पृथ्वी एवं भूवैज्ञानिक समय-सारणी
(Earth and its Geological time scale)
- उल्का पिंडों एवं चन्द्रमा के चट्टानों के नमूनों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि हमारी पृथ्वी की आयु 4.6 आरब वर्ष है। पृथ्वी पर सबसे प्राचीन पत्थर नमूनों के रेडियोधर्मी तत्वों के परीक्षण से उसके 3.9 बिलियन वर्ष पुराना होने का पता चला है।
- रेडियोसक्रिय पदार्थों के अध्ययन के द्वारा पृथ्वी की आयु की सबसे विश्वसनीय व्याख्या हो सकी है। पियरे क्यूरी एवं रदरफोर्ड ने इसके आधार पर पृथ्वी की आयु दो से तीन अरब वर्ष अनुमानित की है।
- पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास की व्याख्या का सर्वप्रथम प्रयास फ्रांसीसी वैज्ञानिक कार्स्ते-द-बफन ने किया। वर्तमान समय में पृथ्वी के इतिहास को कई कल्पों में विभाजित किया गया है।
- ये कल्प पुनः क्रमिक रूप से युगों में व्यवस्थित किए गए हैं। प्रत्येक युग को पुनः छोटे उपविभागों में विभक्त किया गया है जिन्हें ‘शक’ कहा जाता है।
- प्रत्येक शक की कालावधि निर्धारित की गई है एवं जीवों तथा वनस्पतियों के विकास पर भी प्रकाश डाला गया है।
पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास से संबंधित प्रमुख तथ्य-
1. आद्य कल्प (Azoic or Archean Era) – इसे आर्कियन व प्री-कैम्ब्रियन दो भागों में बाँटा गया है।
- आर्कियन चट्टानों में ग्रेनाइट तथा नीस की प्रधानता है। इन शैलों में जीवाश्मों का पूर्णतः अभाव है। इनमें सोना तथा लोहा पाया जाता है। इस काल में कनाडियन व फेनोस्केंडिया शील्ड निर्मित हुए।
- प्री-कैम्ब्रियन काल में रीढ़विहीन जीव का प्रादुर्भाव हो गया था। इस काल में गर्म सागरों में मुख्यतः नर्म त्वचा वाले रीढ़विहीन जीव थे। यद्यपि समुद्रों में रीढ़युक्त जीवों का भी प्रादुर्भाव हो गया, परंतु स्थलभाग जीवरहित था। भारत में प्री-कैम्ब्रियन काल में ही अरावली पर्वत व धारवाड चट्टानों का निर्माण हुआ।
2. पुराजीवी महाकल्प (Palaeozoic Era) – कैम्ब्रियन काल में प्रथम बार स्थल भागों पर समुद्रों का अतिक्रमण हुआ। प्राचीनतम अवसादी शैलों का निर्माण कैम्ब्रियन काल में ही हुआ था। भारत में विंध्याचल पर्वतमाला का निर्माण इसी काल में हुआ था। पृथ्वी पर इसी काल में सर्वप्रथम वनस्पति तथा जीवों की उत्पत्ति हुई। ये जीव बिना रीढ़ की हड्डी वाले थे। इसी समय समुद्रों में घासों की उत्पत्ति हुई।
- आर्डोविसियन काल में सागरीय वनस्पतियों का विस्तार हुआ तथा समुद्र में रेंगने वाले जीव उत्पन्न हुए। स्थल भाग अभी भी जीवविहीन था।
- सिल्यूरियन काल में ही रीढ़ वाले जीवों का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ एवं समुद्रों में मछलियों की उत्पत्ति हुई। सिल्यूरियन काल में रीढ़ वाले जीवों का विस्तार मिलता है, इसलिए इसे ‘रीढ़ वाले जीवों का काल’ कहते हैं। इस काल में प्रवाल जीवों का विस्तार मिलता है। स्थल पर पहली बार पौधों का उद्भव इसी समय हुआ। ये पौधे पत्तीविहीन थे एवं ऑस्ट्रेलिया में उत्पन्न हुए थे। यह काल व्यापक कैलिडोनियन पर्वतीय हलचलों का काल भी है। इसी समय स्कैंडिनोविया व स्कॉटलैंड के पर्वतों का निर्माण हुआ।
- डिवोनियन काल में पृथ्वी की जलवायु समुद्री जीवों विशेषकर मछलियों के सर्वाधिक अनुकूल थी। इसी समय शार्क मछली का भी आविर्भाव हुआ।
- अतः इसे ‘मत्स्य युग’ के रूप में जाना जाता है। उभयचर जीवों की भी उत्पत्ति हुई। फर्न वनस्पतियों की भी उत्पत्ति हुई। पौधों की ऊँचाई 40 फीट ऊँची पहुँच गई थी। इस समय कैलिडोनियन पर्वतीकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ एवं ज्वालामुखी क्रियाएँ भी सक्रिय हुई।
- कार्बोनीफेरस युग में उभयचरों का विकास व विस्तार बढ़ता गया। रेंगने वाले जीव का भी स्थल पर आविर्भाव हुआ। इस काल में 100 फीट ऊँचे पेड़ भी उत्पन्न हुए। यह ‘बड़े वृक्षों का काल’ कहलाता है। इस समय बने भ्रंशों में पेड़ों के दब जाने से गौंडवाना क्रम के चट्टानों का निर्माण हुआ जिसमें कोयले के व्यापक निक्षेप मिलते हैं।
- पर्मियन युग में हर्सीनियन पर्वतीकरण का काल है। इस समय भ्रंशों के निर्माण के कारण ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेज जैसे भ्रंशोत्थ पर्वतों का निर्माण हुआ। स्पेनिश मेसेटा, अल्ताई, तिएनशान, अप्लेशियन जैसे पर्वत भी इसी काल में निर्मित हुए। इस समय स्थल पर जीवों व वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों का विकास देखा गया। भ्रशन के कारण उत्पन्न आंतरिक झीलों के वाष्पीकरण से पृथ्वी पर पोटाश भंडारे का निर्माण हुआ।
3. मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic Era) – इसे टि्यासिक, जुरैसिक व क्रिटेशियस कालों में बाँटा गया है।
- ट्रियासिक काल में स्थल पर बड़े-बड़े रेंगने वाले जीव का विकास हुआ। इसलिए इसे ‘रेंगने वाले जीवों का काल’ कहा जाता है। यह काल आर्कियोप्टेरिस की उत्पत्ति का काल था। ये स्थल एवं आकाश दोनों में चल सकते थे। इस समय तीव्र गति से तैरने वाले लॉबस्टर का उद्भव भी हुआ। स्तनधारी भी उत्पन्न होने लगे थे। माँसाहारी मत्स्य रेप्टाइल्स सागरों में उत्पन्न हुए। रेप्टाइल्स में भी स्तनधारियों की उत्पत्ति हो गई। गोडवानालैंड भूखंड का विभाजन ट्रियासिक काल में आरंभ हुआ जिससे ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी भारत, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमेरिका के ठोस स्थल खंड बने।
- जुरैसिक काल में मगरमच्छ के समान मुख और मछली के समान धड़ वाले जीव, डायनासोर रेप्टाइल्स का विस्तार हुआ एवं लॉबस्टर प्राणी बढ़ते चले गए। जलचर, स्थलचर व नभचर तीनों का आविर्भाव हो गया। जूरा पर्वत का संबंध इसी काल से जोड़ा जाता है। पुष्पयुक्त वनस्पतियाँ इसी काल में आई थीं।
- क्रिटेशियम काल में एंजियोस्पर्म पौधों का विकास प्रारंभ हुआ। बड़े-बड़े कछुओं का उद्भव भी इस काल में देखा गया। मैग्नेलिया व पोपनार जैसे शीतोष्ण पतझड़ वन के वृक्ष विकसित हुए। उत्तरी-पश्चिमी अलास्का, कनाड़ा, मैक्सिको, ब्रिटेन के डोबर क्षेत्र व ऑस्ट्रेलिया आदि में खड़िया मिट्टी का जमाव हुआ। पर्वतीकरण अत्यधिक सक्रिय था। रॉकी व एंडीज की उत्पत्ति आरंभ हो गई। भारत के पठारी भाग में क्रिटेशियस काल में ही ज्वालामुखी लावा का उद्भेदन हुआ जिससे दक्कन ट्रैप व काली मिट्टी का निर्माण हुआ है।
4. नवजीवी महाकल्प - इसे पैल्योसीन, इओसिन, ओलीगोसनी, मायोसीन व प्लायोसीन कालों में बाँटा गया है। इस कल्प को टर्शियरी युग भी कहा जाता है। इसी कल्प के विभिन्न कालों में टर्शियरी युग भी कहा जाता है। इसी कल्प के विभिन्न कालों में अल्पाइन पर्वतीकरण हुए एवं विश्व के सभी नवीन मोड़दार पर्वतों आल्प्स, हिमालय, रॉकी, एंडीज आदि की उत्पत्ति हुई।
- पैल्योसीन काल में अल्पाइन पर्वतीकरण प्रारंभ हो गए थे एवं स्थल पर स्तनपायियों का विस्तार हो रहा था। इसी कल्प में सर्वप्रथम स्तनपायी जीवों व पुन्छहीन बंदरों का आविर्भाव हुआ।
- इओसीन काल में स्थल पर रेंगने वाले जीव प्रायः विलुप्त हो गए। प्राचीन बंदर व गिब्बन म्यांमार में उत्पन्न हुए। हाथी, घोड़ा रेनोसेरस (गैंडा), सूअर के पूर्वजों का आविर्भाव हुआ।
- ओलीगोसीन काल में बिल्ली, कुत्ता, भालू आदि की उत्पत्ति हुई। पुच्छहीन बंदर का आविर्भाव हुआ, जिसे मानव का पूर्वज कहा जा सकता है। वृहत हिमाचल की उत्पत्ति का मुख्यकाल यही है।
- मायोसीन काल में बड़े आकार की (60 फीट) शार्क मछली, प्रोकानसल (पुच्छहीन बंदर), जल पक्षी (हंस, बतख) पेंग्विन इसी काल में उत्पन्न हुए। हाथी का भी विकास इसी काल में हुआ। मध्य लघु हिमालय की उत्पत्ति का मुख्य काल यही है।
- प्लायोसीन काल में बड़े स्तनपायी प्राणी की संख्या में हृास हो गया। शार्क का विनाश हो गया, मानव के पूर्वज का विकास हुआ, इसी काल में आधुनिक स्तनपायियों का आविर्भाव हुआ। शिवालिक की उत्पत्ति इसी काल में हुई। हिमालय पवर्तमाला तथा दक्षिण के प्रायद्वीपीय भाग के बीच स्थित जलपूर्ण द्रोणी टेथिस भू-सन्नति में अवसादों के जमाव से उत्तरी विशाल मैदान का आविर्भाव इसी काल में होने लगा था।
5. नूतन महाकल्प (Neozoic Era) – इसे प्लीस्टोसीन व होलोसीन दो कालों में बाँटा गया है।
(i) प्लीस्टोसीन काल में यूरोप में चार हिमयुग देखे गए। ये ये - गुंज (Gunz), मिन्डेल (Mindel) रिस (Riss) तथा वुर्म (Wurm)। विभिन्न हिमकालों के बीच में अंतर्हिम काल (Inter Glacial age) देखे गए जो तुलनात्मक रूप से उष्णकाल था। मिन्डेल व रिस के बीच का अंतर्हिम काल सर्वाधिक लम्बी अवधि का था। उत्तरी अमेरिका में इस समय नेब्रास्कन, कन्सान, इलीनोइन व विस्कासिन हिमकाल देखे गए। नेब्रास्कन व कन्सान के बीच अफ्टोनियम, कन्सान व इलीनोइन के बीच यारमाउथ, इलीनोइन व विंस्कासिन के बीच संगमन अंतर्हिम काल था। इस युग के अंत में हिम चादर पिघलते चले गए एव स्कैंडिनोवियन क्षेत्र की ऊँचाई में निरंतर वृद्धि हुई। पृथ्वी पर उड़ने वाले पक्षियों का आविर्भाव प्लीस्टोसीन काल में ही माना जाता है। मानव तथा अन्य स्तनपायी जीव वर्तमान स्वरूप में इसी काल में विकसित हुए।
भौतिक भू-आकृतियाँ : पर्वत, पठार, मैदान, झीलें एवं हिमनद
(Broad Physical Feature : Mountains, Plateaus, Plains, Lakes and Glaciers)
वेगनर की परिकल्पना (Continental Drift) –
- फ्रांसीस बैकुन ने अपनी समुद्री यात्रा के वर्णन में 1620 ई. में सर्वप्रथम अटलाण्टिक के दोनों तटों के समानान्तरता को दर्शाया। 1668 में P.Plaset नामक व्यक्ति ने अफ्रीका, यूरोप के महाद्वीपीय भाग को अमेरिका के महाद्वीपीय भाग में समायोजित होता पाया। पुनः 1818 ई. में एन्टोनियो पेलीग्रीनी ने सर्वप्रथम विश्व के मानचित्र में यह दर्शाया कि अमेरिका एवं अफ्रो-यूरोप वस्तुतः एक ही महाद्वीप के दो टुकड़े हैं जो कालान्तर में विस्थापित हुए हैं।
- वर्ष 1910 में टेलर महोदय ने “एक महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना” को जन्म दिया एवं विश्व के सभी महाद्वीपों को वस्तुतः एक ही विशाल महाद्वीप का विखण्डित रूप माना।
- परन्तु महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त के जनक के रूप में जर्मनी के जलवायु वैज्ञानिक “अल्फ्रेड वेगनर” को माना जाता है। क्योंकि इन्होंने सम्पूर्ण महाद्वीपों के प्रारम्भिक अवस्था से लेकर वर्तमान परिदृश्य तक एक सिद्धान्त के रूप में विशद व्याख्या की है तथा अनेकों सुदृढ़ साक्ष्य उपलब्ध करवाए। इन्होंने अपनी पुस्तक "The Continent & the Ocean" में इस सिद्धान्त को वर्ष 1912 में लिखा जो कि 1915 में कठिन वर्ष जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ। 1924 में इस सिद्धान्त का अंग्रेजी रूपान्तरण हुआ जिसने एक नए विवाद को पृथ्वी विज्ञान में नए विवाद को जन्म दे दिया क्योंकि पूर्व के सिद्धान्त एवं परिकल्पनाएँ महाद्वीपों एवं महासागरों को स्थैतिक मानते रहे।
(i) संपूर्ण महाद्वीप एक अखण्डित, विशाल एवं वृहत महाद्वीप के रूप में 300 मिलियन वर्ष पूर्व कार्बोनिफेरस युग में अस्तित्व रखता था जिसे पेंजिया कहते थे।
(ii) यह पेंजिया दक्षिणी ध्रुव के पास अवस्थित था।
(iii) पेंजिया के चारों तरफ एक महासागर अवस्थित था जिसका नाम पेंथालसा था।
(iv) पेंजिया दो भाग में विभाजित था उत्तरी भाग को अंगारालैण्ड एवं दक्षिणी भाग को गौण्डवानालैण्ड कहा जाता था।
(v) इन दोनों महाद्वीप खण्डों के मध्य विभाजक रेखा के रूप में ‘टेथिस सागर’ अवस्थित था।
सिद्धान्त की मूलभूत अवधारणाएँ -
1. पृथ्वी के अंदर अनेक स्तर है एवं सबसे ऊपरी भाग सियाल से निर्मित है जो कि महाद्वीपों का प्रतिरूप है।
2. सियाल के नीचे सीमा स्तर है जो कि अधिक घनत्व वाला है एवं सागरीय भू-पर्पटी का प्रतिरूप/समतुल्य है।
3. सियाल, सीमा के ऊपर फिसल रहा है अर्थात् महाद्वीप के भाग सागर के नितल के ऊपर फिसल कर विस्थापित हो रहे हैं।
4. यह विस्थापन दो दिशाओं में है- उत्तर की ओर एवं पश्चिम की ओर।
- विस्थापनकारी शक्तियों में वेगनर ने वर्ष 1915 के लेख में दो शक्तियों की बात की है।
- पश्चिम की ओर विस्थापन चन्द्रमा के ज्वारीय ऊर्जा के कारण, घूर्णन करती पृथ्वी पर संभव होता है। जबकि उत्तर की ओर विस्थापन महाद्वीपों पर लगे उत्प्लावन बल एवं उत्तरी ध्रुव पर अवस्थित सर्वाधिक गुरुत्वाकर्षण बल के बीच उत्पन्न असंतुलन के कारण होता है।
- यह विस्थापन Triassie काल में प्रारम्भ हुआ एवं पेंजिया अनेक टुकड़े में विखण्डित हो गया। वर्तमान का अंटार्कटिका, दक्षिणी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, मेडागास्कर, प्रायद्वीप भारत, न्यूजीलैण्ड इत्यादि गौण्डवाना लैण्ड के भाग हैं जबकि उत्तरी अमेरिका लारेंशिया का टुकड़ा है जो कि अंगारालैण्ड का ही भाग है।
- यूरेशिया का वृहद् भू-भाग अंगारालैण्ड का ही प्रतिरूप है।
- वेगनर ने अपने इस सिद्धान्त के द्वारा कई अनोखे प्रयास किए जिसमें उन्होंने महाद्वीपों एवं महासागरों के वितरण को भी परिभाषित करने का प्रयास किया इसके अतिरिक्त नवीन वलित पर्वतों के उत्पत्ति सम्यक् विश्लेषण को भी व्याख्याकृत किया। इसके अनुसार महाद्वीपों के पश्चिम की ओर विस्थापन से जब महाद्वीप का किनारा सागर के नितल पर घर्षण किया फलस्वरूप रॉकीज एवं एण्डीज जैसे पर्वतों का उदय हुआ।
वेगनर द्वारा प्रस्तुत किये गए साक्ष्य -
1. Jig Sam Fit / Juxtoposition/ साम्यस्थापन - वेगनर ने अंटलाण्टिक के पूर्व एवं पश्चिमी तट में मानचित्र द्वारा अद्धत समानांतरता को दर्शाया एवं अफ्रीका, यूरोप को अमेरिका के महाद्वीप में परस्पर जोड़कर एक ही महाद्वीप होने के साक्ष्य को प्रस्तुत किया।
2. चट्टानों की संरचना एवं काल पर आधारित साक्ष्य -ब्राजील के उभार क्षेत्र में 570 मिलियन वर्ष पूर्व की चट्टान व्याप्त है अगर यह अफ्रिका के गिनी की खाड़ी में विलय हुआ है तो वहाँ भी इसी काल एवं संरचना की चट्टाने पाई जानी चाहिए। वास्तविक में इसे एक सच साक्ष्य पाया गया।
प्लेसर (अवसादी) निक्षेप के रूप में पाए जाने वाले स्वर्ण कण गिनी के तट पर भी बिल्कुल समानांतर अवस्था में पाए गए।
3. जीवाश्म संबंधी साक्ष्य - प्रागैतिहासिक काल में पाए जाने वाले "Ferm" मुख्य रूप से ‘ग्लोसोपोटेरिस’ के जीवाश्म गौंडवानालैण्ड के सभी भू-खण्डों पर पाए गए।
इसके अतिरिक्त ‘मैसोसौरस’ जैव अवस्थाएँ उनके जीवाश्म भी दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका एवं ऑस्ट्रेलिया पर पाए गए।
इस प्रमाण में वेगनर ने अन्य कई जीवाश्मों के वितरण को दर्शाया है जो यह सिद्ध करता है कि कम से कम गौण्डवानालैण्ड के सभी टुकड़े एक ही महाद्वीप के रूप में थे।
4. पुरा जलवायविक साक्ष्य - वेगनर ने यह दर्शाया कि वर्तमान के कोयला क्षेत्र समशीतोष्ण भाग में करीब 500 अक्षांश के पास अवस्थित है जबकि दूसरी ओर भूमध्य रेखा के पास हिम नदियों द्वारा निक्षेपित अवसादी जमाव के स्तर पाए जाते हैं यह एक विकट प्रश्न था समशीतोष्ण जलवायु क्षेत्र में कोयला उत्पन्न नहीं हो सकता भूमध्य रेखा क्षेत्र पर हिम नदियाँ नहीं पाई जाती। वर्तमान की यह अवस्थिति तभी विश्लेषित हो सकती है जब महाद्वीपों को जोड़कर उन्हें व्रतों के पास खिसका दिया जाए ऐसी स्थिति में वर्तमान का 50 अक्षांश, लगभग भू-मध्य रेखा के पास एवं वर्तमान के भूमध्य रेखा क्षेत्र दक्षिणी ध्रुव के आसपास खिसक जाएंगे जिससे यह सिद्ध होता है कि महाद्वीप उत्तर की ओर स्थित हुए हैं।
5. अन्य प्रमाणों में वेगनर ने पर्वत श्रेणियों के विस्तार को आधार बनाया गया, एपलेशिया पर्वत, अमेरिका के उत्तर पूर्वी तट से अचानक विलुप्त होकर स्कैण्डोनेवियन पर्वत के रूप में नार्वे में पाया जाता है जो कि महाद्वीपीय विस्थापन का एक साक्ष्य है।
प्लेट विवर्तनिक का सिद्धान्त
(Plate Tectonics)
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि- वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धान्त व उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों तथा एलेक्जेंडर दुत्वा के ध्रुवीय विस्थापन सिद्धान्त तथा हैरीहस के सागर के नितल के प्रसरण संबंधी परिकल्पना ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि पृथ्वी की भू-पर्पटी स्थैतिक नहीं है बल्कि गतिशील है और निश्चित रूप से भू-पर्पटी का विस्थापन हो रहा है।
- पुरा चुम्बकत्व, भू-चुम्बकीय व्युत्क्रम एवं समुद्र गर्भ के अन्वेषणों ने अनेक वैज्ञानिक साक्ष्यों को प्रस्तुत किए जिससे विस्थापन के सिद्धान्त को बल मिला।
(i) वर्ष 1965 में Tuzo Wilson ने प्लेट संबंधी परिकल्पना की। प्लेट स्थलमण्डल के वो टुकड़े हैं जो कि चारों तरफ गतिमान सीमाओं से घिरे हुए हैं ये अत्यंत ही कठोर एवं सुदृढ़ संरचना वाले हैं एवं 100 Km. की गहराई क्षेत्र तक विस्तृत है।
(ii) वर्ष 1968 में Morgoh महोदय ने वैश्विक प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त को जन्म दिया। यह सिद्धान्त पूर्व के स्थापित अन्य सिद्धान्त जैसे- महाद्वीपीय विस्थापन, पुरा चुम्बकत्व, चुम्बकीय व्युत्क्रम इत्यादि पर आधारित है।
(iii) प्लेट से तात्पर्य, स्थलमण्डल के कठोर एवं सुदृढ़ टुकड़ों से है जो आपस में सापेक्षिक रूप में परस्पर गतिमान है। विवर्तनिक से तात्पर्य उन शक्तियों से है जो प्लेटों को गतिमान बनाती है अतः प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त प्लेटों के पारस्परिक गति एवं उनके अंतर्सम्बन्ध तथा अन्तर्सम्बन्ध से जनित उत्पादों की व्याख्या करता है।
प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त के दो प्रमुख विभाग हैं -
(i) ज्यामितिय भाग (ii) गतिय भाग
(i) ज्यामितिय भाग - इस भाग में प्लेटों की आकारिकी उनके परस्पर गति, प्लेटों की संख्या एवं प्लेटों के प्रकार का वर्णन है। प्लेट को तीन प्रकार का बतलाया गया है-
(A) वृहद् प्लेट (B) लघु प्लेट (C) उप प्लेट।
(A) वृहद् प्लेट - ये प्लेट अत्यंत ही विशाल आकृति के पाए जाते हैं एवं ये प्लेट या पूर्ण सागरीय अथवा महाद्वीपीय अथवा महाद्वीपों एवं महासागरों दोनों से निर्मित हो सकते हैं।
सात वृहद् प्लेटों की परिकल्पना की गई है -
1. प्रशांत व सागरीय प्लेट - यह प्लेट पूर्णतया सागरीय नितल से निर्मित है एवं यह प्लेट WWN दिशा में 2.5 Cm. प्रतिवर्ष की गति से गमन कर रही है यह पूर्ण सागरीय प्लेट है।
2. यूरेशिया की प्लेट - यह सागर एवं महाद्वीप क्षेत्रों से निर्मित है। यूरेशिया के भूखण्ड एवं उत्तरी अटलांटिक सागर के तल से निर्मित है तथा NE दिशा में गमन कर रही है। यह 1 Cm. प्रतिवर्ष गति कर रही है।
3. अफ्रीकन प्लेट - इसके मध्य में महाद्वीपीय खण्ड एवं चारों तरफ सागरीय प्लेट से घिरा है व NNE में 2 Cm. प्रतिवर्ष गति कर रही है।
4. अंटार्कटिका प्लेट - मुख्य रूप से महाद्वीप परन्तु चारों तरफ से सागरीय भाग से घिरा हुआ। यह प्लेट लगभग स्थैतिक है तथा ऊपर की ओर उत्प्लावित होकर उठ रही है।
5. इण्डो-ऑस्ट्रल प्लेट - यह प्लेट दो भागों में विभक्त पाया जा रहा है सैटेलाइट सर्वेक्षण में नासा ने यह पाया है कि वस्तुतः यह दो प्लेट है। भारतीय प्लेट उत्तर में प्रायद्वीपीय भारत के महाद्वीप से युक्त तथा दक्षिण में सागर के नितल से युक्त है यह उत्तर की ओर लगभग 3 Cm. प्रतिवर्ष की गति से गमन कर रही है।
ऑस्ट्रेलिया की प्लेट के मध्य में ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप का केन्द्रीय क्षेत्र है जबकि चारों तरफ सागर के नितल से व्याप्त है यह प्लेट NNE दिशा में 2.5 Cm. प्रतिवर्ष गति से अग्रसर हो रहा है।
6. उत्तरी अमेरिकन प्लेट - यह प्लेट उत्तरी अमेरिका एवं मैक्सिको तथा उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक सागर के नितल से निर्मित है यह पश्चिम दिशा में करीब 2 से 3 Cm. की गति से अग्रसर है।
7. दक्षिण अमेरिका प्लेट - दक्षिण अमेरिका के महाद्वीपीय भाग एवं दक्षिण-पश्चिम अटलांटिक सागर के नितल से निर्मित है। यह पश्चिम दिशा की ओर 3 Cm. प्रतिवर्ष की गति से अग्रसर है।
(B) लघु प्लेट -
1. अरेबियन प्लेट
2. फीलीपींस प्लेट
3. केरेलाइन प्लेट
4. जुआन डी फूका प्लेट
5. केकोस (Cosos) प्लेट
6. नाजका (Nazca) प्लेट
7. कैरेबियन प्लेट
8. सोमालियन प्लेट
(ii) गतिक भाग - गतिक भाग में प्लेटों के पारस्परिक गतियों एवं गतियों के कारण उत्पन्न विभिन्न दशाओं का अध्ययन करते हैं। तीन प्रकार के प्लेट अन्तर्सम्बन्धों की परिकल्पना की गई है एवं इन तीन प्रकार के अंतर्सम्बन्धों के आधार पर तीन प्रकार की सीमाएँ सुनिश्चित की गई है। प्रथम अन्तर्सम्बन्ध (i) अपसारी-जहाँ दो प्लेट एक-दूसरे के अपेक्षा विपरीत दिशा में गमन करते हैं इस प्रकार के गमन से संरचनात्मक सीमा का निर्माण होता है।(ii) अभिसारी - इसमें दो प्लेट एक ही बिन्दु की ओर अग्रसर होते हैं एवं टकराते हैं। इस प्रकार की गति से विनाशकारी सीमा का निर्माण होता है (iii) समानांतर - इस गति में तथा इस तरह के अंतर्सम्बन्ध में दो प्लेटें एक-दूसरे के समानांतर फिसलती है या गति करती है। इस तरह के अन्तर्सम्बन्ध में संरक्षात्मक सीमा का निर्माण होता है।
तीन प्रकार की सीमाएँ -
1. विनाशात्मक
2. संरचनात्मक
3. संरक्षात्मक
प्लेट की सीमाएँ, अन्तर्सम्बन्ध एवं उत्पाद्य या परिणाम -
- प्लेटों के खिसकने की शक्तियाँ -
इस सिद्धान्त में शक्तियों के सम्बन्ध में स्पष्ट विचार नहीं है। परन्तु तीन प्रकार के शक्तियों का मिश्रित प्रभाव माना गया है -
(i) संवहनीय धाराएँ - भूतापीय ऊर्जा के उर्ध्वमुखी प्रवाह के कारण धाराएँ स्थलमण्डल के पास पहुँचती है परन्तु ऊँचाई के साथ क्रमशः ठण्डी होने के कारण एवं भू-चालक पदार्थों में निरन्तर वृद्धि होने के कारण ये निम्नाभिमुख हो जाती है। जहां पर ये धाराएं विस्थापित हो रही हैं वहाँ प्लेटों में अपसारी किनारों का निर्माण हो रहा है और जहाँ ये धाराएँ निम्नाभिमुख हैं वहां प्लेट अभिसारी किनारों का निर्माण कर रही है।
(ii) Push-Pull Model – जहाँ पर प्लेट विस्थापित हो रहे हैं वहाँ पर उठती हुई मैग्मा Push का कार्य करती है जबकि जहाँ प्लेट धंस रही हैं वहाँ खिंचाव की स्थिति है।
- पृथ्वी के कुछ विशेष भागों में ज्वालामुखीय प्रक्रियाएं बाह्य अन्तरम एवं मैंटल के सीमा क्षेत्र से उत्पन्न हो रही है जहाँ से Hot Plame of Megma ऊपर की ओर अग्रसर हो रहा है। भूतल पर कुछ स्थान विशेषों तक से पाए गए हैं। जहाँ निरन्तर पेरीडोटाइट एवं बेसाल्ट जैसे पदार्थ अत्यन्त धीमी गति से परन्तु निरंतर ऊपर की ओर उठ रहे हैं। उदाहरण - हवाई द्वीप, री-यूनियन द्वीप, आइसलैण्ड द्वीप, यलो स्टोन नेशनल पार्क इत्यादि।
- स्मरणीय है कि यह Hot Spot क्षेत्र प्लेटों के लगभग मध्य में पाए जाते हैं जिससे प्लेटों में उत्संवलन हो रहा है। जिससे प्लेटों के किनारे भाग निम्नाभिमुख हो जाते हैं।
l. विनाशात्मक सीमाएँ - प्लेटों के विनाशात्मक सीमाओं के पास दो प्लेट आपस में टकराते हैं अधिक भार अथवा घनत्व वाला प्लेट नीचे धंस जाता है जबकि हल्का एवं कम घनत्व वाला प्लेट ऊपर की ओर उत्प्लावित हो जाता है।
इस सीमा के पास तीन प्रकार के प्लेटों के अंतर्सम्बन्ध पाए जाते हैं -
(A) सागरीय-सागरीय प्लेट अन्तर्सम्बन्ध - अधिक घनत्व वाला सागरीय प्लेट नीचे धंस जाता है। धंसते हुए सागरीय तल पर अवसाद एवं उच्चावच, घसाव क्षेत्र में निर्मित गर्त में संवलित होकर ऊपर की ओर द्वितीय चाप का निर्माण करता है।
उदाहरण - जापान का होंशू द्वीप। टकराने के स्थान पर गर्त का निर्माण भी देखा जाता है।
(B) सागरीय एवं महाद्वीपीय प्लेटों के अन्तर्सम्बन्ध - चूँकि महाद्वीपीय भाग कम होने के कारण उत्प्लावित हो जाते हैं जबकि सागरीय प्लेट धंस जाता है। इस प्रक्रिया में भी समुद्री निक्षेप एवं महाद्वीपीय विक्षेप दोनों का संवलन होकर पर्वत निर्माण होते हैं जिन्हें Cordidlera कहते हैं।
उदाहरण-रॉकीज एवं एण्डीज।
(C) महादेशीय-महादेशीय प्लेटों के मध्य अन्तर्सम्बन्ध -वस्तुतः ये सागरीय किनारों के पूर्ण अवतलन के बाद की स्थिति है। जहाँ भी विक्षेपों के संवलन से पर्वतों का निर्माण होता है। जिसे हिमालयन समतुल्य अथवा अल्पाइन समतुल्य पर्वत कहते हैं।
2. रचनात्मक - रचनात्मक सीमा पर दो प्लेट अलग विस्थापित होने से मैग्मा बाहर निकलकर कटकों का निर्माण करती हैं। जिसके मध्य में भ्रंश घाटियों का तनावमूलक शक्तियों के कारण निर्माण होता है। मैग्मा का उत्सर्जन तीन कारण से होता है- (i) प्लेटों के भार हटने के कारण (ii) गर्म अवस्था में सिलिका अत्यन्त गतिशील होने से अतः इसमें ऊपर आने की प्रवृत्ति है (iii) उत्प्लावन बल।
3. संरक्षात्मक किनारा - इन किनारों के पास दो प्लेट समानांतर गति करते हैं जिससे न तो विनाश है और न ही रचना। परन्तु फिसलन के कारण भूकंपीय दशाओं को जन्म देती है। उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी तट पर ‘जुआन डी फुका प्लेट’ के पास की सीमा इसका उदाहरण हैं जहाँ SAN Andreas Fault अवस्थित है।
पर्वत (Mountain)
- कॉकेशस - यूरोप व एशिया के मध्य प्राकृतिक सीमा बनाता है। यूरोप की उच्चतम पर्वत चोटी “एल्बुर्ज” अवस्थित है।
- आल्प्स - यूरोप की मुख्य पर्वतमाला। यूरोप की दूसरी सबसे ऊँची पर्वत चोटी “माउण्ट ब्लांक (फ्रांस)” इसी पर अवस्थित है।
- डिनारिक आल्प्स - आल्प्स पर्वतमाला का दक्षिण पूर्वी विस्तार है जो कि पूर्णतः चूना पत्थर से निर्मित है।
- कार्पेथियन पर्वत - आल्प्स पर्वतमाला का पूर्वी विस्तार है। विस्तुला नदी का उद्गम भी है।
- पिरेनीज पर्वत - स्पेन व फ्रांस के मध्य सीमा बनाता है।
- यूराल पर्वत - यूरोप व एशिया के मध्य प्राकृतिक सीमा का निर्धारण करता है।
- जूरा पर्वत - फ्रांस व स्विट्जरलैण्ड के मध्य प्राकृतिक सीमा का निर्धारण करता है।
- वास्जेज पर्वत - फ्रांस व जर्मनी के मध्य प्राकृतिक सीमा का निर्धारण करता है।
- पेनाइन्स पर्वत - गेट ब्रिटेन का प्रमुख पर्वत। क्रॉस फैल इसका उच्चतम बिन्दु है।
- जोलेन पर्वत (KJOLEN) - नार्वे व स्वीडन के मध्य प्राकृतिक सीमा बनाता है। “केबनेकाअसे” स्वीडन की उच्चतम चोटी इसी पर अवस्थित है।
- एटना ज्वालामुखी - सिसली द्वीप (इटली का द्वीप) पर यूरोप का प्रमुख सक्रिय ज्वालामुखी है।
- विसुवियस - नेपल्स शहर में यूरोप की मुख्य भूमि पर एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी है।
- रॉकीज पर्वत - उत्तरी अमेरिका का प्रमुख नवीन मोड़दार पर्वत। रॉकीज पर्वत की अलास्का श्रेणी में उत्तरी अमेरिका की सबसे ऊँची चोटी “माउण्ट मैकिन्ले” अवस्थित है। दूसरी ऊँची चोटी माउण्ट लोगान है।
- अप्लेशियन पर्वत - पूर्वी उत्तर अमेरिका का प्रमुख पर्वत। कोयला व लौह अयस्क के भण्डार से परिपूर्ण है। इसका पूर्वी भाग “ग्रीन पर्वत” कहलाता है। मा.मिचेल उच्चतम बिन्दु।
- एण्डीज पर्वत - दक्षिणी अमेरिका का प्रमुख पर्वत। विश्व का वृहद् वलित पर्वत तंत्र जो सात देशों में विस्तृत है। इसकी उच्चतम पर्वत चोटी-अकांकागुआ (अर्जेण्टीना) है।
- सियरा माड्रे - रॉकीज पर्वत श्रेणी में संयुक्त राज्य अमेरिका की ऊँची चोटी।
- माउण्ट कोटोपेक्सी - एण्डीज में अवस्थित विश्व का सबसे ऊँचा ज्वालामुखी शिखर।
- माउण्ट चिम्बोरोजो - इक्वेडोर राष्ट्र में अवस्थित एण्डीज तंत्र का ज्वालामुखी शिखर।
- ओजस डेल एलाडो - अर्जेण्टीना में अवस्थित एण्डीज तंत्र का ज्वालामुखी शिखर।
- एटलस पर्वत - मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया तक विस्तृत अफ्रीका का प्रमुख पर्वत। माउण्ट टुब्कल (मोरक्को) इसका सर्वोच्च शिखर है।
- ड्रेकन्सबर्ग पर्वत - दक्षिणी अफ्रीका का प्रमुख पर्वत। सर्वोच्च चोटी-थबाना नेत्याना है।
- जोंस का पठार - मध्य नाइजीरिया में टिन हेतु प्रसिद्ध पठारी उच्च भूमि।
- कटंगा पठार - जांबिया व जिम्बाब्वे के मध्य 1000 मीटर ऊँचा पठार जो कि ताँबा, हीरा व यूरोनियम खनिजों से सम्पन्न।
- माउण्ट किलिमंजारो - अफ्रीका महाद्वीप की सबसे ऊँची चोटी।
- माउण्ट कैमरून - अफ्रीका महाद्वीप का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी। कैमरून देश में स्थित है।
- ग्रेट डिवाइडिंग रेंज - ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट के सहारे प्रमुख पर्वत। इसकी सर्वोच्च चोटी माउण्ट “कोशियुस्को” है।
- हिंदूकुश - विश्व की दूसरी सर्वाधिक ऊँची श्रेणी। पाकिस्तान में अवस्थित।
- सुलेमान - पाकिस्तान व अफगानिस्तान को जोड़ने का खैबर दर्रा इसी में अवस्थित है।
- किरथर - सुलेमान श्रेणी का विस्तार है। इसमें बोलन दर्रा अवस्थित है।
- पामीर का पठार - विश्व की छत, सबसे ऊँचा पठार, मध्य एशिया की पर्वत श्रेणियों का मिलान बिन्दु।
- एल्बुर्ज पर्वत - उत्तरी ईरान की प्रमुख पर्वत शृंखला (कैस्पियन सागर के दक्षिण में)
- जाग्रोस पर्वत - पश्चिमी ईरान की प्रमुख पर्वत शृंखला। ईरान के प्रमुख तेल केन्द्र यहाँ अवस्थित है। एल्बुर्ज व जाग्रोस पर्वत पश्चिम दिशा में माउण्ट अरारात की ग्रंथि पर मिल जाते हैं।
- पांटिक पर्वत - अनातोलिया पठार की उत्तरी सीमा पर टर्की देश में।
- टौरस पर्वत - दक्षिणी टर्की में अनातोलिया पठार की दक्षिणी सीमा। क्रोमियम, तांबा, चांदी व जिंक के भण्डार से समृद्ध है।
- अनातोलिया का पठार - पांटिक पर्वत व टौरस पर्वत के मध्य टर्की का प्रमुख पठार। दजला व फरात नदियों का उद्गम स्थल।
- तिएनशान - तारिम बेसिन के उत्तर में चीन व रूस में विस्तृत। खनिजों से सम्पन्न।
- क्यूनलून - तिब्बत पठार के उत्तर में चीन की प्रमुख पर्वत श्रेणी।
- अल्ताई सेन - चीन व मंगोलिया के मध्य उत्तर पश्चिम दिशा में। इर्तिश व ओब नदी का उद्गम यही से होता है।
- सयान पर्वत - रूस व मंगोलिया के मध्य सीमा का निर्धारण करता है।
- कोरट का पठार - थाइलैण्ड में, मोटे अनाजों की खेती हेतु प्रसिद्ध है।
- शान का पठार - म्यांमार के मध्य भाग में अवस्थित पठार जो कि कीमती पत्थरों जैसे- नीलम, माणिक व पन्ना इस पठार में मिलते हैं।
- पोटवार का पठार - पाकिस्तान के उत्तरी भाग में। खनिज तेल के यहाँ भण्डार हैं।
- बलूचिस्तान का पठार - पाकिस्तान के द.पश्चिमी भाग में। कोयला, लौह, अयस्क व सोना मिलता है।
पठार (Plateu)
- पठार भूपटल के द्वितीय श्रेणी के उच्चावच के प्रमुख उदाहरण हैं तथा ऊँचाई की दृष्टि से पर्वतों के बाद और क्षेत्रीय विस्तार के अनुसार मैदान के बाद अपना स्थान रखते हैं। समस्त भूपटल के 41 प्रतिशत भाग पर मैदानों, 33 प्रतिशत पर पठारों, 14 प्रतिशत पर पहाड़ियों तथा 12 प्रतिशत भाग पर पर्वतों का विस्तार है।
पठार की सामान्य विशेषताएँ -
- स्थिति की दृष्टि से पठारों में पर्याप्त विभेद होता है। कुछ पठार पर्वतों से घिरे होते हैं तथा कुछ पठार एक ओर पर्वत तथा दूसरी और मैदान या तटीय भाग से घिरे होते हैं। पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका का पीडमाण्ट पठार पश्चिम में अप्लेशियन पर्वत तथा पूर्व में अटलाण्टिक तटीय मैदान से घिरा है।
- एशिया का तिब्बत का पठार, आनतोलिया का पठार तथा ईरान का पठार पर्वतों से घिरे पठारों के उदाहरण हैं।
- पठारों की सबसे बड़ी विशेषता उनका सपाट किन्तु विस्तृत शिखर का होना है। पठार के किनारे वाले ढाल खड़े होते हैं परन्तु शिखर भाग छोटे-छोटे उच्चावच की असमानताओं को छोड़कर प्रायः चौरस तथा अत्यधिक विस्तृत होता है।
- यह कोई आवश्यक नहीं है कि पठार का ऊपरी भाग बिल्कुल सपाट ही हो, क्योंकि अपरदन द्वारा उसमें असमानता का होना आवश्यक है। रांची पठार का ‘पाट प्रदेश’ इसका प्रमुख उदाहरण हैं।
पठारों का निर्माण तथा विकास
- पठार की सबसे प्रमुख विशेषता उसका समीपी सतह से ऊँचा होना है। इस तरह पठार के निर्माण के लिए प्रमुख समस्या वांछित ऊँचाई की प्राप्ति की है। पठारों का निर्माण इस आधार पर कई रूपों में हो सकता है :
1. यदि आसपास की जमीन का अवसंवलन (downwarping) हो जाए तो अवशेष स्थल भाग एक पठार का रूप धारण कर सकता है।
2. उत्संवलन (upwarping) की क्रिया के कारण जब किसी विस्तृत स्थलखण्ड का कुछ भाग समीपी सतह से ऊँचा उठ जाता है तो पठार का निर्माण होता है।
3. मैदानी भागों या निचले भागों में लावा प्रवाह के कारण प्राप्त लावा के अत्यधिक जमाव के कारण वह स्थलखण्ड समीपी सतह से ऊँचा उठ जाता है तथा पठार का रूप धारण कर लेता है। संयुक्त राज्य अमेरिका का कोलम्बिया का पठार निश्चय ही लावा निर्मित पठार का एक उदाहरण है।
4. पर्वतों के निर्माण के समय पर्वतों के साथ कुछ समीपी भाग अधिक ऊपर न उठ पाने के कारण पठार का रूप धारण कर लेते हैं। अप्लेशियन पर्वत के पूर्व में पीडमाण्ट पठार को इसका उदाहरण बताया जा सकता है।
5. पर्वत निर्माण के समय भूसन्नति के दोनों किनारों पर वलन पड़ने तथा बीच वाले मध्य देश के अप्रभावित रह जाने से तथा उसमें कुछ उत्थान हो जाने से पठार का निर्माण होता है। तिब्बत का पठार इसका उदाहरण बताया जा सकता है।
6. अनाच्छादन (denudation) के कारण उच्च पर्वतीय भाग कटकर नीचे हो जाते हैं। ये निचले भाग जो कि अब भी आसपास की सतह से ऊँचे होते हैं, ‘पठार’ कहे जाते हैं।
7. पवन द्वारा मिट्टियों के निक्षेपण से भी पठारों का निर्माण हो जाता है। पवन अपने साथ अधिक मात्रा में मिट्टियाँ उड़ाकर लाती है तथा उन्हें निम्न भाग में जमा करते-करते उस भाग को समीपी सतह से ऊँचा उठा देती है, जिससे पठार का निर्माण होता है। चीन में इस तरह का लोयस का पठार मिलता है।
पठारों का वर्गीकरण -
- पठारों का निम्न वर्गीकरण प्रस्तुत किया जा सकता है-
1. निर्माण की प्रक्रिया के अनुसार
(क) सामान्य पठार
(1) बहिर्जात शक्तियों या कारकों द्वारा निर्मित पठार
(i) हिमानीकृत पठार-गढ़वाल का पठार
(ii) पवन द्वारा निर्मित पठार-पोटावर का पठार
(iii) जल द्वारा निर्मित पठार-विन्ध्य पठार,
चेरापूँजी का पठार
(2) अन्तर्जात बल द्वारा उत्पन्न पठार
(ख) पटलविरूपणी पठार (diastrophic plateau)
(iv) अन्तरापर्वतीय पठार
(intermontane plateau)
(v) गिरिपद पठार (piedmont plateau)
(vi) गुम्बदीय पठार (dome plateau)
(ग) आकस्मिक अन्तर्जात बल द्वारा निर्मित पठार
(vii) ज्वालामुखी पठार
(अ) लावा पठार
(1) अन्तर्वेधी पठार (instrusive plateau)
(2) बहिर्वेधी पठार (extrusive plateau)
(ब) केन्द्रीय उद्गार द्वारा निर्मित पठार
(घ) मिश्रित पठार (compound plateau)
2. भौगोलिक स्थिति के अनुसार वर्गीकरण
(i) अन्तरापर्वतीय पठार
(ii) गिरिपद पठार
(iii) महाद्वीपीय पठार
(iv) तटीय पठार
- निर्माण की प्रक्रिया के अनुसार वर्गीकरण - भूपटल पर पठारों का निर्माण विभिन्न रूपों में होता है। पृथ्वी के अन्तर्जात बल, बहिर्जात बल, दोनों का पठारों के निर्माण तथा विकास में पर्याप्त सहयोग होता है। अन्तर्जात बल खासकर पटलविरूपण तथा ज्वालामुखी भूपटल के विशालकाय पठारों को जन्म देने वाले हैं। इसके विपरीत बहिर्जात बल पठारों का निर्माण तो कम करते हैं, उनका अपरदन द्वारा विनाश अधिक करते हैं। यहाँ पर संक्षेप में बहिर्जात तथा अन्तर्जात बलों द्वारा उत्पन्न पठारों के विभिन्न प्रकारों का संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है।
(अ) बहिर्जात बल (अपरदन के कारक) द्वारा निर्मित पठार -अपरदन के कारकों में हिमानी, पवन तथा बहते हुए जल (नदी) द्वारा पठारों का निर्माण होता है। इस तरह के पठार साधारण तथा कम महत्त्वपूर्ण होते हैं -
1. हिमानी पठार (glacial plateau)
विस्तृत हिमानी पर्वतीय भागों को अपने अपरदन कार्य द्वारा घिसकर सपाट पठार का निर्माण करते हैं। अण्टार्कटिका तथा ग्रीनलैण्ड में हिमानियों ने अपरदन द्वारा अनेक विस्तृत पठारों का निर्माण किया है। भारत के गढ़वाल पठार का निर्माण हिमानी द्वारा अपरदन के कारण ही हुआ है। निम्न स्थानों पर हिमानी अपने हिमोढ़ के निक्षेप द्वारा स्थलखण्ड को ऊँचा करके छोटे पठारों का निर्माण करता है।
2. जलकृत पठार (fluvial plateau)
नदियों द्वारा तलछट के निक्षेप द्वारा स्थलखण्ड ऊँचा होता रहता है। तलछटीय जमाव के कारण अधिक भाग तलछट शैल में परिवर्तित होते रहते हैं। भू हलचल के कारण ये भाग समीपी सतह में ऊँचे उठ जाते हैं तथा पठार का निर्माण हो जाता है। भारत के विन्ध्य पठार, चेरापूँजी पठार तथा बर्मा (म्यांमार) के शान पठार इसी तरह निर्मित पठार के उदाहरण हैं।
3. पवनकृत पठार
पवन अपने साथ मिट्टी के बारीक कण उड़ाकर लाती है तथा उनको सुनिश्चित स्थान पर निक्षेप कर देती है। इस तरह लम्बे समय तक निक्षेप के कारण मिट्टियाँ शैल में बदल जाती हैं और पठार का निर्माण हो जाता है। पाकिस्तान का पोटवार का पठार तथा चीन का लोयस का पठार इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
(ब) पटलविरूपणी पठार (diastrophic plateau) -प्रायः विश्व के सर्वोच्च तथा अत्यधिक विस्तृत पठारों का निर्माण पटलविरूपणकारी बल के कारण लम्बवत् तथा क्षैतिज संचलन द्वारा हुआ है। भूपटल में उत्थान के कारण उच्च पठारों का निर्माण होता है। स्थिति के विचार से पटलविरूपणी पठार पाँच तरह के होते हैं- अन्तरापर्वतीय पठार, पीडमाण्ट या गिरिपद पठार, महाद्वीपीय पठार तथा गुम्बदाकार पठार।
1. अन्तरापर्वतीय पठार (intermontane plateau) - वास्तव में भूपटल के सर्वोच्च, सर्वाधिक विस्तृत तथा अत्यधिक जटिल पठार इस श्रेणी में आते हैं। चारों तरफ से पर्वतों से घिरे होने के कारण इन पठारों को ‘अन्तरापर्वतीय पठार’ कहा जाता है। अन्तरापर्वतीय पठारों का निर्माण अन्तर्जात बल द्वारा वलित पर्वतों के निर्माण के साथ होता है। भूसन्नति के किनारों पर पर्वत श्रेणियों के निर्माण के साथ बीच वाले मध्यपिण्ड (median mass) के ऊपर उठ जाने से अन्तरापर्वतीय पठारों का निर्माण होता है। तिब्बत का पठार इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। बोलिविया तथा पीरू के पठार, कोलम्बिया का पठार, मैक्सिको का पठार, इसके अन्य प्रमुख उदाहरण हैं। तिब्बत का पठार विश्व में सबसे ऊँचा पठार है जो कि सागर तल से औसत रूप में 16,000 फीट ऊँचा है। पठार का कुछ भाग 18,000 फीट तक भी ऊँचा है। क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से भी (क्षेत्रफल 7,00,000 से 8,00,000 वर्गमील) तिब्बत का पठार विश्व का सबसे बड़ा पठार है।
2. गिरिपद पठार (piedmont plateau) - पर्वतों के आधार पर स्थित पठारों को ‘गिरिपद पठार’ कहा जाता है। ये पठार एक ओर से उच्च पर्वतों से घिरे होते हैं तथा दूसरी ओर से सागर या मैदान से घिरे होते हैं। पठार का मैदान की ओर वाला ढाल तीव्र तथा खड़ा होता है, जो कि एस्कार्पमेण्ट की रचना करता है। इनका निर्माण भी उत्थान के कारण उन्हीं पर्वतों के साथ होता है, जिनके साथ ये पठार मिलते हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका के पीडमाण्ट पठार तथा दक्षिणी अमेरिका के पैटागोनिया के पठार गिरिपद पठार के सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
3. गुम्बदाकार पठार - वलन की क्रिया द्वारा जब स्थलखण्ड में इस तरह का उत्थान हो जाता है कि बीच का भाग ऊँचा होता है तथा किनारे वाले भाग गोलाकार होते हैं, तो उसे ‘गुम्बदाकार पठार’ कहा जाता है। गुम्बदाकार पठार तथा पर्वत में अन्तर यह होता है कि प्रथम अधिक विस्तृत, परन्तु कम ऊँचा होता है। ज्वालामुखी उद्गार के समय भी भूपटल में विस्तृत उभार के कारण गुम्बदाकार पठारों का निर्माण हो सकता है। भारत के छोटानागपुर के पठार को गुम्बदाकार पठार का उदाहरण बताया जा सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका का ओजार्क पठार इस तरह के पठार का सर्वोत्तम उदाहरण है।
4. महाद्वीपीय पठार - जैसा कि नाम से ही विदित है, महाद्वीपीय पठार अत्यधिक विस्तृत पठारों के उदाहरण होते हैं, जो कि प्रायः पर्वतीय भागों से दूर किन्तु सागरीय तटों या मैदानों से घिरे होते हैं। कभी-कभी इनकी एकाध सीमा पर्वतों द्वारा निर्धारित हो सकती है, परन्तु ऐसा होना आवश्यक नहीं है। सागरीय तट या मैदान से इनका उठाव स्पष्ट रूप से दिखता है। प्रायद्वीपीय भारत का पठार महाद्वीपीय पठार का सर्वोत्तम उदाहरण है, जो कि कई लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है। यह पठार न केवल महाद्वीपीय पठार का ही उदाहरण प्रस्तुत करता है, वरन् भूपटल के प्राचीनतम पठारों को भी प्रदर्शित करता है।
5. तटीय पठार - सागरीय तटों के पास स्थित पठारों को तटीय पठार के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। भारत के कारोमण्डल तट को तटीय पठार का उदाहरण बताया जाता है।
ज्वालामुखी पठार - ज्वालामुखी उद्गार के कारण विस्तृत लावा प्रवाह के फलस्वरूप क्रमिक रूप में लावा के परत के ऊपर परत जमने से स्थलखण्ड समीपी सतह से ऊँचा हो जाता है तथा लावा पठार का निर्माण होता है।
ज्वालामुखी के दरारी उद्गार के कारण निर्मित पठार के उदाहरण न्यूजीलैण्ड, दक्षिणी अफ्रीका, उत्तरी तथा दक्षिणी अर्जेण्टीना, ब्राजील, पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस तथा साइबेरिया में मिलते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका का कोलम्बिया का पठार, लावा निर्मित पठार का सर्वोत्तम उदाहरण है।
मैदान (Plains)
- भूपटल के द्वितीय श्रेणी के सभी उच्चावचों में ‘मैदान’ सर्वाधिक स्पष्ट तथा सरल हैं। इनके निर्माण तथा रचना की सरलता के कारण इनका वर्गीकरण भी अधिक सरल तथा सुबोध है। मैदान प्रायः भूपटल पर समतल किन्तु निचले स्थलखण्ड होते हैं। सागर तल से नीचे भी होते हैं। उदाहरण के लिए हॉलैण्ड का तटीय मैदान। इसके विपरीत कुछ मैदान सागर तल से केवल कुछ ही मीटर ऊँचे होते हैं जबकि कुछ मैदान सैकड़ों मीटर तक ऊँचे होते हैं। उदाहरण के लिए मिसीसिपी के मैदान पूर्वी भाग में 1500 फीट (462 मीटर) ऊँचा है, जो कि अप्लेशियन पीडमाण्ट पठार से ऊँचा है।
- ऊँचाई की दृष्टि से सागर तल से 150 मीटर तक ऊँचे किन्तु समतल तथा विस्तृत स्थलखण्ड को ‘मैदान’ की संज्ञा प्रदान की जा सकती है।
- द्वितीय श्रेणी के स्थलरूप के अन्तर्गत मैदान में तटीय मैदान तथा आन्तरिक मैदान को ही सम्मिलित किया जाता है। इसके विपरीत कुछ मैदानों का निर्माण अपरदन के कारकों द्वारा भी अपरदन तथा निक्षेप द्वारा होता है।
- भूपटल पर मिलने वाले मैदानों का निर्माण विभिन्न रूपों में सम्पन्न हुआ है। अधिकांश मैदानों को देखने से पता लगता है कि एक लम्बे समय तक सागर के नीचे थे, जिन पर सागरीय अवसाद का निक्षेप होता रहा। बाद में पटलविरूपणी लम्बवत् संचलन के कारण उत्थान या निर्गमन (emergence) द्वारा उनका उभार हो गया, जिससे वे सागरतल से ऊपर उठ आए। मैदानों का निर्माण निम्न रूपों में होता है-
(1) अधिकांश विस्तृत मैदानों का निर्माण पटल विरूपणी बल के कारण अधिमहाद्वीपीय सागर (Epicontinental Sea) में जलमग्न स्थलखण्डों के उत्थान के कारण होता है।
(2) पटलविरूपणी बल के कारण पर्वतीकरण के समय पर्वत के सामने वाले स्थलखण्ड का प्रायः अवतलन हो जाता है, जिसमें नदियों द्वारा निक्षेप के कारण विस्तृत मैदान का निर्माण होता है। भारत का विशाल उत्तरी मैदान इसका प्रमुख उदाहरण है।
(3) पर्वतीकरण के समय दो श्रेणियों के मध्य की भूसन्नति का मध्य पिण्ड (median mass) वलन की क्रिया से प्रभावित न होने के कारण सपाट ही रह जाता है। यह भाग अगर नीचा होता है तो ‘मैदान’ कहा जाता है।
(4) सागरीय किनारों पर तटीय भाग निमज्जन (submergence) के कारण जलमग्न होता है। उस पर निक्षेप होते रहने से तटीय मैदान का निर्माण हो जाता है। भारत का कर्नाटक तथा उत्तरी सरकार (पूर्वी तटीय भाग) इसका प्रमुख उदाहरण है।
(5) सागर के निवर्तन (retreat) या पीछे हटने से स्थलखण्ड सूख कर मैदान बन जाते हैं। भारत का कच्छ मैदान इसी प्रकार निर्मित मैदान है।
(6) एक लम्बे समय तक अपरदन के कारण पठार घिसकर नीचे हो जाते हैं तथा मैदानों का निर्माण हो जाता है। उपर्युक्त वर्णित मैदान मुख्य रूप से द्वितीय श्रेणी के उच्चावच्च के उदाहरण हैं।
(अ) रचना के अनुसार वर्गीकरण (ट्रिवार्था)
1. समतल मैदान (flat plain)
2. तरंगित मैदान (undulating plain)
3. लहरदार या उर्मिल मैदान (rolling plain)
4. विच्छेदित या विभाजित मैदान (dissected plain)
(ब) निर्माण की प्रक्रिया के अनुसार
1. अन्तर्जात बल द्वारा उत्पन्न मैदान (रचनात्मक मैदान)
(i) पटल विरूपणी मैदान
(अ) उत्थान द्वारा निर्मित मैदान
(ब) अवतलन तथा निक्षेप द्वारा निर्मित मैदान
(ii) आकस्मिक घटना द्वारा निर्मित मैदान
ज्वालामुखी (लावा) मैदान
2. बहिर्जात बल द्वारा निर्मित मैदान
(i) अपरदनात्मक मैदान
(ii) निक्षेपात्मक मैदान
v पटलविरूपणी मैदान (Diastrophic Plain) - पटलविरूपणी क्रिया के अन्तर्गत महादेशजनक बल (epeirogenetic force) द्वारा भूपटल में उत्थान तथा अवतलन या सागर से स्थलखण्ड के निर्गमन (emergence) या निमज्जन (submergence) के कारण मैदानों का निर्माण होता है। इस क्रिया द्वारा मुख्य रूप से अधिमहाद्वीपीय सागरों (epicontinental seas) में निमज्जित भाग के ऊपर उठने या अवतलित होने से उस पर निक्षेप के कारण मैदानों का निर्माण होता है। अधिसागरीय भाग से उत्थान के कारण निर्मित मैदानों में संयुक्त राज्य अमेरिका के वृहत मैदान (Great Plains Province) अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
v अपरदनात्मक मैदान - भूपटल पर समतल स्थापक शक्तियाँ (नदी, हिमानी, पवन, सागरीय लहरें) स्थलखण्ड की विषमताओं को अपरदन द्वारा दूर करने का प्रयास करती हैं। अन्ततः उत्थित विभिन्न उच्चावच वाला स्थलखण्ड एक सपाट तथा आकृतिविहीन मैदान के रूप में बदल जाता है। निम्न अपरदनात्मक मैदानों का उल्लेख किया जा रहा है-
(i) नदी द्वारा निर्मित अपरदनात्मक मैदान - नदियों के अपरदन द्वारा निर्मित मैदानों में सर्वप्रथम पेनीप्लेन या समप्राय मैदान है। नदियाँ अपने अपरदनचक्र की अन्तिम अवस्था में उच्च स्थल खण्ड (पहाड़, पठार आदि) को काटकर अपने आधार तल को प्राप्त कर लेती हैं। इस तरह से निर्मित मैदान को ‘पेनीप्लेन’ या ‘समप्राय मैदान’ कहा जाता है।
(ii) हिमअपरदित मैदान (glaciated plain) - हिमानी अपने अपरदन द्वारा उच्च भाग को घिसकर सपाट, परन्तु उच्चावच युक्त मैदान का निर्माण करती है। हिमानीघर्षित मैदान में चोटियाँ गोलाकार होती हैं। घाटियाँ चौड़ी होती हैं।
उदाहरण कई की संख्या में उत्तरी अमेरिका के उत्तरी भाग तथा उत्तरी-पश्चिमी यूरेशिया में मिलते हैं।
(iii) पवन अपरदित मैदान - मरुस्थलीय भागों से चट्टानें यांत्रिक अपक्षय द्वारा विघटित तथा वियोजित होकर ढीली पड़ जाती हैं। वेगवती पवन इन ढीले कणों को उड़ाकर अन्यत्र जमा करती है। इस तरह की क्रिया की लम्बे समय तक पुनरावृत्ति के कारण चट्टानी भाग घिसकर मैदान के रूप में बदल जाता है। पवन द्वारा घर्षित मैदान के उदाहरण सहारा के रेग, सेरिर तथा हमादा हैं।
(iv) चूनेदार मैदान या कार्स्ट मैदान - चूने की चट्टान वाले क्षेत्र में भूमिगत जल की क्रिया द्वारा उसकी ऊपरी सतह तथा निचली सतह में अपरदन कार्य होता रहता है, जिस कारण एक लम्बे समय में अधिकांश भाग कटकर तथा घिसकर नीचा हो जाता है। जीर्णावस्था में जब अधिकांश चूने की चट्टानें घिसकर कट जाती हैं तो अपवाह प्रतिरूप सतह पर दृष्टिगत होता है। इस समय तक पठार कटकर एक मैदान के रूप में बदल जाता है परन्तु इस तरह के मैदान की ऊपरी सतह बिल्कुल समतल नहीं होती है। धरातल ऊबड़-खाबड़ तथा तरंगित (undulating) होता है।
- निक्षेपजनित मैदान - निक्षेप द्वारा निर्मित मैदान बड़े भी होते हैं तथा छोटे भी। गंगा-सतलज का मैदान, मिसीसिपी का मैदान, यांगटिसीक्यांग का मैदान, हवांगहो (यलो नदी) का मैदान आदि नदियों द्वारा लाए गए मलवा के निरन्तर जमा होते रहने से ही निर्मित हुए हैं। उपर्युक्त मैदान निश्चित रूप से विस्तृत तथा सर्वाधिक उपजाऊ मैदानों के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
(1) नदी द्वारा निक्षेपित मैदान - अपरदन के कारकों द्वारा निक्षेप से बने हुए मैदानों में नदी द्वारा निक्षेपित मैदान सर्वाधिक विस्तृत तथा महत्त्वपूर्ण होता है। विश्व की प्रसिद्ध नदियों के मैदान इसके प्रमुख उदाहरण हैं। नदी द्वारा निर्मित मैदानों में गिरिपद जलोढ़ मैदान, बाढ़ के मैदान तथा डेल्टा मैदान अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं-
(i) गिरिपद जलोढ़ मैदान - नदी के निक्षेप द्वारा निर्मित मैदानों को मुख्य रूप से ‘जलोढ़ मैदान’ कहा जाता है। भारत में हिमालय पर्वत की निचली तलहटी में पर्वत के पाद के पास बड़े-बड़े टुकड़ों के ढेर से निर्मित इस तरह का मैदान भाबर कहा जाता है।
(ii) बाढ़ मैदान (flood plains) - नदी जब अपरदन द्वारा अपने आधार तल को प्राप्त कर लेती है, तो उसकी धारा मन्द पड़ जाती है। फलस्वरूप वह अपने अगल-बगल बारीक कणों वाले पदार्थों का निक्षेपण करने लगती है। बाढ़ के समय तक जितनी दूरी तक नदी का जल फैल जाता है, वहाँ तक बारीक कणों से मलबा का निक्षेप हो जाने से निर्मित मैदान को बाढ़ का मैदान कहा जाता है।
(iii) डेल्टा का मैदान - जब नदियाँ सागरों या झीलों में गिरती हैं तो वेग में कमी के कारण मुहाने के पास तलछट का निक्षेप होने से समतल तिकोनाकार मैदान का निर्माण होता है, जिसे ‘डेल्टा’ कहते हैं। यह ग्रीक भाषा के अक्षर से मिलता है। अतः इस मैदान को ‘डेल्टा’ कहते हैं। गंगा नदी का डेल्टा 50,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैला हुआ है। डेल्टा के ऊँचे भागों को चार तथा निचले भागों को बील (बंगाल में) कहा जाता है। डेल्टाई मैदान भी खेती की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।
(2) झीलकृत मैदान (Lacustrine Plain) - झीलों में गिरने वाली नदियाँ अपने साथ लाए हुए मलवा का उनमें निक्षेप करती रहती हैं, जिनसे झीलों की तली उथली होती जाती है और गहराई कम हो जाती है। धीरे-धीरे तलछटीय निक्षेप द्वारा झील भर जाती है और एक सपाट मैदान का निर्माण हो जाता है। दूसरे रूप में पृथ्वी के अन्तर्जात बल के कारण पटलविरूपणी संचलन द्वारा झील की तली ऊपर उठ आती है, जिससे उसका जल बह जाता है और एक मैदान का निर्माण होता है।
(3) लावा मैदान - ज्वालामुखी उद्गार से निकले लावा का जब पतली चादर के रूप में निचले भागों में निक्षेप हो जाने से सपाट भाग का निर्माण हो जाता है, तो उसे लावा मैदान कहते हैं। अधिक लावा के निक्षेप के कारण ऊँचे भाग ‘पठार’ कहे जाते हैं, परन्तु उनका अपरदन हो जाने पर मैदान का निर्माण हो जाता है। लावा मैदान काली मिट्टी के कारण खेती के लिए अधिक उपजाऊ होता है।
(4) पवन द्वारा निक्षेपित मैदान - पवन द्वारा निक्षेपित मैदान दो तरह के होते हैं। एक तो रेतीला मैदान या रेगिस्तानी मैदान होता है तथा दूसरा लोयस का मैदान। मरुस्थली भागों में पवन, यांत्रिक अपक्षय द्वारा विघटित एवं वियोजित बालुका पत्थर से बालू या रेत को उड़ाकर अन्यत्र जमा करके मैदानों का निर्माण करती है। लोयस का मैदान प्रायः मरुस्थलों से दूर निर्मित होता है। मरुस्थलीय भागों से आने वाली आँधियाँ अपने साथ में रेत तथा अन्य मिट्टी के कणों को उड़ाकर अधिक दूर तक ले जाती हैं। जहाँ पर उनकी गति मन्द पड़ जाती है, वहीं पर इन पदार्थों का निक्षेप हो जाने से ‘लोयस मैदान’ का निर्माण होता है। चीन के प्रसिद्ध लोयस के मैदान का निर्माण उदाहरण है।
(5) हिमानी द्वारा निक्षेपित मैदान - हिमानी तथा हिमचादर द्वारा मलवा के निक्षेप को ‘हिमानीकृत मैदान’ कहा जाता है। उत्तरी पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में प्लीस्टोसीन हिमाच्छादन के कारण निर्मित हिमानी मेदान अत्यधिक विस्तृत क्षेत्रों में मिलते हैं। इनकी सतह समतल नहीं होती है, क्योंकि निक्षेप द्वारा तरह-तरह के छोटे-छोटे मरुस्थलों की रचना हो जाती है।
(i) टिल मैदान - हिमानी द्वारा लाए गए छोटे कणों से लेकर बड़े कणों वाले टुकड़ों को ‘टिल’ कहा जाता है। इनके निक्षेपण से निर्मित मैदान टिल मैदान होता है, जिसका तल लहरदार होता है और इसमें छोटी-छोटी चोटियाँ तथा गड्ढे होते हैं।
(ii) हिमोढ़ मैदान (moraine plains) - हिमानी द्वारा बारीक कणों वाले मलवे को ‘हिमोढ़’ कहते हैं। हिमोढ़ द्वारा निर्मित मैदान मुख्य रूप से असमान धरातल वाले होते हैं।
(iii) हिमनद अवक्षेप मैदान - हिमचादर के पिघल जाने पर जलधारा के द्वारा रेत, बजरी, मृत्तिका आदि का निक्षेप हो जाने से समतल सतह वाले मैदान को ‘हिमनद अवक्षेप मैदान’ कहते हैं।
- धरातलीय बनावट की दृष्टि से निम्न चार वर्गों में विभाजित किया है-
(i) समतल मैदान - उच्चावचीय कम विषमता वाले सपाट तथा विस्तृत मैदान को ‘समतल मैदान’ कहा जाता है। इस तरह के मैदान में निम्नतम तथा उच्चतम भागों का अन्तर 15 मीटर से अधिक नहीं होता है।
(ii) तरंगित मैदान (undulating plains) - समान उतार व चढ़ाव वाले मैदान को ‘तरंगित मैदान’ कहा जाता है, जिसमें निम्नतम तथा उच्चतम भागों में अन्तर 15 मीटर से 50 मीटर तक होता है।
(iii) लहरदार या बेलनी मैदान (rolling plains) - जब मैदान की सतह समतल न होकर विषम होती है तथा छोटे-बड़े टीले यत्र-तत्र मिलते हैं, तो उस मैदान को ‘लहरदार या बेलनी मैदान’ कहते हैं। इस तरह के मैदान में निम्नतम तथा उच्चतम भागों का अन्तर 50 से 100 मीटर तक होता है।
(iv) विच्छेदित मैदान (dissected plains) - अनाच्छादन (denudation) द्वारा कटे-फटे तथा ऊबड़-खाबड़ मैदान को ‘विच्छेदित मैदान’ कहते हैं, जिनमें उच्चतम तथा निम्नतम भागों में 75 से 100 मीटर तक का अन्तर होता है।
झील (Lakes)
- सामान्य रूप से झील भूतल के वे विस्तृत गड्ढे होती हैं जिनमें जल भरा होता है इस तरह झीलें स्थल के आन्तरिक भाग में स्थित जलपूर्ण गर्त होती हैं। ताल तथा झील में कोई निश्चित अन्तर नहीं होता है क्योंकि यदि छोटी झीलें कुछ वर्ग मीटर तक ही होती हैं तो ताल कभी-कभी हजारों वर्गमीटर तक होते हैं।
- साधारण तौर पर झील की निम्न परिभाषा प्रस्तुत कर सकते हैं- ‘झील जल के वे स्थिर भाग होती हैं जो चारों तरफ से स्थलखण्डों से घिरी होती हैं तथा स्थल भाग में स्थित होती हैं।
झीलों का वितरण -
- झील और नदी में अन्तर स्थापित किया जा सकता है। झीलों का जल प्रायः स्थिर होता है, परन्तु नदियों के जल में धारा तथा वेग होता है।
- सामान्य रूप से झीलों की अधिकता अग्रलिखित क्षेत्रों में होती है- (1) आर्द्र प्रदेशों में, (2) हिमानीकृत क्षेत्रों में, (3) नदियों के बाढ़ वाले मैदानों में, (4) सागर तटीय भागों तथा (5) रिफ्ट घाटी वाले क्षेत्रों में।
- संसार की प्रमुख झीलों में कैस्पियन सागर, चाड झील, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा की वृहत झीलें (सुपीरियर, मिशिगन, ह्यूरन, ओन्टारियो तथा इरी), विक्टोरिया झील, अरब सागर, न्यासा झील, बैकाल झील, टांगनिका झील, ग्रेट बियर झील, टिटीकाका झील, मृत सागर, क्रैटर झील आदि अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
झीलों की विशेषताएँ -
- भूतल पर प्रत्येक झील अपनी एक अलग ही विशेषता रखती है। प्रथम रूप में झीलें परिवर्तनशील होती हैं। कुछ झीलें अत्यन्त उथली होती हैं। गर्मी के मौसम में सूख जाने के कारण ये ‘मौसमी झील’ कही जा सकती हैं।
- झीलों की एक महत्वपूर्ण विशेषता उनका खारापन होना है। झीलों में जल का संग्रह नदियों, वर्षा अथवा भूमिगत स्रोतों द्वारा होता है। ये साधन भूपटल की चट्टानों से नमक को घुला कर अपने साथ ले लेते हैं।
- विश्व की सबसे बड़ी मीठे जल वाली झील (fresh water lake) है। विश्व में समस्त ताजे (मीठे) जल का भण्डार 23 ट्रिलियन टन है जिसका 20 प्रतिशत बैकाल झील में सही संचित है। बैकाल झील को पवित्र सागर (Sacred Sea) कहते हैं।
- बैकाल झील का निर्माण आज से 25-30 मिलियन वर्ष पहले विवर्तनिक क्रियाओं (भ्रंशन) द्वारा हुआ था।
हिमानीकृत झील (Glacial Lake)
- अन्य अपरदन के कारकों के समान हिमानी (glacier) भी अपरदन तथा निक्षेप करता है। अपरदन द्वारा घाटी में छोटी-छोटी बेसिन का निर्माण हो जाता है। हिम के पिघल जाने पर इन बेसिनों में एकत्रित जल झील का रूप धारण कर लेता है।
- उत्तरी अमेरिका तथा उत्तरी एवं उत्तर-पश्चिमी यूरोप में हिमानीकृत झीलें न केवल सैकड़ों वरन् हजारों की संख्या में एक साथ मिलती हैं। ये झीलें एक साथ असंख्य रूप में इस प्रकार मिलती हैं कि उन्हें झील वाटिका की संज्ञा प्रदान की जा सकती है।
यद्यपि हिमानी द्वारा निर्मित झीलें परन्तु उत्तरी अमेरिका की बृहत् झीलें (सुपीरियर, मिशिगन, ह्यूरन, इरी तथा ओण्टारियो) हिमानीकृत अत्यन्त विस्तृत झीलों के उदाहरण हैं।
नदीकृत झील (Fluvial Lake)
- हिमानी के समान ही नदियाँ अपने अपरदन तथा निक्षेप द्वारा कई प्रकार की झीलों का निर्माण करती हैं। कुल मिलाकर नदियाँ, झीलों का विनाश या उन्हें नष्ट करने वाली होती हैं, परन्तु कुछ निश्चित दशाओं में नदियाँ झीलों का निर्माण भी करती हैं, परन्तु नदीकृत झीलें अस्थायी तथा अल्पकालिक होती हैं।
(अ) अपरदन द्वारा बनी झीलें
(i) अवनमन कुण्ड झील (Plunge pool lake) - बड़े-बड़े जलप्रपातों की तलहटी में नदियाँ अपने छेदक यंत्र (grinding tools) द्वारा जलगर्तिका (pot holes) का निर्माण करती हैं। धीरे-धीरे प्रपात पीछे हटते जाते हैं तथा जलगर्तिका का विस्तार होता जाता है। जब इनका अधिक विस्तार हो जाता है तो उन्हें अवनमन कुण्ड (plunge pools) कहते हैं। इन कुण्डों में जल भर जाता है तथा छोटी-बड़ी झीलों का निर्माण होता है।
(ii) संरचनात्मक झील (structural lake) - जब नदी के मार्ग में विभिन्न कठोरता वाली चट्टानों की परतें होती हैं तो कोमल चट्टान शीघ्र ही कट जाती हैं, परन्तु कठोर और प्रतिरोधी शैल बाहर निकली रहती हैं। कुछ समय तक ये चट्टानें नदी के अपरदन के लिए अस्थायी आधार तल का कार्य करती हैं। इन चट्टानों के ऊपर छोटी-छोटी झीलों का निर्माण हो जाता है।
(iii) चापाकार या गोखुर झील (ox-bow lake) - नदियाँ जब मैदानों में प्रवेश करती हैं तो क्षैतिज अपरदन के कारण बड़े-बड़े मोड़ों से होकर प्रवाहित होती हैं। इन मोड़ों को ‘नदी विसर्प’ (meander) कहा जाता है। जब यह घुमाव अधिक हो जाता है तो नदी अपने विसर्प को छोड़कर सीधे मार्ग से प्रवाहित होती है। इस तरह के परित्यक्त विसर्प में जल के भर जाने से निर्मित झीलों को ‘गोखुर’ या ‘चापाकार झील’ कहते हैं।
(ब) निक्षेप द्वारा निर्मित झील
(i) जलोढ़ पंख झील - जलोढ़ पंख का निर्माण उस समय होता है; जबकि कोई नदी पहाड़ी भाग से उतरकर मैदानी भाग में प्रवेश करती है। ढाल में कमी के कारण ढाल के पद के पास पंख का निर्माण होता है। जलोढ़ पंख द्वारा जब नदी अवरुद्ध हो जाती है तो अस्थायी झील का निर्माण होता है।
(ii) डेल्टा झील - डेल्टाई भाग में नदियाँ कई जल वितरिकाओं (distributaries) से होकर प्रवाहित होती हैं। दो शाखाओं के बीच स्थित डेल्टा वाले भाग के बीच निम्न स्थान में जल एकत्र होकर झील का निर्माण करता है।
(iii) बाढ़ के मैदान की झील - नदियों की बाढ़ के समय विस्तृत बाढ़ के मैदान में कांप का निक्षेप असमान रूप से होने के कारण कहीं-कहीं पर छोटे गड्ढे बन जाते हैं, जिनमें पानी भर जाने से अस्थायी तथा अल्पकालिक झीलों का निर्माण हो जाता है।
(iv) रैफ्ट द्वारा निर्मित झील - जब नदियाँ जंगली भागों से होकर प्रवाहित होती हैं, तो उनके साथ लकड़ी के बड़े-बड़े कुन्दे या टुकड़े भी बहते रहते हैं। जब ये टुकड़े नदी की धारा की दिशा में आड़े रूप में होते हैं तो उनके साथ घास-पात भी अवरुद्ध हो जाती हैं। धीरे-धीरे इन कुन्दों के साथ तलछट का भी जमाव होता रहता है और एक स्थायी बाँध तैयार हो जाता है। इस बाँध का कारण नदी का जल अवरुद्ध हो जाता है तथा छोटी परन्तु अस्थायी झील का निर्माण होता है।
ज्वालामुखी झील
- ज्वालामुखी के उद्गार तथा उससे निस्सृत लावा के विभिन्न रूप में जमकर ठोस होने पर अवरोध से तरह-तरह की झीलों का निर्माण होता है।
ज्वालामुखी द्वारा निर्मित निम्न झीलें अधिक महत्वपूर्ण होती हैं-
(i) लावा बाँध झील - ज्वालामुखी के अचानक विस्फोट द्वारा उससे निस्सृत अत्यधिक लावा का प्रवाह जब नदी की घाटी में होता है तो लावा के ठोस होकर जम जाने से नदी में प्राकृतिक बाँध का निर्माण हो जाता है। इस बांध के कारण नदी का जल अवरुद्ध हो जाता है तथा झील का निर्माण होता है।
(ii) क्रैटर झील - ज्वालामुखी के मुख का जब अधिक विस्तार हो जाता है तो उसे क्रैटर या ज्वालामुखी बिवर कहते हैं। इस बिवर में जल के एकत्र हो जाने से निर्मित झील को क्रैटर झील कहा जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के ओरेगन प्रान्त की क्रैटर लेक इस तरह की झील का एक प्रमुख उदाहरण है। यह झील माउण्ट मैजामा ज्वालामुखी के बिवर में स्थित है।
विश्व की प्रमुख झीलें -
- लाडोगा झील - यूरोप की सबसे बड़ी झील है।
- ओनेगा झील - यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी झील है।
- वातरन झील - स्वीडन की सबसे बड़ी व यूरोप की तीसरी बड़ी झील।
- जिनेवा झील - स्विट्जरलैण्ड व फ्रांस की सीमा पर अवस्थित झील।
- कॉन्सटैन्स झील - स्विट्जरलैण्ड, जर्मनी व ऑस्ट्रिया की सीमा पर अवस्थित झील।
- ग्रेट बियर लेक आर्कटिक वृत्त यहां से गुजरता है। कनाड़ा देश में स्थित है।
- सुपीरियर लेक - ग्रेट लेक में सबसे बड़ी
- मिशीगन लेक - ग्रेट लेक में तीसरी बड़ी
- ह्यूरन लेक - ग्रेट लेक में दूसरी बड़ी
- ईरी लेक - न्याग्रा जलप्रपात अवस्थित
- ओंटोरियो लेक - ग्रेट लेक में सबसे छोटी
- टिटीकाका झील - विश्व की सबसे ऊँचाई पर अवस्थित बोलिविया व पेरू के मध्य क्रेटर झील।
- मराकाइबो - दक्षिणी अमेरिका की सबसे बड़ी झील जो पेट्रोलियम उत्पादन हेतु प्रसिद्ध है।
- ग्रेट साल्ट लेक - USA के उटाह राज्य की बड़ी लवणीय झील।
- विक्टोरिया झील - अफ्रीका महाद्वीप की सबसे बड़ी झील, श्वेत नील का उद्गम, यहाँ से भूमध्य रेखा गुजरती है। तंजानिया, केन्या व युगांडा देशों के मध्य।
- टांगानिका झील - विश्व की दूसरी सबसे गहरी झील, अफ्रीका की दूसरी बड़ी झील।
- मलावी झील या न्यासा झील - वृहद् भ्रंश घाटी का प्रारंभिक बिन्दु, अफ्रीका की तीसरी बड़ी झील।
- वोल्टा झील - विश्व की सबसे बड़ी मानव निर्मित झील। घाना राष्ट्र में अवस्थित।
- कैंजी - नाइजर नदी पर बनी मानव निर्मित झील।
- नासिर झील - नील नदी पर आस्वान बाँध के नीचे बनी मानव निर्मित झील।
- चाड़ झील - चाड़, नाइजर व नाइजीरिया राष्ट्रों के मध्य अवस्थित है।
- वॉन झील - विश्व की सर्वाधिक लवणीय झील। टर्की देश में अवस्थित।
- टोबा झील - सुमात्रा की बड़ी झील। क्रेटर झील का उदाहरण है।
- गलिली सागर - इजराइल में जॉर्डन नदी का उद्गम। स्वच्छ जल झील है।
- उर्मिया झील - ईरान की प्रमुख लवणीय झील।
- बैकाल झील - विश्व की सबसे गहरी झील। रूस में अवस्थित।
- बाल्कश झील - कजाकिस्तान में अवस्थित ताँबे के भण्डारों हेतु प्रसिद्ध झील।
- आयर झील - ऑस्ट्रेलिया का निम्नतम बिन्दु। लवणीय झील है।
- ताओपो झील - न्यूजीलैण्ड में वाएकातो नदी का उद्गम क्षेत्र। न्यूजीलैण्ड की सबसे बड़ी झील।
हिमनद (Glaciers)
- सामान्य परिचय :- अपरदन के अन्य कारकों (सरिता, पवन, भूमिगत जल, सागरीय तरंग) आदि के समान ही हिमनद भी भू-पृष्ठ पर समतल स्थापना के कार्य में तत्पर रहता है। हिमनद भी अन्य कारकों के समान चट्टानों का अपरदन करता है, अपरदित पदार्थों का परिवहन करता है तथा उनका निक्षेपण करता है। यद्यपि हिमनद का अपरदनात्मक कार्य विवादग्रस्त है तथापि इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि भू-पृष्ठ पर स्थलाकृति के सृजन में इसका पर्याप्त महत्त्व होता है। हिमनद द्वारा उत्पन्न स्थलरूप अपरदन के अन्य कारकों द्वारा उत्पन्न स्थलरूपों से अधिक भिन्न होते हैं। इस कारण हिमनद के विभिन्न कार्यों तथा उनसे उत्पन्न स्थलाकृतियों का अध्ययन आवश्यक हो जाता है। हिमनद के विभिन्न कार्यों के विश्लेषण के पहले उसके सामान्य रूपों का उल्लेख करना अतिआवश्यक है। हिमनद धरातल पर हिमयुक्त नदियों के रूप में होते हैं, यद्यपि इनकी गति बहुत मन्द होती है। हिमनद वास्तव में हिम समूह होते हैं, जो हिम क्षेत्र (Snow fields) से गुरूत्त्व के कारण प्रवाहित होते हैं। हिमनद का निर्माण एक सामान्य प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्पन्न होता है।
- हिमक्षेत्र की निचली सीमा को हिमरेखा (Snow line) कहते हैं। यह वह रेखा होती है जिसके ऊपर वर्ष भर हिमावरण रहता है तथा बर्फ पिघल नहीं पाती है। हिमरेखा की ऊँचाई भू-पृष्ठ के समस्त भागों पर समान न होकर अलग-अलग होती है। भूमध्य रेखा से धुवों की ओर चलने पर हिमरेखा की ऊँचाई कम होती जाती है। धुवों के पास हिमरेखा प्रायः सागर तल के बराबर होती है। हिमरेखा हिमालय पर्वत में 4300 मीटर से 5300 मीटर तथा भू-मध्यरेखा पर उच्च पर्वतों में 5600 मीटर से 6000 मीटर तक की ऊँचाई पर स्थित होती है। इस तरह यह स्पष्ट है कि हिमरेखा पर जलवायु का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। इस हिमरेखा के ऊपर स्थित भाग जो कि सदैव हिम से आच्छादित रहते हैं ‘हिमक्षेत्र’ कहे जाते हैं। ऋतुवत् परिवर्तन के साथ हिमक्षेत्रों के विस्तार में भी परिवर्तन होता रहता है। परन्तु भू-पृष्ठ पर कुछ ऐसे भी भाग हैं, जहाँ पर सदैव बर्फ जमी रहती है। ऐसे भागों को स्थायी हिमक्षेत्र कहते हैं। ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर सभी महाद्वीपों पर स्थायी हिमक्षेत्र मिलते हैं। ग्रीनलैण्ड तथा अण्टार्कटिका, भू-पृष्ठ के दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थायी हिमक्षेत्र हैं।
हिमनद के प्रकार :-
- हिमटोपियाँ (Ice caps) :- कुछ विद्वानों ने हिमटोपियों को हिमचादर (Ice sheet) का रूप माना है तथा इनके अनुसार हिमटोपियों को लघु महाद्वीपीय हिमनदों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, परन्तु इसके विपरीत अन्य विद्वानों के अनुसार पर्वतों की चोटियों पर स्थित हिमचादर को ‘हिमटोपी’ कहते हैं। वास्तव में हिमटोपियाँ अधिक ऊँचाई पर होती हैं, जहाँ से कई हिमनदों का सृजन होता है। चूँकि हिमटोपियों से हिमनदों का आविर्भाव होता है, अतः इस आधार पर कुछ लोगों ने हिमटोपियों को हिमनद मानने से असहमति प्रकट की है। यदि हिमटोपियों को हिमनद के रूप में स्वीकार किया जाता है तो इनका आविर्भाव या तो एकाकी पर्वत चोटी या पर्वत पर होता है या पर्वत श्रेणियों पर सामूहिक रूप से होता है। जब इन हिम टोपियों के गुरुत्व के कारण हिम निचले ढालों पर हिमनद के रूप में सरकने लगता है, तो उसे ‘घाटी हिमनद’कहते हैं। हिमचादर या हिमटोपी के केन्द्रीय भाग को हिमगुम्बद कहते हैं। ग्रीनलैण्ड तथा अण्टार्कटिका के हिमक्षेत्र प्रमुख हिमचादर हैं।
- महाद्वीपीय हिमनद (Continental Glacier) :- जब किसी विशाल क्षेत्र में हिम के लगातार संचयन के कारण हिम की विस्तृत चादर का विकास हो जाता है तो उस भाग में अलग-अलग हिमनद न होकर समस्त भाग एक हिमनद के रूप में होता है। इस तरह के हिमनद का विस्तार सर्वाधिक होता है। इसी कारण से इन्हें ‘महाद्वीपीय हिमनद’ कहते हैं। महाद्वीपीय हिमनद को ‘हिमचादर’ भी कहा जाता है। महाद्वीपीय हिमनदीय क्षेत्र के उच्चतम भाग से चारों तरफ अरीय (Radial) रूप में हिमराशि सरकने लगती है। परन्तु उसके सरकने की गति बहुत मन्द होती है। प्लीस्टोसीन हिम युग के समय महाद्वीपीय हिमनद का प्रवाह या हिमचादर का विस्तार उत्तरी अमेरिका में लेब्राडोर तथा किवाटिन क्षेत्रों से हुआ था, जिससे उत्तरी अमेरिका का लगभग आधा भाग हिमाच्छादित हो गया था। लेब्रोडोर ग्लेशियर ने जेम्स की खाड़ी के आस-पास 3,000 मीटर मोटी हिमचादर के साथ समीपी भाग को पूर्णतया हिम से आच्छादित कर लिया था। वर्तमान समय में सर्वाधिक विस्तृत महाद्वीपीय ग्लेशियर या हिमचादर का विस्तार ग्रीनलैण्ड तथा अन्टार्कटिका महाद्वीप पर पाया जाता है।
- पर्वत हिमनद या घाटी हिमनद (Mountain or Vally Glaciers) :- पर्वतीय भागों में ऊँचे स्थानों पर स्थित हिमटोपी या हिमक्षेत्र (Snow fileds) से हिमराशि जब गुरुत्व के कारण निचले ढाल की ओर सरिता के रूप में प्रवाहित होती है तो उसे ‘पर्वतीय हिमनद’ कहते हैं। पर्वतीय हिमनद मुख्य रूप से पर्वतीय घाटियों से प्रवाहित होत हैं, अतः इन्हें प्रायः ‘घाटी हिमनद’ भी कहते हैं। पर्वतीय हिमनदों का सर्वप्रथम अध्ययन आल्प्स पर्वत में होने के कारण इन्हें ‘अल्पाइन हिमनद’ (Alpine glaciers) भी कहते हैं। अपने उद्गम स्थान पर ‘घाटी हिमनद’ अधिक चौड़ा होता है, परन्तु जैसे-जैसे नीचे उतरता जाता है, वैसे-वैसे संकरा होने लगता है। आकार की दृष्टि से घाटी हिमनदों में अधिक अन्तर होता है। इनकी लम्बाई कुछ मीटर से लेकर 2,000 किलोमीटर तक होती है। घाटी हिमनद हिमरेखा से प्रायः ऊपर ही स्थित होते हैं। नीचे उतरने पर इनका विनाश होने लगता है।
- गिरिपद हिमनद (Piedmont glaciers) :- जब पर्वतीय भाग से कई घाटी हिमनद नीचे उतर कर पर्वत के आधार (Base) या तली (Foot) पर एक-दूसरे से मिल जाते हैं तो उस विस्तृत हिमनद को ‘गिरिपद हिमनद’ कहा जाता है। इस तरह के हिमनद प्रायः ठण्डे भागों में ही मिलते हैं, क्योंकि गर्म भागों में नीचे उतरने पर उनके पिघल जाने की सम्भावनाएं अधिक रहती हैं। नीचे उतरने पर गिरिपद हिमनदों की गति मन्द हो जाती है। अलास्का का मेलास्पिना ग्लेशियर इसका प्रमुख उदाहरण है।
- हिमालय पर्वत के हिमनद :- हिमालय पर्वत में अनेक प्रकार के हिमनद मिलते हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश पर्वतीय हिमनद या घाटी हिमनद के ही रूप हैं। हिमालय का दक्षिणी ढाल अधिक खड़ा है, अतः हिमानी खिसक कर 3,800 मीटर तक चले जाते हैं, परन्तु उत्तरी ढाल हल्का होने के कारण तिब्बत की ओर हिमनद 5,000 मीटर तक ही उतर पाते हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों को छोड़कर विश्व के अधिकांश विशालतम हिमनद यहीं पर मिलते हैं। हिमालय के अनेक हिमनदों से अनेक बड़ी नदियाँ निकलती हैं। गंगा तथा यमुना प्रमुख उदाहरण हैं। काराकोरम श्रेणी के बालटोरो हिमनद के आगे बढ़ने की अधिकतम गति 12 मीटर प्रतिदिन है। आकार में भी पर्याप्त भिन्नता होती है। सामान्य रूप से इनकी लम्बाई 4.5 किलोमीटर तक होती है, परन्तु काराकोरम के हिस्पार तथा वाटुरा हिमनद 58 से 60 किलोमीटर तक लम्बे हैं। हिमनदों में हिम की मोटाई सर्वत्र समान नही होती है। हिमनदों ने अपने अपरदन द्वारा हिमालय पर्वत में कई प्रकार के स्थलरूपों का निर्माण कर रखा है। हिमालय प्रदेशके हिमनदों का विशेष विवरण निम्न तालिका द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है।
- हिमनदों की गति के कारण :- यद्यपि हिमनदों की गतिशीलता को सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है, परन्तु उनकी गतिशीलता के सम्भावित कारणों के विषय में पर्याप्त मतभेद है। कुछ विद्वान हिमनद में गति का प्रधान कारण गुरुत्व (Gravity) को बताते हैं। हिम के संचयन होते रहने से उनके भार में वृद्धि के कारण निचले ढाल की ओर हिम सरकने लगती है। यदि हिमनद की घाटी की ढाल प्रवणता (Gradient slope) इतनी है कि उससे होकर हिम आगे बढ़ सके, परन्तु टूट कर गिरे नहीं, तो हिम के भार के कारण ढाल के सहार हिमनद की गति प्रारम्भ हो जाती है। इस मत के विरोध में कुछ विद्वानों का कहना है कि यदि हिमराशि के भार तथा दबाव के कारण अर्थात् गुरुत्व शक्ति के कारण हिमनदों में गति होती है तो जाड़े के मौसम में हिमनदों के आगे बढ़ने की गति सर्वाधिक होनी चाहिए, क्योंकि जाड़े में अधिक हिमपात के कारण हिम का संचयन अत्यधिक होता है, परन्तु इसके विपरीत गर्मी के मौसम में हिमनद की गति सर्वाधिक होती है। इस प्रकार द्वितीय वर्ग के विद्वानों के अनुसार हिमनदों में गति जल से हिम बनते समय उसके आयतन में विस्तार के कारण होती है। जब जल हिम में परिवर्तित होता है तो उसके आयतन में वृद्धि होती है, जिस कारण हिमराशि में प्रसार होता है। यदि उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं में सामंजस्य स्थापित कर दिया जाए तो हिमनद की वास्तविक गति की समस्या का निदान हो सकता है अर्थात् हिमनद में गति गुरुत्व शक्ति तथा जल के हिम में परिवर्तित होने के कारण प्रसार द्वारा होती है। हिमनद की गति कई तथ्यों पर आधारित होती है। यदि हिमनद की घाटी का ढाल अधिक है तथा हिम की मोटाई अधिक है तो उसकी गति अधिक होती है, परन्तु हिमनद में मलवा की मात्रा अधिक है, ढाल कम है तो गति मन्द होती है। जब हिमनद आगे बढ़ता है तो उसे हिमनद का बढ़ना (Advancement of glaciers) तथा पीछे हटने वाली क्रिया को हिमनद का निवर्तन (Retrat of glaciers) कहते हैं। हिमनद का अगला भाग जब वाष्पीकरण या पिघलने के कारण नष्ट हो जाता है तो हिमनद पीछे सिरकते प्रतीत होते हैं। इस क्रिया को अपक्षरण या अवसान (Ablation) कहते हैं। यदि हिम बनने की क्रिया की अपेक्षा नष्ट होने की क्रिया तीव्र होती है तो हिमनद पीछे हटने लगता है। इसे ‘हिमनद का निवर्तन’ कहते हैं। वनविनाश तथा मानव अधिवास में ऊपरी ढाल की ओर वृद्धि के कारण हिमालय क्षेत्र में हिमनदों में तेजी से निवर्तन हो रहा है।
- हिमनद का अपरदनात्मक कार्य :- सामान्य रूप से हिमनद, अपरदन के अन्य कारकों के समान मार्ग में आने वाली शैल का अपरदन करता है, उससे प्राप्त पदार्थों का परिवहन करता है तथा मलवा का यथास्थान निक्षेपण भी करता है। परन्तु हिमनद के अपरदनात्मक कार्य के विषय में विद्वानों में दो प्रकार के मत प्रचलित हैं। ये दोनों विचार परस्पर विरोधी हैं। प्रथम वर्ग के विद्वानों के अनुसार हिमनद शैल को संरक्षण प्रदान करता है, क्योंकि यह ऊपर से शैल को ढके रहता है। अतः हिमनद का अपरदनात्मक कार्य नगण्य होता है। इस विचारधारा को संरक्षण संकल्पना (Protection concept) तथा समर्थकों को संरक्षणवादी कहा जाता है। इसके विपरीत विद्वानों का एक वृहद् समूह हिमनद के अपरदनात्मक सामर्थ्य में विश्वास करता है। रेमजे तथा टिण्डल नामक विद्वानों के अनुसार हिमनद अपरदन का एक सक्रिय कारक होता है तथा इसके अपरदन द्वारा विभिन्न प्रकार के स्थलरूपों का आविर्भाव तथा विकास होता है। हिमनद न केवल अपने अपरदन द्वारा पूर्व निर्मित स्थलरूप में परिवर्तन लाता है वरन् नवीन स्थलरूपों का भी सृजन करता है। हिमनद अपरदन का एक प्रभावशाली कारक होते हुए भी शैलों का कुछ सीमा तक रक्षक भी है।
- अपरदन के सामान्य रूप :- हिमनद का अपरदनात्मक कार्य अनेक रूपों में सम्पन्न होता है। इनमें से प्रमुख हैं-अपघर्षण (Abrasion), उत्पाटन (Plucking) आदि। यदि हिमनद का हिम शुद्ध होता है तो उसमें अपरदनात्मक सामर्थ्य नहीं के बराबर होती है, परन्तु जब हिमनद में छोटे-छोटे कंकड-पत्थर तथा शैल चूर्ण पर्याप्त मात्रा में होते हैं तो हिमनद अपरदन का एक सक्रिय कारक हो जाता है। ये पदार्थ अपरदन के यंत्र होते हैं, जिनकी सहायता से हिमनद अपनी घाटी की तली तथा किनारों को अपरदित करता है। इस क्रिया को ‘अपघर्षण’ कहते हैं। हिमनद की गति के कारण उसके यंत्र (कंकड-पत्थर आदि) भी आगे की ओर बढ़ते हैं जो कि मार्ग में पड़ने वाली शैलों पर रेगमाल (Sand paper) का कार्य करते हैं। इन यंत्रों की सहायता से हिमनदों की घाटी की तली तथा किनारे घिसकर चिकने होते रहते हैं। वास्तव में आगे बढ़ते हुए हिमनद के साथ चलने वाले पदार्थ धरातल को खुरचते हुए चलते हैं, जिस कारण प्रभावित शैल पर कई प्रकार की धारियाँ (Strains) बन जाती हैं। ये धारियाँ अपघर्षण की परियाचिका होती हैं। उत्पादन की क्रिया (उखाड़ना या हटाना, Plucking) में हिमनद चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़ों को तोड़कर उन्हें अपने साथ कर लेता है। वर्षा तथा हिम के पिघलने से प्राप्त जल शैल की संधियों में प्रवष्टि हो जाता है तथा ताप की कमी के कारण जमकर हिम का रूप धारण करके फैलता है, जिस कारण शैल कमजोर हो जाती है। इस तरह के कमजोर शैल के बड़े-बड़े टुकड़े (Blocks) टूट कर अलग होते रहते हैं। घाटी हिमनद द्वारा इस तरह की हिमनद अपने शीर्ष की ओर अपरदन (Headward erosion) करता है। पहाड़ी भागों में इस क्रिया आराम कुर्सी के समान सर्क या कोरी (Cirque or corrie, हिमगह्वर) का निर्माण होता है। हिमनद के अपरदनात्मक तथा निक्षेपात्मक कार्यों को सम्मिलित रूप से ‘हिमानीकरण’ या ‘गलेश्वरीकरण’ (Glaciation) कहते हैं। हिमानी के क्षेत्र उच्च पर्वतीय भाग होते हैं। अतः दुर्गम होने के कारण हिमनद के अपरदन का पूर्णतया अध्ययन नहीं किया जा सकता है।
- U आकार की घाटी :- पर्वतीय भागों में घाटी हिमनद ऐसी घाटियों से होकर प्रवाहित होते हैं, जिनके किनारे खड़े ढाल वाले होते हैं तथा तली सपाट तथा चौरस होती है। हिमनदों की ये घाटियाँ अंग्रेजी के U अक्षर से मिलती हैं। इसी आधार पर इन्हें U आकार की घाटियाँ कहते हैं।
- लटकती घाटी (Hanging valleys) :- जब हिमनद की मुख्य घाटी के तल से उसमें मिलने वाली सहायक घाटियों के तल अधिक ऊँचे होते हैं तो सहायक घाटियाँ, मुख्य घाटी पर लटकती हुई प्रतीत होती हैं। इसी कारण से उन्हें ‘लटकती घाटियाँ’ या ‘निलम्बित घाटियाँ’ या ‘बहिर्लम्बी घाटियाँ’ कहते हैं। हिम के पिघल जाने पर जब इन लटकती घाटियों से जल निचली घाटी में गिरता है तो प्रपात का निर्माण होता है। इस कारण लटकती घाटियों को ‘प्रपाती घाटियाँ’ भी कहा जाता है।
- सर्क या हिमगह्वर (Cirque or corrle) :- पर्वतीय क्षेत्रों में घाटी द्वारा उत्पन्न स्थलरूपों में सर्क सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है तथा यह प्रायः प्रत्येक हिमानीकृत पर्वतीय भाग में मिलता है। सर्क हिमनद की घाटी के शीर्ष भाग पर एक अर्द्धवृत्ताकार या कटोरे के आकार का विशाल गहरा गर्त होता है, जिसका पार्श्व या किनारा खड़े ढाल वाला (लम्बवत्) होता है। सर्क प्रायः हिम से भरे रहते हैं। इसी कारण से इन्हें ‘हिमगह्वर’, ‘हिमागार’ या ‘हिमगर्त’ कहते हैं। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सर्क सदैव हिम से भरे रहते हैं। हिम के पिघल जाने पर ये खुले गर्त के रूप में होते हैं, जिनमें कभी-कभी जल भर जाने से झील का निर्माण हो जाता है। विभिन्न विद्वानों ने सर्क को अलग-अलग रूपों में व्यक्त किया हैं-साधारण सर्क (Simple cirques), मिश्र सर्क (Compound cirques), लटकते सर्क (Hanging cirques) तथा निवेशन सर्क। खुले हुए रिक्त सर्क (Empty cirque) में मुख्य तीन भाग होते हैं :-
- टार्न (Tarn) :- सर्क की बेसिन में अधिक हिम के दबाव तथा हिम की अधिक गहराई के कारण चट्टानी तली में अपरदन द्वारा गड्ढे बन जाते हैं। इस तरह सर्क की बेसिन में एक शैल बेसिन (Rock basin) का निर्माण होता है। जब हिम पिघल कर अदृश्य हो जाती है तो इस शैल बेसिन में जल भर जाता है, जिससे एक छोटी झील का निर्माण हो जाता है। इस झील को सर्क झील या टार्न कहते हैं।
- हार्न या गिरिश्रृग (Horn) :- जब किसी पहाड़ी के पार्श्वों पर कई सर्क बन जाते हैं तथा जब निरन्तर अपघर्षण द्वारा ये पीछे हटते जाते हैं तो उनके मिल जाने पर एक पिरामिड के आकार की चोटी का निर्माण हो जाता है। इस तरह की नुकीली चोटी को हार्न या गिरिश्रृग कहते हैं। स्विट्जरलैण्ड में आल्प्स पर्वत पर स्थित मैटर हार्न इसका प्रमुख उदाहरण है।
- नुनाटक (Nunatak) :- विस्तृत हिमक्षेत्र या हिमनदों के बीच ऊँचे उठे टीले, जो कि चारों तरफ से हिम से घिरे होते हैं, नुनाटक कहे जाते हैं। नुनाटक, हिमक्षेत्र या हिमनद की विशाल हिमराशि के बीच बिखरे हुए द्वीप के समान लगते हैं। इसी कारण से नुनाटक को हिमान्तर द्वीप भी कहते हैं।
- श्रृग पुच्छ (Crag and Tail) :- जब किसी हिम प्रभावित स्थल भाग में बेसाल्ट या ज्वालामुखी प्लग (Volcanic plug) ऊपर गाँठ के रूप में निकला रहता है तो जिस ओर से हिमनद आता है उस ओर प्लग या बेसाल्ट के उठे भाग पर स्थित मुलायम मिट्टी का हिमनद द्वारा अपरदन हो जाता है तथा ढाल ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। ढाल से होकर हिमनद जब बेसाल्ट के उठे भाग या प्लग को पार करके दूसरी ओर उतरने लगता है तो प्लग के साथ संलग्न दूसरी ओर की मुलायम शैल का कम अपरदन होता है।
- भेड़ पीठ शैल या रॉश मुटोने (Roche moutonnee) :- हिमानीकृत क्षेत्रों में कुछ ऐसी हिम अपरदित शिलाए होती हैं जो कि दूर से देखने पर ऐसी प्रतीत होती हैं मानों कोमल ऊन वाली भेड़ें बैठी हों। 1804 ई. में डी सासर महोदय ने इस प्रकार के टीलों को रॉश मुटोने नाम प्रदान किया। हिन्दी में इसे मेष शिला या भेड़ पीठ शैल कहते हैं। हिमनद जब आगे बढ़ता है तो उसके मार्ग में कभी-कभी कठोर चट्टानों के टीले पड़ जाते हैं। ये टीले हिमनद के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं। परन्तु हिमनद अपने अपघर्षण द्वारा इन टीलों को अपरदित करके अपना मार्ग बना लेता है। इन टीलों पर जिस ओर से हिमनद बढ़ते हैं, उस ओर हिमनद के अपघर्षण (Abrasion) द्वारा टीले का भाग घर्षित होकर चिकना तथा हल्के ढाल वाला हो जाता है। परिणामस्वरूप हल्के ढाल के सहारे हिमनद आसानी से टीले पर चढ़ जाता है। परन्तु दूसरी ओर उतरते समय हिमनद द्वारा अपरदन कम होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि उतरते समय हिम तथा शिलाखण्ड का सम्पर्क शैल से बहुत ही कम रह जाता है। अतः दूसरे ढाल पर उत्पाटन (Plucking) द्वारा खरोंचे पड़ जाती हैं तथा ढाल तीव्र किन्तु ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। इस तरह से चट्टानी टीले का हिमनद के सामने वाला भाग मन्द ढाल वाला तथा दूसरा ढाल तीव्र होता है। इस तरह के टीले को भेड़ पीठ शैल कहते हैं।
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