दक्षिणी भारत के राजवंश
चालुक्य राजवंश
अन्हिलवाड़ के चालुक्य :
♦ मूलराज प्रथम इसके संस्थापक थे जिसने अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया।
♦ भीम प्रथम के शासनकाल में महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया।
♦ जयसिंह सिद्धराज के राजदरबार में प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र रहते थे।
♦ मूलराज द्वितीय ने 1178 ई. में आबू पर्वत के समीप मुहम्मद गौरी को परास्त किया था।
♦ बादामी / वातापी के चालुक्य - (543 - 757 ई. या 552 – 750 ई.)
♦ इस शाखा का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था।
♦ इस शाखा की राजधानी वातापी / बादामी कर्नाटक राज्य के बीजापुर मेंस्थित है।
♦ यह शाखा चालुक्यों की मूल / प्राचीनतम शाखा मानी जाती है।
♦ इसकी जानकारी के प्रमुख स्रोत – अभिलेख है।
ऐहोल अभिलेख
♦ ऐहोल अभिलेख प्रशस्ति के रूप में है।
♦ यह अभिलेख कर्नाटक के बीजापुर में स्थित है।
♦ मेंगुती मंदिर (जैन मंदिर) के पश्चिमी भाग की दीवार पर उत्कीर्ण है।
♦ यह अभिलेख 643 ई. का माना जाता है।
♦ इस अभिलेख की भाषा संस्कृत है।
♦ इस अभिलेख की शैली पद्य (काव्य) शैली है।
♦ लिपि : दक्षिणी ब्राह्मी
♦ इसकी रचना पुलकेशिन द्वितीय के जैन दरबारी 'रवि कीर्ति' द्वारा की गईहै।
♦ इस अभिलेख में रवि कीर्ति ने स्वयं की तुलना 'कालिदास' व 'भास' केसाथ की है।
♦ चालुक्य वंश व उसके शासक पुलकेशिन द्वितीय के बारे में इस अभिलेखद्वारा जानकारी मिलती है।
♦ इसमें पुलकेशिन द्वितीय को ‘सत्याश्रय’ अर्थात् सत्य को आश्रय देनेवाला कहा गया है।
♦ इसमें पुलकेशिन द्वितीय व हर्ष के मध्य हुए युद्ध की जानकारी मिलतीहै।
♦ इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय ने हर्ष को नर्मदा के तट पर पराजित करके 'परमेश्वर' की उपाधि धारण की थी।
नोट:- ऐहोल के मंदिरों को ‘नगर’ कहा जाता है। जिनेन्द्र मंदिर व मेंगुतीमंदिर प्रसिद्ध है।
बादामी शिलालेख :
♦ यह शिलालेख बादामी किले के एक शिलाखंड पर उत्कीर्ण है।
♦ इस शिलालेख पर पुलकेशिन प्रथम (543 ई.) द्वारा बादामी किले केनिर्माण की बात लिखी गई है।
♦ चालुक्य वंश की प्रारंभिक जानकारी इसी शिलालेख से मिलती है।
♦ चालुक्यों को 'हारिति पुत्र' व 'मानव्य गौत्रिय' बताया गया है।
महाकूट अभिलेख :
♦ महाकूट स्तंभ लेख - कर्नाटक के प्राप्त
♦ यह 602 ई. का माना जाता है।
♦ इस स्तंभ लेख में पुलकेशिन प्रथम से पूर्व के दो शासकों का उल्लेख जयसिंह एवं रणराग (पुलकेशिन प्रथम के पिता)
♦ इनके अलावा महाकूट स्तंभ लेख से कीर्तिवर्मन प्रथम की जानकारी भीमिलती है।
हैदराबाद दानपात्र :
♦ यह 612 ई. का है।
♦ इसमें पुलकेशिन II द्वारा दिए गए दान के बारे में उल्लेख मिलता है।
♦ चालुक्य कौन? इतिहासकारों ने अलग-अलग मत प्रस्तुत किए हैं-
1. विंसेंट स्मिथ : चालुक्य ‘चप’ जाति के लोग थे।
♦ यह मध्य एशिया के निवासी थे।
2. ह्वेनसांग :
♦ 641 ई. में पुलकेशिन II के दरबार में गया था।
♦ इसने चालुक्यों को ‘क्षत्रिय’ बताया है।
3. डॉ. नीलकण्ठ शास्त्री :
♦ चालुक्यों को कदम्बों का सामंत बताया है।
♦ इनके मूल वंश का नाम ‘चल्क्य’ जो बाद में चालुक्य कहलाए।
♦ इन्हें क्षत्रिय बताया है।
पुलकेशिन प्रथम (543 – 566 ई.)
♦ चालुक्य वंश के संस्थापक।
♦ इसके दो पुत्र थे-
1. कीर्तिवर्मन I
2. मंगलेश
♦ पुलकेशिन प्रथम (543 - 566 ई.) वातापी चालुक्य वंश का संस्थापकथा।
♦ इसने दक्षिणापथ पर विजय प्राप्त की तथा अश्वमेध व वाजपेय यज्ञों काआयोजन किया था।
कीर्तिवर्मन प्रथम : (566 - 597 ई.)
♦ पुलकेशिन प्रथम का पुत्र था।
♦ कीर्तिवर्मन के दो पुत्र थे-
1. पुलकेशिन II
2. कुब्ज विष्णुवर्धन
♦ पुलकेशिन II ने अपने चाचा की हत्या कर दी एवं स्वयं शासक बना।
♦ कुब्ज विष्णुवर्धन वेंगी चालुक्य वंश का संस्थापक था।
♦ कीर्तिवर्मन प्रथम को वातापी चालुक्यों का प्रथम निर्माता कहा जाता है।
♦ उपाधियाँ : सत्याश्रय व पृथ्वीवल्लभ
नोट:- यह दोनों उपाधियाँ पुलकेशिन I, कीर्तिवर्मन I व पुलकेशिन II ने धारण की थी।
♦ ऐहोल अभिलेख में कीर्तिवर्मन प्रथम को कदम्बों, नलों व मौर्यों के लिएकालरात्रि के समान बताया गया है।
मंगलेश:-
♦ कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के बाद शासक बना।
♦ कीर्तिवर्मन का भाई था।
उपाधियाँ:-
♦ अभियानों को पूर्ण करने के बाद निम्न उपाधियाँ धारण की:-
1. परमभागवत – वैष्णव धर्म का अनुयायी होने के कारण
2. रणविक्रांत
3. श्री पृथ्वीवल्लभ
♦ मंगलेश ने कीर्तिवर्मन प्रथम द्वारा प्रारंभ करवाए गए बादामी गुहा मंदिर केनिर्माण को पूर्ण करवाया तथा उसमें भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापितकरवाई।
पुलकेशिन द्वितीय (610 - 642 ई.)
♦ अन्य नाम- ह्वेनसांग ने इसे मोहोलचअ (महाराष्ट्र का शासक) तथा ईरानीइतिहासकार ताबरी ने फरमिश या प्रमेश कहकर सम्बोधित किया है।
♦ उपाधि इसकी बहुप्रचलित उपाधि सत्याश्रय थी। उसकीपरमभागवत उपाधि का उल्लेख 630 ई. के लोहनारा दानपत्र अभिलेख मेंमिलता है।
♦ बल्लभ, पृथ्वीवल्लभ आदि पुलकेशिन की अन्य उपाधियाँ थी।
पुलकेशिन II के अभियान
♦ पुलकेशिन ने कदम्बों को पराजित किया।
♦ लाट व मालवा प्रदेशों पर विजय प्राप्त की।
♦ 630 – 634 ई. के मध्य नर्मदा के तट पर हर्ष को पराजित किया।
चालुक्य पल्लव संघर्ष:-
♦ इस संघर्ष को प्रारंभ करने का श्रेय- पुलकेशिन द्वितीय को जाता है।
♦ जो लगभग 200 वर्षों तक चला।
♦ पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम को पराजित कर काँची के उत्तर-पूर्वीहिस्से पर अधिकार कर लिया।
♦ इसी भाग पर पूर्वी चालुक्य (वेंगी) की नींव डाली – संस्थापक अपने भाई “कुब्ज विष्णुवर्धन” को बनाया।
♦ महेन्द्र वर्मन की मृत्यु के बाद पुन: काँची पर आक्रमण किया।
♦ महेन्द्र वर्मन के पुत्र – नरसिंह वर्मन ने पुलकेशिन द्वितीय को पराजितकिया।
♦ नरसिंह वर्मन ने श्रीलंका के शासक “मानवर्मा” की सहायता से पुलकेशिनद्वितीय को बादामी में पुन: पराजित कर उसकी पीठ पर “विजयाक्षर” लिखवा दिया।
♦ नरसिंह वर्मन ने वातापीकोंड (वातापी को तोड़ने वाला) की उपाधि धारणकी।
♦ पुलकेशिन द्वितीय ने शर्मसार होकर आत्महत्या कर ली।
विक्रमादित्य प्रथम (655 – 681 ई.)
♦ पुलकेशिन द्वितीय का पुत्र था।
♦ येवूर अभिलेख (कर्नाटक) के अनुसार “पुलकेशिन II” की मृत्यु के बादलगभग – 13 वर्ष तक पल्लव सामंत “अमर व आदित्यवर्मन” ने बादामी परशासन किया था।
♦ विक्रमादित्य ने अपने नाना – गंग वंश के “दुर्रविनित” व अपने भाईजयसिंह वर्मन की सहायता से वातापी पर पुन: अधिकार किया।
♦ अपने पिता की हत्या का बदला लेने हेतु पल्लवों पर आक्रमण करनरसिंह वर्मन के पुत्र “महेन्द्रवर्मन द्वितीय” को मार डाला।
विनयादित्य - (681 – 696 ई.)
♦ इसने पल्लव, केरल, चोल, पाण्ड्य पर विजय प्राप्त की।
♦ उपाधियाँ – राजाश्रय, युद्धधमल्ल
विजयादित्य-I :- (696 – 733 ई.)
♦ सबसे लम्बे समय तक शासक रहा।
♦ श्रेष्ठ निर्माता माना जाता है।
♦ इसने पट्डक्कल (कर्नाटक) में विशाल शिव मंदिर का निर्माण द्रविड़शैली में करवाया।
विक्रमादित्य II (733 - 747 ई.)
♦ विजयादित्य का पुत्र था।
♦ इसके समय दक्षिण भारत पर अरबों का आक्रमण हुआ।
♦ इस आक्रमण का सामना करने हेतु अपने भाई “जयसिंह वर्मन प्रथम” कोभेजा।
♦ जयसिंह ने अरबों को पराजित कर भागने पर बाध्य कर दिया।
♦ विक्रमादित्य II ने जयसिंह को “अवनिजनाश्रे (पृथ्वी के लोगों को शरणदेने वाला)” की उपाधि दी।
♦ विक्रमादित्य II ने पल्लव शासक नंदिवर्मन को पराजित कर काँचीकोण्डकी उपाधि धारण की।
♦ विक्रमादित्य II की दो पत्नियाँ थी –
1. लोकमहादेवी –
♦ लोकेश्वर शिव मंदिर का निर्माण वर्तमान (विरूपाक्ष) मंदिर कर्नाटकहम्पी पतड्डकल में स्थित है। यहाँ पर रामायण से संबंधित दृश्य और गरुड़की विशाल प्रतिमा है।
2. त्रेलोक्यमहादेवी –
♦ त्रिलोकेश्वर शिव मंदिर मल्लिकार्जुन शिव मंदिर हम्पी (कर्नाटक) मेंस्थित है।
कीर्तिवर्मन II (747 - 757 ई.)
♦ कीर्तिवर्मन ने अपने पिता के शासनकाल के दौरान ही पल्लवों कोपराजित किया था।
♦ अत: विक्रमादित्य II ने इसे अपना उत्तराधिकारी बनाया।
♦ वातापी/बादामी के चालुक्यों का अंतिम शासक था।
♦ इसी के शासनकाल के दौरान राष्ट्रकूटों का उदय हुआ।
♦ राष्ट्रकूट दंतिदुर्ग ने अपनी पुत्री का विवाह पल्लव नरेश नंदिवर्मन के साथकिया था।
♦ दंतिदुर्ग ने आक्रमण कर चालुक्यों से महाराष्ट्र व गुजरात के क्षेत्र छीनलिए।
♦ कीर्तिवर्मन II ने इन क्षेत्रों पर पुन: अधिकार करने हेतु आक्रमण किया, परन्तु दन्तिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन II को मार डाला इस प्रकार वातापी बादामीचालुक्यों के अंत के साथ राष्ट्रकूटों का उदय हुआ।
कल्याणी के चालुक्य :-
♦ राष्ट्रकूट नरेश कर्क II को तैलप II ने पराजित कर कल्याणी को अपनीराजधानी बनाया। इनका राज्य चिह्न – वराह था।
♦ कौन - नीलकंठ शास्त्री के अनुसार तैलप II से पूर्व इस वंश के लोगबीजापुर के आस-पास के क्षेत्रों में राष्ट्रकूटों के सामंत थे।
♦ मूलत: यह कन्नड़ देश (केरल) के निवासी थे।
♦ तैलप II से पूर्व कीर्तिवर्मन III, तैलप प्रथम, विक्रमादित्य III, भीमराज, अय्यण विक्रमादित्य चतुर्थ का उल्लेख मिलता है।
♦ अय्यण ने राष्ट्रकूट वंश के शासक कृष्ण II की पुत्री के साथ विवाहकिया। पुत्र - विक्रमादित्य IV
♦ विक्रमादित्य IV का पुत्र तैलप II कल्याणी के चालुक्यों का संस्थापकथा।
तैलप - II (973 - 997 ई.)
♦ पिता का नाम विक्रमादित्य चतुर्थ था।
♦ माता का नाम बोन्था देवी (कलचुरी के शासक लक्ष्मण सेन की पुत्री) था।
♦ कल्याणी के चालुक्य की स्वतंत्रता का संस्थापक माना जाता है।
♦ राष्ट्रकूट वंश के शासक कर्क II को पराजित कर उसकी राजधानीमान्यखेत पर अधिकार कर लिया था।
♦ अपनी राजधानी कल्याणी को बनाया।
♦ तैलप द्वितीय ने राष्ट्रकूट सामंतों को पराजित करने हेतु निम्न अभियानकिए -
1. शिमोगा, कर्नाटक के राष्ट्रकूट सामंत शांति वर्मा को पराजितकिया।
2. गंगवंश के शासक पांचालदेव को पराजित कर मार डाला।
3. वनवासी के शासक कन्नप व शोभन को अधीनता स्वीकारकरवाई।
4. दक्षिणी कोंकण के शालिहार वंश को पराजित कर दक्षिणीकोंकण पर अधिकार कर लिया।
♦ 980 ई. में चोल साम्राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के शासक उत्तम चोलको पराजित किया था।
♦ इस प्रकार कल्याणी के चालुक्य व चोल के मध्य संघर्ष प्रारंभ हुआ था।
सत्याश्रय (997 - 1008 ई.)
♦ तैलप-II के उत्तराधिकारी सत्याश्रय को राजेन्द्र चोल के नेतृत्व में दोआक्रमणों का सामना करना पड़ा।
♦ तैलप II का पुत्र था, साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया था।
♦ अपने साम्राज्य विस्तार हेतु निम्न अभियान चलाये -
1. उत्तरी कोंकण सत्याश्रय ने शालिहार वंश को पराजित कर उत्तरी कोंकणपर अधिकार कर लिया था।
2. गुर्जर राज्य पर विजय यहाँ के शासक चामुण्डराय को पराजित करकेकी।
3. मालवा संघर्ष - मुंज परमार की मृत्यु के बाद सिन्धुराज शासक बनाथा।
♦ सत्याश्रय ने मालवा पर अनेक आक्रमण किए प्रत्येक बार सिन्धुराज नेउसे पराजित किया व मालवा के खोए प्रदेश पुन: प्राप्त कर लिए थे।
♦ सत्याश्रय का यह अभियान असफल हो गया था।
विक्रमादित्य पंचम (1008 – 1014 ई.)
♦ सत्याश्रय को कोई पुत्र न होने के कारण उसने अपने भाई दशवर्मन के पुत्र विक्रमादित्य V को उत्तराधिकारी बनाया।
♦ इसने दक्षिणी कोसल (छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम) के शासक “भीमरथमहाभव गुप्त II” को पराजित कर चालुक्य साम्राज्य में दक्षिणी कोसल काविलय कर लिया था।
♦ त्रिभुवनमल्ल व वल्लभ नरेन्द्र की उपाधि धारण की थी।
जयसिंह II, (1015 – 1043 ई.)
♦ विक्रमादित्य पंचम का भाई था।
उपाधियाँ :
♦ जगदेकमल्ल, त्रैलोक्यमल्ल विक्रमसिंह।
मालवा के साथ संघर्ष :-
♦ मालवा के शासक भोज परमार ने लाट पर आक्रमण कर इसके कुछक्षेत्रों पर अधिकार कर लिया तथा उत्तरी कोंकण भाग पर भी अधिकार करलिया था।
♦ जयसिंह II ने कुछ समय पुन: इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था।
चोलों के साथ संघर्ष
♦ कारण – 1019 ई. वेंगी चालुक्य शासक ”विमलादित्य” की मृत्यु होगई।
♦ विमलादित्य के दो पुत्रों में उत्तराधिकार संघर्ष हुआ।
1. राजराज
2. विष्णु वर्धन विजयादित्य सप्तम
♦ जयसिंह II ने विजयादित्य VII के पक्ष में एक सेना वेंगी भेजी।
♦ राजेन्द्र प्रथम (चोल) अपनी दो सेनाएँ भेजी क्रमश: प्रथम सेना ने जयसिंहII को पराजित किया, द्वितीय सेना ने विजयादित्य VII को पराजित किया।
♦ इस प्रकार राजेन्द्र प्रथम “राजराज” को वेंगी का शासक बना दिया।अगले 20 वर्षों तक कोई संघर्ष नहीं हुआ।
सोमेश्वर प्रथम : (1043 - 1068 ई.)
♦ सोमेश्वर प्रथम ने कल्याणी को राजधानी के अनुरूप विकास किया और इसे अपनी राजधानी बनाया।
प्रमुख घटनाएँ
♦ चोल संघर्ष:-
1. सोमेश्वर प्रथम ने वेंगी पर आक्रमण किया और राजराज II को पराजितकर दिया और विक्रमादित्य VII को शासक बना दिया था।
♦ सोमेश्वर प्रथम ने त्रैलोक्यमल की उपाधि धारण की।
2. राजराज-II भागकर चोलों की शरण में चला गया। राजेन्द्र चोल ने पुन: राजराज-II को शासक बना दिया परन्तु कुछ समय बाद राजेन्द्र चोल कीमृत्यु हो गई।
3. राजराज-II ने सोमेश्वर की अधीनता स्वीकार कर ली।
4. राजाधिराज चोल ने वेंगी पर आक्रमण कर जीत लिया और विजेन्द्र कीउपाधि धारण की थी।
5. सोमेश्वर प्रथम कोप्पम तथा कुडलसंगम के युद्ध में चोलों से परास्त हुआ तथा पराजित होने पर तुंगभद्रा नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली।
विक्रमादित्य VI (1076 - 1126 ई.)
♦ विक्रमादित्य VI योग्य शासक था।
♦ अपने राज्याभिषेक के समय 1076 ई. में चालुक्य-विक्रम संवत् चलायाथा।
♦ इसने एक नये नगर विक्रमपुर की स्थापना की थी।
♦ अंतिम महान चालुक्य शासक विक्रमादित्य VI था।
♦ उसकी राजसभा में विक्रमांकदेवचरित के लेखक विल्हण तथा स्मृतियोंपर मिताक्षरा नामक टीका के प्रसिद्ध टीकाकार विज्ञानेश्वर थे।
महत्त्वपूर्ण कार्य :-
♦ वेंगी पर आक्रमण कर विक्रमादित्य VI ने चोलों को पराजित कर वहाँअपने सेनापति अनंतपाल को शासक बनाया था।
♦ कोंकण पर अधिकार कर अपना सामंत – कामदेव को नियुक्त कियाथा।
♦ यादवों के विद्रोह का दमन
♦ श्रीलंका के शासक – विजयबाहु की सभा में एक दूतमंडल भेजा।
सोमेश्वर III (1126 - 1138 ई.)
♦ अंतिम प्रतापी शासक माना जाता है।
♦ उपाधि – सर्वज्ञभूप:
♦ ग्रंथ : मानसोल्लास (शिल्पशास्त्र पर आधारित)
♦ इसकी मृत्य के बाद इसके दो पुत्र जगदेकमल्ल II (1139-1151 ई.) वतैलप III ने शासन किया।
♦ तैलप III के समय होयसल, कलचूरि, यादव आदि सामंतों ने अपनेआपको स्वतंत्र घोषित कर लिया à साम्राज्य निर्बल हो गया।
♦ तैलप III के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ (1181-1189 ई.) शासकबना, इसने कल्याणी की प्रतिष्ठा पुन: स्थापित करने का प्रयास किया àअसफल रहा।
♦ 1190 ई. में देवगिरी के यादवों ने कल्याणी पर आक्रमण कर अधिकारकर लिया।
♦ दक्षिणी भागों पर होयसलों ने अधिकार कर लिया।
♦ सोमेश्वर चतुर्थ ने भागकर वनवासी में शरण ली।
♦ कल्याणी के चालुक्यों का अंत हो गया।
वेंगी के चालुक्य
♦ आंध्रप्रदेश के कृष्णा-कावेरी नदी के बीच वेंगी राज्य स्थित था।
♦ वेंगी के चालुक्य वंश का संस्थापक कुब्ज विष्णुवर्धन (कीर्तिवर्मन-I का पुत्र) था।
♦ विष्णुवर्धन ने विषम सिद्धि की उपाधि धारण की थी।
♦ जयसिंह प्रथम ने पृथ्वीवल्लभ, पृथ्वी जयसिंह तथा सर्वसिद्धि जैसीउपाधियाँ धारण की थी।
♦ विजयादित्य तृतीय ने पंडरंग महेश्वर नाम से शैव मन्दिर निर्मित करवायाथा।
♦ विजयादित्य तृतीय का महान एवं सुयोग्य सेनापति पंडरंग था।
♦ भीम द्वितीय ने विजयवाड़ा में मल्लेश्वर स्वामी का मन्दिर बनवाया था।
♦ भीम द्वितीय ने विष्णुवर्धन, लोकाश्रय, राजमार्तण्ड, त्रिभुवनांकुश जैसीउपाधियाँ धारण की थी।
♦ वेंगी के चालुक्य वंश का अंतिम शासक विजयादित्य VII था।
पल्लव वंश
♦ इस वंश के शासक अर्काट, मद्रास, त्रिचनापल्ली तथा तंजौर केआधुनिक जिलों पर राज्य करते थे।
♦ शिलालेखों में पहले पल्लव राजा का उल्लेख कांची के विष्णुगोप कामिलता है।
♦ पल्लवों में सिंहविष्णु छठी शताब्दी ई. के उत्तरार्द्ध में सिंहासन पर बैठा।
♦ सिंहविष्णु पल्लव वंश के वास्तविक संस्थापक माने जाते हैं जिन्होंनेअवनिसिंह की उपाधि धारण की थी।
जानकारी के स्रोत-
1. संगम साहित्य में पल्लवों को “तोडीयार“ कहा गया है।
2. बाहुर अभिलेख (काँची) में पल्लवों को ”तोण्डई” कहा गया है।
3. दण्डी के ग्रंथ- अवंति सुंदरी में पल्लव शासक सिंह विष्णु का उल्लेखमिलता है।
4. मत्तविलास प्रहसन:- पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम द्वारा रचित है।
जानकारी:- पल्लवकालीन सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक जीवनके बारे में जानकारी मिलती है।
5. महावंश - पल्लवों के प्रारम्भिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।
6. सी.यू.की. के अनुसार - ह्वेनसांग नरसिंह वर्मन प्रथम के समय काँचीआया था।
♦ ह्वेनसांग ने नरसिंहवर्मन को सबसे महान शासक बताया था।
♦ समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार उसने दक्षिणापथ विजय केदौरान पल्लव शासक ”विष्णुगोप“ को पराजित किया था।
♦ तमिलनाडु से प्राप्त प्राकृत भाषा के अभिलेखों में ‘पल्लव वंश’ के प्रथमशासक का नाम ‘सिंहवर्मन’ मिलता है।
सिंह विष्णु:- (575 - 600 ई.)
♦ पल्लव वंश के संस्थापक थे।
♦ काँची को राजधानी बनाया था।
♦ उपाधि:- अवनिसिंह
♦ विजय अभियान- पालैयम तमिलनाडु से प्राप्त ताम्रपत्र के अनुसार सिंहविष्णु ने चोल शासक को पराजित कर “चौलमंडल” पर अधिकार करलिया था।
♦ कशाकुड़ी (तमिल) से प्राप्त दानपत्र के अनुसार:- सिंह विष्णु ने मलय, मालव, चोल, सिंहल द्वीप व केरल पर विजय प्राप्त की थी।
♦ सिंह विष्णु के दरबार में महान विद्वान ”भारवि” निवास करते थे जिन्होंने“किरातार्जुनीयम्” नामक ग्रन्थ लिखा था।
♦ ‘किरातार्जुनीयम्’ में भगवान शिव किरात् वेश में अर्जुन के साथ युद्ध काउल्लेख मिलता है।
♦ सिंह विष्णु वैष्णव धर्म के अनुयायी थे।
♦ इन्होंने मामल्लपुरम् (वर्तमान महाबलीपुरम्) में एक वराह मंदिर कानिर्माण करवाया था।
♦ इस मंदिर में अपनी स्वयं की प्रतिमा भी स्थापित करवाई थी।
महेन्द्रवर्मन प्रथम - (600 - 630 ई.)
♦ सिंह विष्णु का पुत्र था।
♦ उपाधियाँ - मत्तविलास, विचित्रचित्त (आविष्कारक मन), गुणभर
♦ इसी के समय चालुक्य (बादामी) पल्लव संघर्ष प्रारंभ हुआ।
♦ चालुक्य शासक-पुलकेशिन II ने आक्रमण किया।
♦ महेन्द्रवर्मन प्रारंभिक समय में जैन अनुयायी था परन्तु शैव संत "अप्पर" के प्रभाव में आकर शैव अनुयायी बना था।
♦ महेन्द्रवर्मन ने त्रिचनापल्ली, महेन्द्रवाड़ी, दलवणूर में अनेक मंदिरों कानिर्माण करवाया था।
♦ पल्लव वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था।
♦ इसका काल पल्लवों का स्वर्णिम युग था।
♦ ग्रंथ - महेन्द्रवर्मन ने "मत्तविलासप्रहसन", “भगवदरज्जूक” नामक ग्रन्थलिखे।
♦ इसमें बौद्ध भिक्षुओं व कापालिकों (शैव) पर व्यंग्य किया गया है।
♦ महेन्द्र ने दो तालाबों 1. महेन्द्रवाड़ी 2. चित्रमेघ का निर्माण करवाया।
♦ यह संगीतज्ञ भी था तथा उनके संगीत गुरु रुद्राचार्य थे।
नरसिंह वर्मन प्रथम - (630 - 668 ई.)
1. पल्लव - चालुक्य संघर्ष
उल्लेख:-
♦ कुर्रम अभिलेख - इसके अनुसार नरसिंह वर्मन प्रथम ने पुलकेशिन II कोक्रमश: पारियाल, शूरमार व मणिमंगलम के युद्ध में पराजित किया तथापराजित करने के बाद उसकी पीठ पर "विजयाक्षर" अंकित करवा दियाथा।
♦ 642 ई. में चालुक्यों की राजधानी बादामी पर अधिकार कर लिया था।
♦ वातापी में मल्लिकार्जुन मंदिर पर अपना विजयस्तम्भ अभिलेख स्थापित किया।
♦ उपाधि - वातापीकोंड (वातापी को तोड़ने वाला / वातापी का अपहर्ता)
2. सिंहल द्वीप (श्रीलंका) अभियान:-
♦ पुलकेशिन II के विरुद्ध श्रीलंका के राजकुमार मानवर्मा की सहायता कीथी।
♦ निर्माण कार्य:- नरसिंह वर्मन प्रथम ने "महाबलीपुरम्" में एकाश्मक रथमंदिरों का निर्माण करवाया था।
♦ नरसिंह वर्मन शैली प्रचलित थी।
♦ काँची विश्वविद्यालय शिक्षा का एक महान केन्द्र था।
♦ कदम्बवंशीय मयूरशर्मन ने 18 अश्वमेध यज्ञ किए।
नोट:- नरसिंह वर्मन प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महेन्द्र वर्मन II शासक बना (668-670) जिसे चालुक्य शासक – विक्रमादित्य I ने मारडाला।
परमेश्वरवर्मन I - (670 - 700 ई.)
♦ महेन्द्रवर्मन का पुत्र था।
♦ उपाधियाँ - लोकादित्य, एकमल्ल, रणजय, अत्यंतकाम, उग्रदण्ड, गुणभाजन, विद्याविनीत।
प्रमुख घटना -
♦ बादामी चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम ने काँची पर आक्रमण करराजधानी पर अधिकार कर लिया था।
♦ कुछ समय बाद परमेश्वरवर्मन ने काँची पर पुन: अधिकार कर लिया था।
♦ शैव अनुयायी था - माम्मलपुरम में एक गणेश मंदिर का निर्माणकरवाया।
नरसिंह वर्मन II (700 - 728 ई.)
♦ परमेश्वरवर्मन का पुत्र था।
♦ उपाधि - राजसिंह, शंकरभक्त, आगमप्रिय (विद्या का प्रेमी)।
प्रमुख घटनाएँ
♦ चालुक्य - पल्लव संघर्ष विराम।
♦ राजधानी काँची में "कैलाशनाथ मंदिर" का निर्माण करवाया था।
♦ महाबलीपुरम् में "शौर" मंदिर का निर्माण करवाया था।
♦ इसने राजसिंह शैली प्रचलित की थी।
♦ इसके दरबार में संस्कृत के महान विद्वान "दण्डिन (दण्डी)" निवास करतेथे, जिनकी रचनाएँ - अवन्ति सुंदरी, दशकुमार चरित, काव्यादर्श आदि।
♦ अपना दूत मंडल - चीन भेजा।
♦ नागपट्टनम (तमिल) में बौद्ध भिक्षुओं हेतु "बौद्ध विहार" का निर्माणकरवाया था।
परमेश्वरवर्मन II (728 - 731 ई.)
♦ नरसिंह वर्मन II का पुत्र था।
♦ तिरूवाड़ी में एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया था।
♦ पल्लव-चालुक्य संघर्ष पुन: प्रारम्भ हुआ।
♦ चालुक्य शासक - विक्रमादित्य II ने गंगवंश (ओडिशा) के राजकुमार "एरेयप्प" की सहायता से काँची पर आक्रमण कर इसे मार डाला।
नंदिवर्मन II (730 - 800 ई.)
♦ कुछ इतिहासकारों के अनुसार - परमेश्वरवर्मन संतानहीन था।
♦ अत: काँची के विद्वानों ने पल्लव वंश की एक समान्तर शाखा केराजकुमार "नंदिवर्मन II" जो कि "हिरण्यवर्मन" का पुत्र था, को काँची काशासक बनाया था।
♦ अनेक राज्यों ने पल्लवों पर आक्रमण कर दिया जैसे:-
पांड्य आक्रमण
कारण:-
♦ कुछ इतिहासकारों के अनुसार "परमेश्वरवर्मन II" का एक पुत्र "चित्रमाय" था जिसे परमेश्वरवर्मन II ने उत्तराधिकार से वंचित कर दिया, वह पाण्ड्यशासकों से जा मिला।
♦ पिता की मृत्यु के बाद पाण्ड्यों से मिलकर काँची पर आक्रमण कियाथा।
♦ नंदिवर्मन II के सेनापति "उदयचन्द्र" ने चित्रमाय को युद्ध में मार दियाथा।
♦ चालुक्य शासक –विक्रमादित्य II व पुत्र कीर्तिवर्मन ने काँची परआक्रमण कर अपार धन लूटा।
राष्ट्रकूट संघर्ष :-
♦ राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग ने “नंदिवर्मन II” को पराजित किया था।
♦ दोनों में संधि हुई।
♦ दंतिदुर्ग ने अपनी पुत्री “रेखा” का विवाह नंदिवर्मन के साथ कर दिया था।
♦ सत्य तथ्य :- नंदिवर्मन II वैष्णव धर्म का अनुयायी था।
निर्माण कार्य:-
♦ नंदिवर्मन II ने काँची में “मुक्तेश्वर” शिव मंदिर व “बैकुण्ठ पेरूमाल” मंदिरों का निर्माण करवाया था।
नोट:- नंदिवर्मन II के बाद दंतिवर्मन (800-846 ई.) तक शासक रहा, जिसे अभिलेखों में “विष्णु का अवतार” कहा गया है।
♦ नंदिवर्मन III दंतिवर्मन का पुत्र था। इसने गंगों को पराजित किया।
♦ चोल, राष्ट्रकूट व गंगवंश के साथ मिलकर “पाण्ड्यों” को पराजित कियातथा कावेरी के क्षेत्र पर पुन: अधिकार कर लिया था।
♦ राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष ने अपनी पुत्री “शंखा” का विवाह नंदिवर्मन III के साथ कर दिया था।
♦ इसके दरबार में तमिल के महान विद्वान “पेरून्देवनार” निवास करते थेजिन्होंने “भारत वैणवा” नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
नोट:- नंदिवर्मन III की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नृपतुंगवर्मन (869-880) शासक बना।
♦ इस वंश का अंतिम शासक अपराजित (880-903 ई.) इसे चोल शासक “आदित्य प्रथम” ने मार डाला था।
♦ काँची के पल्लवों का पतन हो गया था।
♦ पल्लव कालीन कला-संस्कृति द्रविड़ कला का आधार थी।
♦ दक्षिण भारत की मंदिर स्थापत्य के 3 अंग माने गए हैं-
♦ पल्लव ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे इसी काल में अलवार व नयनार संतों ने भक्ति आन्दोलन प्रांरभ किया।
पल्लवकालीन कला
♦ पल्लव काल कला एवं स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध है।
♦ पल्लव कला ही द्रविड़ कला शैली का आधार बनी।
♦ इसे प्रारम्भ करने का श्रेय महेन्द्रवर्मन प्रथम को है।
♦ दक्षिण भारत की मंदिर स्थापत्य के तीन प्रमुख अंग थे-
1. मण्डप
2. रथ
3. विशाल मंदिर- विशाल प्रवेश द्वारा - गोपुरम्
♦ पर्सी ब्राउन ने पल्लव स्थापत्य कला को 4 भागों में विभाजित किया है-
1. महेन्द्रवर्मन शैली (610 - 640 ई.)
♦ इस शैली में कठोर पाषाण (चट्टानों) को काटकर गुहा मंदिरों कानिर्माण जिन्हें “मण्डप” कहा गया है।
♦ मण्डप साधारणत: स्तंभयुक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार पर एकदो कक्ष निर्मित होते हैं। जैसे- पल्लवरम का पंचपांडव मंडप, भैरव कोण्डा का मंडप, त्रिमूर्ति मंडप।
2. मामल्ल शैली (640 - 674 ई.):-
♦ इस शैली का विकास- नरसिंह वर्मन प्रथम द्वारा किया गया था।
♦ इसके अन्तर्गत दो प्रकार के स्मारक- (1) मण्डप (2) रथ या एकाश्मकमंदिर
♦ इन एकाश्मक मंदिरों में “द्रौपदी रथ” मंदिर सबसे छोटा है, जबकि “धर्मराज रथ” सबसे बड़ा व सुंदर है।
♦ इन रथ मंदिरों को “सात पैगोड़ा” कहा जाता है।
1. द्रौपदी रथ- सबसे छोटा
2. नकुल-सहदेव रथ
3. अर्जुन रथ
4. भीम-रथ
5. धर्मराज रथ-सबसे बड़ा/सुंदर था, इस पर नरसिंहवर्मन की मूर्ति भी है।
6. गणेश रथ
7. पिण्डारी रथ
8. वलैयंकुट्टै रथ
♦ कुल रथ मंदिरों की संख्या-8 हैं।
♦ ये रथ मन्दिर संभवत: शिव मन्दिर है।
♦ इन रथ मंदिरों पर शिव, गंगा, पार्वती, गणेश, दुर्गा, हरिहर, ब्रह्मा काअंकन मिलता है।
♦ सप्तपैगोड़ा (महाबलीपुरम)- मूर्तिकला के लिए विख्यात है।
3. राजसिंह शैली (674 - 800 ई.):-
♦ गुहामंदिरों के स्थान पर ईंट व पाषाण की सहायता से इमारती मंदिरों कानिर्माण किया गया था।
♦ स्थापित :- नरसिंह वर्मन II द्वारा
♦ काँची का कैलाशनाथ मंदिर इसी शैली में निर्मित है जिसका निर्माणनरसिंह वर्मन II के समय प्रारंभ होकर परमेश्वर वर्मन II के समय पूर्ण हुआथा।
♦ महाबलिपुरम् का ‘शोर मंदिर’ भी इसी शैली का है।
4. नंदिवर्मन शैली (800 - 900 ई.)
♦ इस शैली में छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण हुआ।
जैसे- काँची का “मुक्तेश्वर मंदिर” – मतंगेश्वर मंदिर, गुडी मल्लम कापरशुरामेश्वर मंदिर।
चोल राजवंश
♦ अशोक के दूसरे एवं तीसरे शिलालेखों में चोल साम्राज्य का उल्लेखमिलता है।
♦ संगम साहित्य में चोल शासक करिकाल तथा उसकी राजधानी उरैयूर कावर्णन है।
♦ महावंश – बौद्ध ग्रन्थ
♦ रचना – सिंहली द्वीप (श्रीलंका) में
♦ चोल शासक – परान्तक प्रथम द्वारा पाण्ड्य शासकों पर विजय काउल्लेख मिलता है।
♦ राजेन्द्र प्रथम द्वारा श्रीलंका विजय का उल्लेख मिलता है।
♦ दीपवंश व महावंश को सिंहली अनुश्रुतियों के रूप में जाना जाता है (दोनों ही बौद्ध ग्रन्थ है)
♦ वीरशोलियम् :– रचना – बुद्धमित्र
♦ उल्लेख वीर राजेन्द्र के बारे में जानकारी मिलती है।
अभिलेख :-
1. लीडन दानपत्र लेख – राजराज प्रथम के बारे में जानकारी मिलती है।
2. तंजौर अभिलेख – राजराज प्रथम के बारे में जानकारी मिलती है।
3. करन्दे अभिलेख – राजेन्द्र प्रथम के बारे में जानकारी मिलती है।
चोल वंश :-
♦ दक्षिण भारत का सबसे प्राचीनतम वंश माना जाता है।
♦ उदय : संगमकाल (3 शताब्दी) में परन्तु राजनीतिक उत्थान नौवींशताब्दी में हुआ था।
♦ चोल का शाब्दिक अर्थ – घूमना
विजयालय (850 – 871 ई.)
♦ 9वीं शताब्दी में चोल वंश का संस्थापक विजयालय था जिसने पल्लवोंसे सत्ता प्राप्त की।
♦ विजयालय ने तंजौर को अपनी राजधानी बनाया तथा नरकेसरी कीउपाधि धारण की।
आदित्य प्रथम (871 – 907 ई.)
♦ प्रथम शक्तिशाली शासक जिसने पल्लवों को पराजित किया था।
♦ विजयालय का पुत्र आदित्य I ने 'कोद्दंडराम' की उपाधि धारण की।
परान्तक प्रथम (907 – 955 ई.)
♦ पांड्य नरेश राजसिंह II को पराजित कर 'मदुरैकोण्ड' की उपाधि धारणकी।
♦ परांतक II सुंदर चोल के नाम से प्रसिद्ध था।
♦ परान्तक प्रथम के उत्तरमेरुर अभिलेख से चोलकालीन “स्थानीय स्वशासन” की जानकारी मिलती है।
नोट:- 953 ई. से लेकर 985 ई. तक चोल साम्राज्य में राजनीतिकउठापटक रही। इस दौरान उत्तम चोल (973-985 ई.) शासक जिसनेपहली बार सोने के सिक्के चलाए, ऐसा करने वाला प्रथम शासक था।
राजराज प्रथम (985 – 1014/15 ई.)
♦ प्रथम सबसे प्रतापी शासक था।
♦ राजराज I (985-1014) मुम्माडि चोलदेव, जयगोंड, चोल मार्तंड आदिनामों से भी जाना जाता था।
♦ राजराज-I ने श्रीलंका की राजधानी अनुराधपुर को नष्ट कर दिया तथापोलनरुआ नई राजधानी बनाया व इसका नाम ‘जगन्नाथ मंगलम्’ रखा।
♦ श्रीलंका के शासक महेन्द्र-V को पराजित कर श्रीलंका के उत्तरी भाग परअधिकार कर लिया था।
♦ इस उत्तरी भाग को चोल साम्राज्य का एक प्रांत बनाया तथा इसका नाम “मामुण्डिशोलमण्डलम” रखा था।
♦ 1000 ई. में इसने भू-सर्वेक्षण किया ताकि भू-राजस्व का निर्धारण कियाजा सके।
♦ स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहन दिया।
♦ एक दूत मण्डल चीन भेजा।
♦ उसने मालद्वीप को भी पराजित किया।
♦ राजराज-I शैव मतानुयायी था तथा उसने शिवपादशेखर की उपाधिधारण की।
♦ उसने तंजौर में विश्वप्रसिद्ध राजराजेश्वर/वृहदेश्वर मंदिर का निर्माणकरवाया।
♦ उसके शासनकाल में शैलेन्द्र शासक श्रीमार विजयोतुंग वर्मन कोनागपट्टम में बौद्ध विहार बनाने की अनुमति दी गई।
राजेन्द्र I (1014/15 - 1044 ई.)
♦ राजेन्द्र I के शासनकाल में श्रीलंका को पूर्णरूपेण विजित किया गयातथा तत्कालीन शासक महेन्द्र V को बंदी बनाया गया।
♦ राजेन्द्र चोल के उत्तर की ओर किए गए सैन्य अभियान में गंग शासकतथा पाल शासक (महीपाल) को पराजित किया गया। इस अभियान कीसफलता पर राजेन्द्र I 'गंगैकोण्डचोल' की उपाधि धारण की। साथ हीगंगईकोंडचोलपुरम नामक नगर का निर्माण किया गया।
♦ राजेन्द्र I ने दक्षिण - पूर्व एशिया स्थित श्रीविजय राज्य को भी विजितकिया।
♦ राजेन्द्र प्रथम ने अरब सागर पर प्रभुसत्ता कायम की।
राजाधिराज प्रथम (1044 - 1052 ई.) :-
♦ राजेन्द्र I के बाद राजाधिराज I उसका उत्तराधिकारी बना उसने चालुक्यनरेश सोमेश्वर को हराकर वीर राजेन्द्र की उपाधि धारण की।
♦ कोप्पम युद्ध में राजाधिराज-I सोमेश्वर के साथ युद्ध करते हुए मारा गयातथा उसके छोटे भाई राजेन्द्र-II का राज्याभिषेक युद्धभूमि में ही किया गया।
राजेन्द्र-II (1052 - 1064 ई.) :-
♦ अपने पिता राजाधिराज की हत्या का बदला लेने हेतु कोप्पम की युद्धभूमि में ही सोमेश्वर प्रथम को पराजित किया था।
♦ इस विजय के उपलक्ष्य में “कोल्हापुर” में एक विजय स्तंभ का निर्माणकरवाया तथा अपना राज्याभिषेक करवाया था।
♦ 1062 ई. में कुंडलसंगम (कर्नाटक) के युद्ध में सोमेश्वर प्रथम को पुन: पराजित कर राजकेसरी की उपाधि धारण की थी।
वीर राजेन्द्र (1064 - 1070 ई.) :-
♦ वीर राजेन्द्र, राजेन्द्र-II का पुत्र था।
♦ 1066 ई. में इसने कल्याणी के शासक सोमेश्वर प्रथम को पराजितकिया था ।
♦ सोमेश्वर ने अगले वर्ष पुन: लड़ने को चुनौती दी थी।
♦ 1067-68 ई. कुंडलसंगम के युद्ध में सोमेश्वर प्रथम बीमार होने केकारण स्वयं न आकर अपनी सेना को वीर राजेन्द्र से लड़ने भेजा था।
♦ वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर की सेना को पराजित किया था।
♦ तुंगभद्रा नदी के किनारे “विजय स्तंभ” व “राजकेसरी” की उपाधि धारणकी थी।
♦ विजयवाड़ा (बैजवाड़ा) के युद्ध में वेंगी चालुक्यों को पराजित कर वेंगीपर पुन: चोलों का अधिकार स्थापित किया था।
नोट:- वीर राजेन्द्र की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार संघर्ष हुआ,जिसमें अधिराजेन्द्र विजय रहा व शासक बना।
♦ चोल शासक अधिराजेन्द्र की जन विद्रोह के समय में हत्या कर दी गई।
कुलोत्तुंग प्रथम (1070 - 1120 ई.) :-
♦ कुलोत्तुंग I चोल - चालुक्य वंश का प्रथम शासक था।
♦ मूलत: यह वेंगी चालुक्य शासक राजेन्द्र द्वितीय था, जिसने अधिराजेन्द्रकी मृत्यु के बाद चोल साम्राज्य पर अधिकार कर अपना राज्याभिषेक “कुलोत्तुंग प्रथम” के नाम से करवाया था।
♦ रामानुज को इनके कारण श्रीरंगम छोड़ना पड़ा।
♦ इसके समय भी अनेक जन विद्रोह हुए।
♦ 1076 ई. में सिंहल द्वीप (श्रीलंका) ने अपने आप को स्वतंत्र कर लियाथा।
♦ 1078/79 ई. शासक विजयादित्य (विक्रमादित्य) के साथ हुए युद्ध मेंइसने कल्याणी शासक को पराजित कर गंगवाड़ी पर अधिकार कर लियाथा।
♦ पाण्ड्य व चेरों ने भी विद्रोह किए परन्तु उनका दमन कर दिया था।
♦ इसने भूमि का दो बार सर्वेक्षण करवाया।
कलिंग आक्रमण :-
♦ कुलोत्तुंग ने दो बार कलिंग पर आक्रमण किया था :-
1. 1096 ई. – द. कलिंग के विद्रोह का दमन करने हेतु।
2. 1110 ई. – कलिंग शासक अनंतवर्मन को पराजित कर कलिंग परअधिकार कर लिया था।
♦ उपाधि – त्रिभुवनचक्रवर्तिन (तीनों लोकों का स्वामी)
♦ कुलोत्तुंग I के शासनकाल में 1077 में 72 व्यापारियों के एक दूतमंडलको चीन भेजा गया।
♦ कुलोत्तुंग I ने 'शुंगमतर्वित चोल' (करों को हटाने वाला) की उपाधि धारणकी।
♦ उसके शासनकाल में भूमि का पुनः सर्वेक्षण कराया गया।
♦ 1120 ई. में इसकी मृत्यु के साथ ही चोलों का पतन प्रारंभ हो गया था।
♦ कुलोत्तुंग II के शासनकाल में चिदम्बरम् मंदिर में स्थित गोविन्दराज कीमूर्ति को समुद्र में फेंक दिया गया। कालान्तर में प्रसिद्ध वैष्णव संतरामानुजाचार्य ने उक्त मूर्ति का पुनः उद्धार करके उसे तिरुपति मंदिर मेंस्थापित किया।
♦ कुलोत्तुंग II के दरबार में तमिल रामायण के लेखक कम्बन रहते थे।
♦ विक्रमचोल ने त्याग समुद्र की उपाधि ग्रहण की।
राजेन्द्र-III (1256 - 1279 ई.) :-
♦ चोल वंश का अंतिम शासक।
♦ इसी ने मदुरै के पाण्ड्य शासक सुन्दर पाण्ड्य, चेर, काकतीय व होयसलपर विजय प्राप्त की थी।
♦ सुंदर पाण्ड्य ने राजेन्द्र-III पर आक्रमण कर पराजित किया व इसे अपनासामंत बना लिया था।
♦ चोल साम्राज्य का विभाजन पाण्ड्य व होयसलों में हो गया था।
चोल प्रशासन :
♦ चोल प्रशासन केन्द्रीय नियंत्रण के साथ - साथ स्थानीय स्वायत्तता केलिए प्रसिद्ध था।
♦ शासन की प्रकृति- राजतंत्रात्मक थी।
♦ राजा की मृत्यु के बाद- ज्येष्ठाधिकार था।
♦ उपराजा का सामान्यत- राजकुमारियों को दिया जाता था।
♦ राजा के मौखिक आदेश- तिरुवायकेल्वी कहलाता था।
दो प्रकार के सरकारी अधिकारी-
1. पेरुन्दनम: उच्च श्रेणी के अधिकारी
2. शेरुन्दनम: निम्न श्रेणी के अधिकारी
♦ वैडेक्कार: राजा के व्यक्तिगत अंगरक्षक
♦ उडेनकुट्टम: शाब्दिक अर्थ: सदा प्रस्तुत समूह
♦ उडेनकुट्टम में आदेशों को लिपिबद्ध करने का कार्य किया जाता था।
♦ अधिकारियों को वेतन के रूप में भूमि दी जाती थी।
साम्राज्य विभाजन:-
♦ प्रशासन इकाई- केन्द्र (देश)
♦ मण्डलम् (राज्य/प्रांत)
♦ कोट्टम/वलनाडु (जिला)
♦ नाडु- तहसील
♦ कुर्रम- ग्राम पंचायत
♦ गाँव- प्रशासन की सबसे छोटी इकाई।
♦ इनके सिक्कों पर – व्याघ्र, मछली, धनुष, वराह का अंकन होता था।
♦ दक्षिण भारत में वराह प्रकार का सिक्का सबसे ज्यादा प्रचलित था।
♦ ताँबे के सिक्के हेतु काकणी शब्द का प्रयोग किया गया था।
♦ उत्तम चोल प्रथम चोल शासक जिसने सोने के सिक्के चलाए।
सैन्य प्रशासन-
♦ चोलों की 4 प्रकार की सेना थी- 1. पैदल सेना, 2. अश्व सेना, 3. गजसेना, 4. जल सेना
♦ रथ सेना का उल्लेख नहीं मिलता है।
♦ सेना की टुकड़ी को- गुल्प
♦ सेना की टुकड़ियों का प्रमुख- नायक
♦ सेनापति को- महादण्डनायक
♦ वीरतापूर्वक लड़ने वाले सैनिकों को क्षत्रिय शिरोमणि की उपाधि दीजाती थी।
♦ राजा की मृत्यु के पश्चात् मंदिरों में मूर्तियाँ स्थापित कर पूजा की जातीथी।
♦ राजराज I तथा कुलोत्तुंग I के शासनकाल में भूमि सर्वेक्षण कराया गयाथा।
♦ चोलों के पास शक्तिशाली नौसेना थी।
स्थानीय स्वशासन-
♦ चोलों की सबसे महत्त्वपूर्ण देन ‘स्थानीय स्वशासन’ थी
♦ ग्रामीण स्तर पर संस्थाओं को स्वायत्तता दी गई थी।
♦ ग्राम स्तर पर उर तथा सभा या महासभा संस्थाएँ थी।
♦ उर: सभी लोगों की ग्राम सभा (गाँव के सभी लोग शामिल) थी।
♦ सभा/महासभा गाँव के ब्राह्मणों की सभा थी।
♦ नगरम् व्यापारिक समुदाय की प्रशासनिक सभा जिसमें केवल व्यापारीवर्ग ही शामिल था।
♦ वारियम सभा की समिति को कहा जाता था।
♦ विशेष परिस्थिति में ही केन्द्रीय सरकार स्थानीय स्वशासन की स्वायत्ततामें हस्तक्षेप करती थी।
♦ नगरम नामक एक अन्य संस्था व्यापारिक गतिविधियों की देखरेख करतीथी।
कला एवं संस्कृति :
♦ चोलकाल में पल्लवों द्वारा प्रारंभ की गई द्रविड़ मंदिर स्थापत्य कलाअपने चरम सीमा पर पहुँच गई थी।
♦ चोलकालीन मंदिर- आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों केप्रमुख केन्द्र थे।
चोलकालीन मंदिर
♦ चोल मंदिरों के संदर्भ में फर्ग्यूसन का कथन- चोल कलाकारों ने इनमंदिरों का निर्माण दानवों की भाँति किया तथा रत्नकारों (जोहरियों) कीतरह विन्यास किया था।
♦ वृहदेश्वर मंदिर (राजराजेश्वर मंदिर) वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण- राजराज प्रथम ने करवाया था।
♦ वृहदेश्वर मंदिर स्थित है- तंजौर (दारासुरम)
♦ द्रविड़ शैली का सर्वोत्कृष्ट नमूना माना जाता है।
♦ 1987 वर्ष में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत (धरोहर) सूची में शामिलकिया गया था।
♦ त्रिभुवनेश्वर मंदिर- कुलोत्तुंग III- त्रिभुवन (तंजौर)
♦ कम्हरेश्वर मंदिर- कुलोत्तुंग III – त्रिभुवन (कुंभकोणम)
♦ सबसे बड़ा मंदिर- वृहदेश्वर शिव मंदिर।
♦ धर्म एवं समाज में क्षत्रिय एवं वैश्य का अस्तित्व नहीं था।
♦ वलंगै (दायीं भुजा वाले) तथा इड़गै (बायीं भुजा वाले) विशेषाधिकारप्राप्त वर्ग थे।
♦ वैष्णव संतों को आलवार तथा शैव संतों को नयनार कहा जाता था।
♦ चोल शासनकाल में शैव एवं वैष्णव दोनों धर्मों का प्रचार हुआ।
♦ अधिकांश चोल शासक शैव मतानुयायी थे।
♦ चोलकालीन वैष्णव मत के प्रधानाचार्य रामानुज विशिष्टाद्वैतवाद मत काप्रतिपादन किया।
♦ विजयालय चोल ने नार्तामलाई में चोलेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया।
♦ चोलों के अधीन चित्रकला का भी विकास हुआ।
♦ कन्ननूर में आदित्य I ने सुब्रह्मण्यम मन्दिर का निर्माण करवाया।
♦ परांतक II के शासनकाल में श्रीनिवासनालयूर में कोरंगनाथ मंदिर कानिर्माण हुआ।
♦ आदित्य I ने तिरुकटले में सुन्देश्वर मंदिर एवं कुम्भकोणम् में नागेश्वर मंदिर बनाए (कावेरी नदी के किनारे दोनों शैव मंदिर बनाए)।
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