गुप्तकाल
गुप्तवंश की उत्पत्ति-
♦ गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है।
♦ मौर्यों के पतन के बाद राजनीतिक एकता समाप्त हो गई थी।
♦ तीसरी शताब्दी में एक शक्तिशाली राजवंश का उदय हुआ जिन्होंने भारत में एक बार पुन: राजनीतिक एकता की स्थापना की।
♦ गुप्त कुषाणों के सामन्त थे।
मत | विद्वान |
क्षत्रिय | गौरी शंकर हीराचन्द ओझा व रमेशचन्द्र मजूमदार |
ब्राह्मण | दशरथ शर्मा |
वैश्य | रोमिला थापर, रामशरण शर्मा, ऐलेन एवं अल्टेकर |
♦ चंद्रगोमिन के व्याकरण में गुप्तों को जर्ट या जाट कहा गया है।
श्री गुप्त (लगभग 240 - 280 ई.) :
♦ गुप्त वंश के संस्थापक – श्री गुप्त
♦ गुप्तकालीन अभिलेखों के आधार पर 'श्री गुप्त' गुप्तों के आदिराजा थे।
♦ श्रीगुप्त गुप्त वंश का प्रथम शासक है, जिसने 'महाराज' की उपाधि धारण की थी।
♦ चीनी यात्री इत्सिंग ने श्री गुप्त को चिली-कि-तो कहा है।
♦ श्रीगुप्त ने “श्रीपतनमृगदाय मंदिर” का निर्माण चीनी भिक्षुओं हेतु करवाया।
♦ श्रीगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र घटोत्कच ने शासन किया।
♦ घटोत्कच (280 – 319 ई.) ने भी ‘महाराज’ की उपाधि धारण की।
चन्द्रगुप्त - प्रथम (319 - 350 ई.) :
♦ चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
♦ गुप्त वंश का प्रथम शासक जिसने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की।
♦ चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पाटलिपुत्र को गुप्तों की राजधानी बनाया।
♦ चन्द्रगुप्त ने वैशाली के लिच्छवी वंश की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया तथा कुमारदेवी प्रकार के सिक्के चलाए।
♦ कुमारदेवी भारतीय इतिहास की प्रथम राजकुमारी (महारानी) जिनके नाम के सिक्के चलाए गए।
♦ इन्होंने अपने राज्यारोहण की स्मृति में 319 ई. में गुप्त संवत् आरम्भ किया।
समुद्रगुप्त ‘पराक्रमांक’ (350 - 375 ई.) :
♦ चन्द्रगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना।
♦ विंसेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को 'भारत का नेपोलियन' कहा है।
♦ समुद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए सिक्कों में कुछ पर 'अश्वमेध पराक्रम' अंकन तो कुछ पर सम्राट को वीणावादन करते हुए दिखाया गया है।
♦ समुद्रगुप्त को उसके सिक्कों पर लिच्छवी दोहित्र भी कहा जाता है।
♦ चीनी स्रोत के अनुसार श्रीलंका के शासक मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त से बोधगया में बौद्धमठ बनाने की अनुमति माँगी।
♦ समुद्रगुप्त द्वारा अपनाई गई नीतियाँ -
(1) आर्यावर्त – प्रसभोद्धरण नीति (जड़मूल से उखाड़ फेंकना)
(2) दक्षिणापथ – ग्रहणमोक्षानुग्रह नीति
(3) आटविक राज्य - परिचारकीकृत नीति
(4) सीमावर्ती राज्य – सर्वकरदाना आज्ञाकरण प्रणामागम
(5) विदेशी राज्य नीति – आत्म निवेदन कन्योपायन दान गरुङमंदक स्वविषय भुक्ति शासन, याचनायुपाय सेवा
♦ कृष्णचरित्र का रचयिता समुद्रगुप्त था।
♦ जानकारी : प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद स्तंभ लेख)
रचना : हरिषेण (कवि)
उत्कीर्ण : तिलभट्ट
भाषा : विशुद्ध संस्कृत
शैली : गद्य + पद्य (चम्पू)
लिपि : ब्राह्मी लिपि
♦ इस अभिलेख का सर्वप्रथम पाठन 1834 ई. में कैप्टन ए. ट्रायर ने किया था।
♦ समुद्रगुप्त द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख प्रयाग प्रशास्ति में नहीं आता मिलता है।
♦ प्रयाग प्रशस्ति पर बीरबल व जहाँगीर का लेख भी मिला है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (375 - 415 ई.) :
♦ समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद रामगुप्त शासक बना, यह कमजोर व निर्बल शासक था।
♦ रामगुप्त के शासन के समय शकों का आक्रमण हुआ इसने अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकों को सौंप दिया।
♦ चन्द्रगुप्त-II ने ध्रुवस्वामिनी को स्वतंत्र करवाया व भाई रामगुप्त की हत्या कर स्वयं शासक बना।
♦ इस सम्पूर्ण कथा का उल्लेख विशाखदत्त ने अपने ग्रंथ देवीचन्द्रगुप्तम् में किया है।
♦ रामगुप्त का उल्लेख बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरितम् व राजशेखर की काव्यमीमांसा में भी मिलता है।
नोट:- आधुनिक भारत में राखालदास बनर्जी ने 1924 में सर्वप्रथम रामगुप्त की ऐतिहासिकता को साबित करने का प्रयास किया।
♦ रामगुप्त के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय राजा बना। उसका दूसरा नाम देवराज तथा देवगुप्त भी था।
♦ चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को पराजित कर 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। उसने शक शासक “रुद्रसिंह तृतीय” को पराजित किया। शक के विरुद्ध विजय के उपलक्ष्य में उसने चाँदी के सिक्के जारी किए।
♦ दिल्ली के महरौली लौह स्तम्भ अभिलेख में (संस्कृत भाषा) राजा चन्द्र का समय चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ मिलाया जाता है।
♦ फाह्यान (399 - 414 ई.) इसी के शासनकाल में भारत आया था।
♦ फाह्यान ने ‘फो-क्यों-की’ नामक ग्रंथ लिखा।
♦ चन्द्रगुप्त-द्वितीय ने अपने साम्राज्य की दूसरी राजधानी उज्जैन को बनाया।
♦ विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने वाला प्रथम गुप्त शासक।
♦ चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपाधियाँ – देवश्री, देवगुप्त, देवराज, तत्परिगृहीत, विक्रमादित्य, परमभागवत, राजाधिराजर्षि, सहसाक।
♦ चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नवरत्न-
1. कालिदास – नवरत्नों में सबसे प्रमुख थे।
2. वराहमिहिर – खगोल विज्ञानी एवं ज्योतिष
3. शंकु - वास्तुकार
4. धन्वन्तरी - चिकित्सक
5. क्षपणक - ज्योतिष
6. अमरसिंह – कोशकार
7. वेताल भट्ट - जादूगर
8. घटकर्पर - कूटनीतिज्ञ
9. वररुचि – वैयाकरण तथा प्रकृति प्रकाश के लेखक
आर्यभट्ट नवरत्नों में शामिल नहीं था।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अभिलेख –
(1) मथुरा स्तम्भ लेख – यह चन्द्रगुप्त द्वितीय का पहला अभिलेख है।
(2) उदयगिरी गुहालेख –
(3) साँची लेख – लेख की 7वीं पंक्ति में चन्द्रगुप्त II को ‘देवराज’ कहा गया है।
(4) महरौली लौह स्तम्भ लेख – वर्तमान में यह दिल्ली के महरौली में कुतुबमीनार के पास स्थित है।
(5) गढ़वा लेख – इसमें चन्द्रगुप्त II का नाम तो नहीं दिया गया है परन्तु उसकी उपाधियाँ परमभागवत एवं महाराजाधिराज दी गई।
कुमारगुप्त (415 - 455 ई.) :
♦ उपाधियाँ : महेन्द्रादित्य, श्री महेंद्र, अश्वमहेंद्र, व्याघ्रबल, पराक्रम।
♦ प्रथम शासक जिसके अभिलेख – बांग्लादेश से भी प्राप्त होते हैं।
♦ गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख लगाने का श्रेय कुमार गुप्त को जाता है।
♦ गुप्त शासकों में सर्वाधिक प्रकार के सिक्के (14 प्रकार) चलाने का श्रेय प्राप्त है।
♦ बयाना-मुद्राभाण्ड से कुमारगुप्त की करीब 623 मुद्राएँ मिली है।
♦ चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कुमारगुप्त का नाम 'शक्रादित्य' बताया है।
♦ मध्यभारत (पाटलिपुत्र) में चाँदी के सिक्के चलाने का श्रेय जाता है।
♦ कुमार गुप्त ने अपने सिक्कों पर गरुड़ के स्थान पर मयूर का अंकन करवाया, जिससे इसके शैव अनुयायी होने का प्रमाण मिलता है।
♦ तुमैन अभिलेख में कुमार गुप्त को शरदकालीन सूर्य की भाँति शांत बताया गया है।
♦ स्कंदगुप्त के भीतरी स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्रों का आक्रमण कुमारगुप्त के समय हुआ।
♦ बिलसद अभिलेख, मन्दसौर प्रशस्ति कुमार गुप्त प्रथम के समय के हैं।
♦ मंदसौर अभिलेख के रचयिता वत्सभट्टि हैं।
नालन्दा बौद्ध विहार
♦ नालन्दा बौद्ध विहार की स्थापना कुमार गुप्त प्रथम के समय हुई।
♦ नालन्दा विश्वविद्यालय को बौद्ध धर्म का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है।
♦ यहाँ धर्मगंज नामक पुस्तकालय है जिसके तीन भाग हैं-
1. रत्नरंजक, 2. रत्नसागर, 3. रत्नोदधी
♦ चीनी ह्वेनसांग ने नालन्दा से शिक्षा प्राप्त की तथा वापस चीन जाते समय अपने साथ 6000 बौद्ध ग्रंथ ले गया।
स्कंदगुप्त (455 - 467 ई.) :
♦ उपाधियाँ – क्रमादित्य, विक्रमादित्य, शक्रोपम, परमभागवत।
♦ गुप्त वंशावली का अन्तिम प्रतापी शासक माना जाता है।
♦ अपने पिता कुमार गुप्त के समय पुष्यमित्रों के आक्रमण का सामना किया तथा उनकी मृत्यु के बाद शासक बना।
♦ राज्यारोहण के तुरन्त बाद इसे हूणों के आक्रमण का सामना करना पड़ा।
♦ स्कंदगुप्त के भीतरी स्तम्भ लेख तथा जूनागढ़ शिलालेख में हूणों पर स्कंदगुप्त की विजयों का उल्लेख है।
♦ जूनागढ़ अभिलेख में हूणों को ‘मलेच्छा’ कहा गया है।
♦ कहौम स्तम्भ लेख में स्कंदगुप्त को 'शक्रोपम' कहा गया है। स्कंदगुप्त ने पर्णदत्त को सौराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त किया।
♦ जूनागढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है कि स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था। इस झील का पुनर्निर्माण पर्णदत्त और उसके पुत्र चक्रपालित की निगरानी में करवाया गया था।
♦ गढ़वा अभिलेख स्कन्दगुप्त का अंतिम लेख है।
♦ स्कन्दगुप्त के समय के सिक्कों में मिलावट आना शुरू हो गई थी।
♦ स्कन्दगुप्त ने नंदी (बैल) प्रकार की मुद्राएँ चलाई।
♦ हूण नेता तोरमाण ने स्कन्दगुप्त के समय आक्रमण किया जिसमें स्कन्दगुप्त ने तोरमाण को पराजित किया।
♦ हूणों को पराजित करने के बाद स्कन्दगुप्त ने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की।
♦ कहौम लेख में वर्णित है कि भद्र नाम के व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थंकरों (आदिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ,पार्श्वनाथ एवं महावीर) की प्रतिमा बनवायी। इस स्तम्भ के नीचे के भाग पर इन 5 जैन तीर्थंकर की आकृतियाँ भी उत्कीर्ण मिलती हैं।
भानुगुप्त
♦ भानुगुप्त के समय मालवा पर तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल का अधिकार था, इसने हूणों को पराजित करने हेतु एक विशाल सेना तैयार की।
♦ भानुगुप्त ने अपनी इस सेना का सेनापति ‘गोपराज’ को बनाया।
♦ भानुगुप्त, मिहिरकुल को पराजित करने में सफल रहे, परन्तु गोपराज वीरगति को प्राप्त हो गए।
♦ गोपराज की पत्नी ने ‘सती’ का पालन किया जिसे भारतीय इतिहास में सती होने का प्रथम प्रमाण माना जाता है।
♦ सती होने का सर्वप्रथम उल्लेख भानुगुप्त के एरण अभिलेख में मिलता है।
♦ गोपराज की स्मृति में भानुगुप्त ने मध्यप्रदेश में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।
वैन्यगुप्त –
♦ जानकारी का मुख्य स्रोत गुणैधर (बांग्लादेश के कोमिल्ला में स्थित) का ताम्रपत्र है ।
♦ नालन्दा से उसकी एक मुहर मिली है जिस पर 'महाराजाधिराज' का विरुद्ध अङ्कित है।
कुमारगुप्त तृतीय (530 -543 ई.) :
♦ भीतरी तथा नालन्दा मुद्रालेखों में उसको माता का नाम महादेवी मित्रदेवी मिलता है।
♦ दामोदरपुर के पाँचवें ताम्रपत्र में किसी शक्तिशाली गुप्त राजा का उल्लेख मिलता है जिसकी उपाधियाँ 'परमदैवतपरमभट्टारक महाराजाधिराज' मिलती है।
विष्णु गुप्त (543 – 550 ई.)
♦ यह गुप्त वंश का अंतिम शासक था। इसे बंगाल के शासक समाचारदेव ने पराजित किया।
साहित्य और विज्ञान :
♦ साहित्य, विज्ञान, कला व संस्कृति के चहुँमुखी विकास के दृष्टिकोण सेगुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है।
♦ इस काल को क्लासिकल युग या पेरीक्लीज युग के नामों से भी जानाजाता है।
♦ गुप्त काल में संस्कृत भाषा की उन्नति हुई तथा गुप्त काल की राजभाषा ‘संस्कृत’ बनी।
♦ गुप्त शासक संस्कृत भाषा व साहित्य के प्रेमी थे।
♦ प्रयाग प्रशस्ति में समुद्र गुप्त को ‘कविराज’ कहा गया।
♦ हरिषेण की प्रसिद्ध कृति ‘प्रयाग-प्रशस्ति’ है, जिसे इसमें ‘काव्य’ कहागया है, इसका आधा भाग पद्य में तथा आधा भाग गद्य में है।
♦ वीरसेन ‘शाब’ की रचना – उदयगिरि गुहालेख है।
♦ वत्सभट्टी कुमारगुप्त प्रथम का दरबारी कवि था। उसने कुल 44 श्लोकों वाले मंदसौर प्रशस्ति की रचना की।
♦ मालव प्रदेश के दशपुर में सूर्य मंदिर स्थित है, इसका उल्लेख मंदसौरप्रशस्ति में है।
♦ कवि कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन था।
♦ कवि कालिदास ने सात ग्रन्थों की रचना की – कुमारसंभवम्, रघुवंश, ऋतुसंहार, मेघदूतम्, विक्रमोर्वशीयम्, मालविकाग्निमित्रम् तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम्।
♦ तीन नाटक – अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम्, मालविकाग्निमित्रम्
♦ दो महाकाव्य – रघुवंशम्, कुमारसंभवम्
♦ दो खंडकाव्य – मेघदूतम्, ऋतुसंहार
♦ कालिदास को ‘भारत का शेक्सपीयर’ कहा जाता है।
♦ ‘रघुवंश’ 19 सर्गों का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य हैं।
♦ कुमार संभवम् में 17 सर्ग हैं।
♦ सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ है।
♦ ‘किरातार्जुनीयम्’ महाकाव्य 18 सर्गों का भारवि ने लिखा।
♦ ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक शूद्रक ने लिखा जिसमें कुल 10 अंक हैं।
♦ मुद्राराक्षस व देवीचन्द्रगुप्तम् नाटक की रचना विशाखदत्त ने की।
♦ ‘वासवदत्ता’ की रचना सुबन्धु ने की।
♦ ‘चन्द्रव्याकरण’ नामक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना बंगाली विद्वानचन्द्रगोमिन् ने की।
♦ ‘पंचतंत्र’ कथा संग्रह की रचना विष्णु शर्मा ने की। सर्वाधिक 50 भाषाओंमें अनुवादित ग्रंथ है।
♦ ‘अमरकोष’ की रचना अमरसिंह ने की।
♦ कामन्दक का नीतिसार और वात्स्यायन का कामसूत्र गुप्त काल कीरचना है।
♦ ‘रावणवध’ या ‘भटि्टकाव्य’ की रचना भट्टि ने की थी।
विज्ञान एवं तकनीकी विकास
♦ गुप्त काल के आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं ब्रह्मगुप्त संसार के प्रसिद्ध नक्षत्रवैज्ञानिक और गणितज्ञ थे।
♦ आर्य भट्ट ने अपने ग्रंथ ‘आर्यभट्टीयम्’ (आर्यभट्टीयान) में सर्वप्रथम प्रस्तुतकिया कि पृथ्वी गोल है, वह अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य का चक्करलगाती है जिससे सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण होते हैं।
♦ आर्य भट्ट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया।
♦ वराहमिहिर की ‘वृहत्संहिता’ खगोल शास्त्र, वनस्पति विज्ञान तथाप्राकृतिक इतिहास का विश्वकोष है।
♦ पंचसिद्धान्तिका के टीकाकार भटोत्पल थे। इसके पाँच ज्योतिष सिद्धान्त– पितामह, वशिष्ठ, रोमक, पोलिश, सूर्य हैं।
♦ चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार का प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि था।
♦ आर्य भट्ट ने गणित को ज्योतिष से अलग किया, ऐसा करने वाले ये प्रथमव्यक्ति थे।
आर्यभट्ट ने आर्यभट्टीयम नामक गणित की पुस्तक लिखी।
आर्यभट्टीयम के चार भाग हैं-
(1) दशगीतिकापाद
(2) गणितपाद
(3) कालक्रियापाद
(4) गोलापाद
♦ वराहमिहिर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि पृथ्वी में कोई ऐसी शक्ति है, जो चीजों को अपनी ओर आकर्षित करती है।
♦ ब्रह्मगुप्त प्रथम ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त कोप्रतिपादित किया।
♦ चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली लौह स्तम्भ लेख (दिल्ली) गुप्तकालीनधातु-विज्ञान का अद्भुत नमूना है।
♦ बिहार के सुल्तान गंज से प्राप्त बुद्ध की खड़ी हुई ताँबे की प्रतिमा, एकटन वजनी और 71/2 फीट ऊँची है, धातु विज्ञान का उत्कृष्ट नमूना है।
♦ बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन दूसरी शताब्दी ई. पू. (लगभग सातवाहन काल) के समय का था। इन्होंने शून्यवाद का मत दिया तथा माध्यमिक कारिका ग्रन्थ की रचना की।
♦ नागार्जुन – सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि में रोग प्रतिरोधक क्षमता पाईजाती है। इनकी भस्म से रोग निवारण किया व पारे की खोज की।
♦ ‘रस चिकित्सा सिद्धांत’ की रचना नागार्जुन ने की।
♦ प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर की सर्वप्रमुख रचना ‘वृहत्जातक’ है।
♦ ‘पंचसिद्धान्तिका’, वृहत्संहिता, लघु जातक आदि वराहमिहिर की रचनाएँहै।
गुप्तकालीन प्रमुख मंदिर :
1. साँची का मंदिर :
♦ साँची के महास्तूप के दक्षिण-पूर्व की ओर बने इस मंदिर की संख्या 17है।
♦ इसमें छत सपाट व गर्भगृह चौकोर है। सामने छोटा स्तम्भ युक्त मण्डपहै। यह आकार में छोटा है।
♦ गुप्त काल का प्रारम्भिक मंदिर है।
2. भूमरा का शिव मंदिर :
♦ मध्य प्रदेश के सतना जिले में भूमरा नाम के स्थान पर है।
♦ गर्भगृह पाषाण निर्मित है, प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना की आकृति अंकितहै।
♦ गर्भगृह के अन्दर एकमुखी शिवलिंग स्थापित किया गया है।
♦ के. डी. वाजपेयी ने वर्ष 1968 ई. में सतना जिले के उचेहरा के पासपिपरिया नामक स्थान से विष्णु मंदिर व मूर्ति की खोज की थी।
♦ इसके अलावा गुप्तकालीन मंदिरों के अवशेष सतना में खोह, नागौद, जबलपुर में मढ़ी स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
♦ भूमरा का मंदिर पाँचवीं शताब्दी में बनाया गया।
3. तिगवां का विष्णु मंदिर :
♦ मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित है।
♦ तिगवां के विष्णु मंदिर के बीच में गर्भगृह है।
♦ स्तम्भों के ऊपर कलश व कलशों पर सिंह की मूर्ति है।
♦ प्रवेश द्वार के पार्श्वों पर गंगा, यमुना की आकृतियाँ उनके वाहन सहितउत्कीर्ण है।
4. एरण का विष्णु मंदिर :
♦ यह मंदिर मध्य प्रदेश के सागर जिले में एरण नामक स्थान पर स्थित है।
♦ यह विष्णु मंदिर अब ध्वस्त हो चुका है।
♦ केवल गर्भगृह का द्वार व सामने दो स्तम्भ खड़े हुए अवशेष बने हैं।
5. नचना – कुठार का पार्वती मंदिर
♦ मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में अजयगढ़ के समीप प्राप्त हुआ है।
♦ यह मंदिर पाँचवीं शताब्दी ई. में बनाया गया है।
♦ यहाँ चारों ओर परिक्रमापथ बनाया गया है।
6. देवगढ़ का दशावतार मंदिर :
♦ यह मंदिर उत्तर प्रदेश के ललितपुर (प्राचीन झाँसी) जिले में देवगढ़ नामकस्थान से प्राप्त हुआ है।
♦ यह मंदिर पंचायतन शैली में निर्मित है।
♦ इसमें गर्भगृह के ऊपर 12 मीटर ऊँचे शिखर का निर्माण किया गया है।
♦ यह गुप्त काल का प्रथम ‘शिखर’ वाला मंदिर है, जो वास्तु कला काउत्कृष्ट नमूना माना जाता है।
♦ देवगढ़ के दशावतार मंदिर में वास्तुकला का विकसित रूप पाया जाताहै।
♦ इसमें 4 सभा मंडपों का निर्माण किया गया है।
♦ इसमें भगवान विष्णु को शेषशय्या पर विराजमान व नाभि से कमलनिकलता हुआ तथा माता लक्ष्मी को पैर दबाते हुए दिखाया गया है।
7. भितर गाँव का मंदिर :
♦ यह उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में स्थित है। ईंटों से निर्मित प्रथम हिन्दूमंदिर है।
♦ इस मंदिर का निर्माण ईंटों से किया गया है।
♦ इस मंदिर की हजारों उत्खनित ईंटें लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
♦ यह वर्गाकार चबूतरे पर बना व गर्भगृह भी वर्गाकार है। गर्भगृह के सामनेमण्डप है।
♦ यह मंदिर भी शिखर युक्त है, भारत में पहली बार इसके शिखर में ‘महराबों’ का प्रयोग हुआ।
♦ बाहरी दीवारों में बने ताखों में गणेश, आदिवराह, नंदी, दुर्गा आदि कीमृण्मूर्तियाँ रखी गई हैं।
♦ छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के सिरपुर नामक स्थान से ईंटों से निर्मित एकअन्य मंदिर प्राप्त हुआ है, इसे ‘लक्ष्मण मंदिर’ कहा जाता है।
♦ राजस्थान के कोटा से मुकुन्द दर्रा (कोटा का दर्रा) से मंदिर प्राप्त हुआजो प्रारम्भिक गुप्त मंदिर है।
♦ शिव मंदिर – खोह (नागौद, मध्य प्रदेश)
अजंता की गुफाएँ :
♦ यह महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में सह्याद्रि पहाड़ियों को काटकर बनाई गई।
♦ यहाँ कुल 29 गुफाएँ हैं।
♦ गुप्तकालीन गुफा संख्या 16 व 17 हैं।
♦ खोज – 1819 ई. में मद्रास रेजीमेन्ट के एक सैनिक विलियम एरिक्सन के द्वारा की गई।
♦ इन गुफाओं का निर्माण वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन II के सामन्त वराहदेव,व्याघ्रदेव द्वारा करवाया गया था।
♦ इन गुफाओं का आकार घोड़े के पैर की नाल के आकार का है।
♦ चैत्य गुफाएँ (विहार बौद्ध मठ) की संख्या चार हैं, जो गुफा संख्या 9, 10, 19 और 26 में स्थित हैं।
♦ पहले सर्वाधिक चित्र गुफा संख्या – 16 में थे, परन्तु अब सर्वाधिक चित्रगुफा संख्या – 17 में हैं, इसे चित्रशाला कहा जाता है।
♦ कई इतिहासकारों के अनुसार गुफा संख्या 16, 17 व 19 गुप्तकालीनमानी गई हैं लेकिन प्रामाणिक पुस्तकों में केवल गुफा संख्या – 16 व 17 का उल्लेख हैं।
♦ अजंता गुफाओं के चित्र पारलौकिक (धार्मिक) है।
♦ गुफा संख्या – 8 से 13 हीनयान (बौद्ध) से संबंधित है।
♦ इन समस्त गुफाओं में गुफा संख्या – 13 सबसे प्राचीन गुफा है।
♦ अजन्ता की गुफा बौद्ध धर्म के महायान शाखा से संबंधित हैं।
गुफा संख्या - 16
♦ भगवान बुद्ध के वैराग्य उत्पन्न होने के 4 दृश्य मिलते हैं।
♦ उपदेश सुनते हुए भक्तगण।
♦ मरणासन्न अवस्था में राजकुमारी का चित्र सबसे प्रसिद्ध चित्र।
♦ यह राजकुमारी भगवान बुद्ध के भाई नंदिवर्द्धन की पत्नी – सौन्दरी।
♦ यह गुफा अजन्ता के विहारों में सबसे उत्कृष्ट हैं।
गुफा संख्या - 17
♦ वर्तमान में सर्वाधिक चित्र इसी गुफा में है इसलिए इसे चित्रशाला भीकहा जाता है।
♦ इसमें बुद्ध के गृहत्याग का (महाभिनिष्क्रमण) का चित्रण किया गया है।
♦ भगवान बुद्ध की पत्नी यशोधरा द्वारा अपने पुत्र ‘राहुल’ को दान में देते हुए (त्याग) का चित्रण किया गया है।
अजन्ता की गुफाओं के अन्य चित्र-
♦ झुला-झूलते हुए राजकुमारी का चित्रण - गुफा संख्या-2
♦ बैठी हुई स्त्री का चित्र - गुफा संख्या-9
♦ पुजारियों का दल स्तूप की ओर जाते हुए - गुफा संख्या-9
♦ साँडों की लड़ाई - गुफा संख्या-1
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