्रीका की भू-भ्रंश घाटी एवं दूसरी शाखा स्पेन व इटली होते हुए काकेशस व हिमालय की ओर आगे बढ़ते हुए दक्षिण की ओर मुड़कर प्रशांत महासागरीय पेटी से मिल जाती है। यह मेखला मुख्य रूप से अल्पाइन-हिमालय पर्वत श्रृंखला के साथ चलती है। भूमध्यसागर के ज्वालामुखी भी इसी पेटी के अन्तर्गत आते हैं। स्ट्राम्बोली, विसुवियस व एटना भूमध्यसागर के प्रसिद्ध ज्वालामुखी हैं। इसी पेटी में ईरान का देमबन्द, कोह सुल्तान, आर्मेनिया का अरारात ज्वालामुखी भी शामिल हैं। यूरोप के अधिकांश ज्वालामुखी इस पेटी में मीडियन मास एवं अफ्रीका के ज्वालामुखी भू-भ्रंश घाटियों के सहारे मिलते हैं। पश्चिम अफ्रीका का एकमात्रा जागृत ज्वालामुखी कैमरून पर्वत है।
3. मध्य अटलांटिक मेखला या मध्य महासागरीय कटकः ये रचनात्मक प्लेट किनारों के सहारे मिलते हैं। जहाँ पर दो प्लेटों के अपसरण के कारण भ्रंश का निर्माण होता है एवं क्रस्ट के नीचे एस्थेनोस्फेयर से पेरिडोटाइट तथा बैसाल्टिक मैग्मा ऊपर उठते हैं। इनके शीतलन से नवीन क्रस्ट का निर्माण होता रहता है। कटक के पास नवीनतम लावा होता है एवं कटक से बढ़ती दूरी के साथ लावा भी प्राचीन होता जाता है। हेकला व लॉकी इस प्रदेश में आइसलैंड के प्रमुख ज्वालामुखी है। एंटलीज दक्षिणी अटलांटिक महासागर के एवं एजोर्स व सेंट हेलेना उत्तरी अटलांटिक महासागर के प्रमुख ज्वालामुखी है।
4. अन्तरा प्लेटीय ज्वालामुखी : महासागरीय या महाद्वीपीय प्लेट के आंतरिक भागों में भी ज्वालामुखी क्रियाएँ देखी गई हैं जिन्हें माइक्रो प्लेट गतिविधि एवं गर्म स्थल (Hot Plums) की संकल्पना द्वारा समझा जा सकता है। प्लेट विवर्त्तनिकी सिद्धांत द्वारा इनका स्पष्टीकरण अभी तक नहीं हो सका है। हवाई द्वीप से लेकर कमचटका तक के ज्वालामुखी, पूर्वी अफ्रीका के भू-भ्रंश घाटी के ज्वालामुखी एवं ज्वालामुखी के दरारी उद्भेदन से बने कोलम्बिया पठार, पराना पठार, दक्कन का लावा पठार अंतरा प्लेट ज्वालामुखी क्रियाओं के अन्तर्गत शामिल किए जा सकते हैं।
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