वाद्ययंत्रों का वर्गीकरण
प्रमुख वाद्ययंत्र और उनके वादक
वादक कलाकार | वाद्ययंत्र |
हरिप्रसाद चौरासिया एवं पन्नालाल घोष | बाँसुरी |
बिस्मिल्लाह खाँ | शहनाई |
रामनाथ चौधरी | अलगोजा |
कर्णा भील | नड़ |
स्व. सद्दीक खाँ मांगणियार | खड़ताल |
पेपे खाँ | सुरनाई |
जहूर खाँ मेवाती | भपंग |
तत् वाद्ययंत्र
· ऐसे वाद्य यंत्र जिनमें तार लगे होते हैं तथा तारों के माध्यम से विभिन्न प्रकार की आवाजें निकाली जाती हैं, तत् वाद्ययंत्र कहलाते हैं।
रावण हत्था–
· रावणहत्था भोपों का प्रमुख वाद्य यंत्र है।
· पाबूजी की फड़ बाँचते समय भोपे रावणहत्था का प्रयोग करते हैं।
· इसे बड़े नारियल की कटोरी पर खाल मढ़कर बनाया जाता है।
· इसकी डांड बाँस की होती है, जिसमें खूँटियाँ लगा दी जाती हैं और उनमें नौ तार बाँध दिए जाते हैं।
· यह वॉयलिन की तरह गज से बजाया जाता है। गज घोड़े की पूँछ के बालों से निर्मित होता है। गज के अंतिम सिरे पर घूँघरू बँधे होते हैं, जिनके संचालन से ध्वनि उत्पन्न होती हैं।
सारंगी
● यह तत् वाद्य यंत्रों में सर्वश्रेष्ठ है। इसमें 27 तार होते हैं।
· सारंगी सागवान, कैर या रोहिड़े की लकड़ी से बनाई जाती है। इसके तार बकरे की आँत के बने होते हैं और घोड़े की पूँछ के बालों से बनी गज से इसका वादन होता है। इसे बिरोजा पर घिसकर बजाने पर तारों से ध्वनि उत्पन्न होती है।
· राजस्थान में दो प्रकार की सारंगियाँ प्रचलित हैं– सिंधी सारंगी व गुजराती सारंगी। सिंधी सारंगी उन्नत व विकसित होती है, जिसमें तारों की संख्या अधिक होती है।
· गुजराती सारंगी में सात तार होते हैं जो स्टील के बने होते हैं, इसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत में अधिक होता है।
·बाड़मेर-जैसलमेर क्षेत्र की लंगा जाति अपने लोक संगीत में सारंगी का अधिक प्रयोग करती है। मिरास, जोगी और मांगणियार कलाकार भी सारंगी के साथ गाते हैं। जोगी सारंगी पर गोपीचंद्र, भर्तृहरि, निहाल दे आदि के ख्याल गायन के समय सारंगी का प्रयोग करते हैं।
चौतारा या तंदूरा
● कामड़ जाति के लोग, निर्गुण भजन गाने वाले नाथपंथी और रामदेवजी के भजन गाने वाले लोग इस वाद्य का प्रयोग करते हैं।
· यह चार तारों वाला वाद्य है। इसकी आकृति सितारा या तानपुरे के समान होती है, लेकिन इसकी कुण्डी तुम्बे की बजाय लकड़ी की बनी होती है। इसके तारों को मिलाने का क्रम उल्टा होता है।
· वादक इसे बाएँ हाथ में पकड़कर दाएँ हाथ की पहली अँगुली में मिजराब पहनकर बजाते हैं। इसमें आघात दाएँ से बाएँ किया जाता है।
· चौतारा के साथ खड़ताल, मंजीरा, चिमटा आदि वाद्ययंत्र बजाये जाते हैं।
अपंग
· यह वाद्य उदयपुर संभाग के भीलों द्वारा बजाया जाता है।
· यह लकड़ी, धातु चर्मपत्र, लौकी के खोल, बकरी की खाल, बाँस आदि से बना होता है।
· मान्यता है कि इसे संत इस्माइल नाथ जोगी ने बनाया था। इसे वादक काँख में दबाकर एक हाथ से उस तार को खींचकर या ढीला छोड़कर दूसरे हाथ से लकड़ी के टुकड़े से प्रहार करता है।
कामायचा
· कामायचा जैसलमेर और बाड़मेर क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य है।
●जैसलमेर के कामायचा वादक साकर खाँ को गणतंत्र दिवस पद्मश्री (2012) पर देने की घोषणा की गई।
· यह सारंगी के समान ही होता है, मगर बनावट में उससे थोड़ा अलग है। इसकी तबली सारंगी से चौड़ी व गोल होती है। तबली पर चमड़ा मढ़ा होता है।
· इसमें सत्ताइस तारों का प्रयोग किया जाता है, जो बकरी की आँतों को सुखाकर बनाए जाते हैं तथा घोड़े के बालों का भी इस हेतु प्रयोग किया जाता है।
● इसकी ध्वनि में भारीपन तथा गूँज होती है।
· इस वाद्य में दो मोर तथा नौ मोरनियाँ होती हैं। कामायचा की ध्वनि में भारीपन और गूँज होती है।
● इसका प्रयोग मुस्लिम शेख अधिक करते हैं जिन्हें ‘मांगणियार’ कहा जाता है।
इकतारा
· कालबेलिया, नाथ, साधु-संन्यासी आदि इकतारा बजाते हुए लोक संगीत की मधुरता बढ़ा देते हैं।
● इकतारा गोल तुम्बे में बाँस की डंडी फँसाकर बनाया जाता है। तुम्बे का एक हिस्सा काटकर उस पर चमड़ा मढ़ दिया जाता है।
· बाँस पर दो खूँटियाँ लगाकर ऊपर नीचे दो तार बाँध दिए जाते हैं। इसका वादन अंगुली ऊपर-नीचे करके किया जाता है।
· इकतारा को एक हाथ से पकड़कर बजाया जाता है और दूसरे हाथ से खड़ताल बजाई जाती है।
रवाज
· रवाज वाद्य मेवाड़ क्षेत्र में राव व भाटों में अधिक प्रचलित है।
· रवाज सारंगी की श्रेणी का वाद्य है इसमें तारों की संख्या बारह (12) होती हैं।
· चार तार ताँत के बने होते हैं।
· इसके घट का तार सन की डोरी का बना होता है तथा आठ तार तरबों के बने होते हैं।
जन्तर
● इसका प्रचलन मेवाड़ क्षेत्र में अधिक है।
· जन्तर वीणा की तरह होता है। वीणा के समान इसमें दो तुम्बे होते हैं। इनके बीच बाँस की लम्बी नली होती हैं, इसमें चार तार होते हैं। तारों को हाथ की अँगुली और अँगूठे के आधार से आघात करके बजाया जाता है।
· इसका वादन खड़े होकर गले में लटकाकर किया जाता है। जंतर गुर्जर भोपों में अधिक प्रचलित हैं।
सुरिंदा
· सुरिंदा वाद्ययंत्र का प्रयोग मारवाड़ के लोक कलाकार, विशेष कर लंगा जाति के लोगों द्वारा विभिन्न वाद्यों की संगत के लिए किया जाता है।
· इस वाद्ययंत्र का ढाँचा रोहिड़ा की लकड़ी से बनाया जाता है।
· इसमें कुल तीन तार होते हैं। इसे गज से बजाया जाता है जिस पर घुँघरू लगे रहते हैं।
सुरमंडल या स्वरमडंल
· माँगणियार जाति के गायकों में प्रचलित प्रमुख वाद्य है।
· सुरमण्डल की लंबाई दो से ढाई तथा चौड़ाई सवा फुट तक की होती है।
· तारों की संख्या वादक अपनी इच्छानुसार 21 से 26 तक रख सकता है।
सुषिर वाद्य
· वे वाद्य यंत्र जिन्हें फूँक मारकर या हवा के द्वारा बजाया जाता है, उन्हें सुषिर वाद्य यंत्र कहा जाता है।
· शहनाई, बाँसुरी, शंख, अलगोजा, पूँगी, नड़, तुरही, बाँकिया, भूंगल, मोरचंग, मशक, सतारा, मुरली, सिंगा, सुरणाई, हरनाई आदि सुषिर वाद्य यंत्र हैं।
अलगोजा
● यह राजस्थान का राज्य वाद्य है।
● अलगोजा राजस्थान का प्रसिद्ध लोक वाद्य है।
● इसका प्रयोग भील एवं कालबेलिया जातियाँ अधिक करती हैं।
● यह बाँसुरी के समान होता है।
● बाँस की नली के ऊपरी मुख को छीलकर उस पर लकड़ी का एक गट्टा चिपका दिया जाता है।
● नली में चार से सात तक छेद किए जाते हैं, जिनकी दूरी स्वरों की शुद्धता के लिए निश्चित होती है।
● वादक दो अलगोजे अपने मुँह में रखकर एक साथ बजाता है।
● एक अलगोजे पर एक-सी ध्वनि बजाती रहती तथा दूसरे पर भिन्न-भिन्न स्वर निकाले जाते हैं।
● जयपुर के पदमपुरा गाँव के प्रसिद्ध कलाकार ‘रामनाथ चौधरी’ नाक से अलगोजा बजाते हैं।
● अलगोजा वाद्य जैसलमेर, जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, जयपुर, सवाई माधोपुर एवं टोंक आदि में अधिक लोकप्रिय हैं।
पूँगी
● इसका प्रयोग सपेरों द्वारा किया जाता है।
● यह कालबेलिया जाति का प्रमुख वाद्य है।
● पूँगी घीया या एक विशेष प्रकार के तुम्बे से बना होता है, तुम्बे का ऊपरी हिस्सा लम्बा व पतला तथा नीचे का हिस्सा गोल होता है।
● तुम्बे के निचले हिस्से में छेद करके बाँस की दो नलियाँ लगा दी जाती है। इन नलियों में स्वरों के छेद होते हैं।
● अलगोजे के समान ही पूँगी में भी एक नली में स्वर कायम किया जाता है और दूसरी नली में स्वर निकाले जाते हैं।
शहनाई
● यह मांगलिक अवसरों पर विशेष रूप से बजाई जाती है। कभी-कभी लोक नाट्यों में भी इसका वादन होता है।
● शहनाई शीशम या सागवान की लकड़ी से बनी होती है।
● इसकी आकृति चिलम के समान होती है, जिसमें आठ छेद होते हैं। इसे बजाते समय हमेशा मुँह में सांस रखनी पड़ती है, इसलिए वादक नाक से सांस लेते हैं।
● फूँक देने पर इसमें मधुर स्वर निकलता है। बिस्मिल्लाह खाँ भारत के प्रसिद्ध शहनाई वादक थे, जिन्हें शहनाई वादन के लिए वर्ष 2001 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
नड़
● जैसलमेर का कर्णा भील ख्यातिप्राप्त नड़ वाद्य का कलाकार है।
● नड़ लगभग ढाई फीट लम्बा वाद्ययंत्र होता है जो कगोर या कैर की लकड़ी से बना होता है।
● बाँसुरीनुमा नड़ में चार से छह छेद होते हैं। पश्चिमी राजस्थान के चरवाहों एवं भोपों में नड़ वाद्य लोकप्रिय है।
तुरही
● तुरही चिलम की आकार का ताँबे या पीतल से बना वाद्ययंत्र होता है।
● प्राचीन व मध्यकाल में इसे युद्ध का वाद्ययंत्र माना जाता था।
मशक
● इसका प्रयोग भैरूजी के भोपे अधिक करते हैं।
● तीस-चालीस वर्ष पूर्व विवाहादि अवसरों पर मशक का खूब प्रयोग होता था।
● अब यह पुलिस व सुरक्षा बलों के बैंड का प्रमुख वाद्ययंत्र है।
● मशक चमड़े की सिलाई पर बनाया जाता है।
● इसमें वादक एक ओर मुँह से हवा भरता हैं व नीचे की ओर लगी हुई नली से स्वर निकलता है।
● इसकी ध्वनि पूँगी की तरह होती है।
बाँकिया
● गाँवों में सरगरा जाति के लोग बाँकिया बजाते हैं।
● मांगलिक अवसरों पर व त्योहारों पर विशेष दिनों में मंदिरों में ढोल के साथ बाँकिया बजाया जाता है।
● पीतल से निर्मित यह वाद्ययंत्र वक्राकार होने के कारण बाँकिया कहलाता है।
सतारा
● जैसलमेर व बाड़मेर जिले के गड़रिया व मेघवाल जाति के लोग सतारा वाद्य का प्रयोग करते हैं।
● सतारा अलगोजा, बाँसुरी व शहनाई का मिश्रित वाद्य है। इसमें अलगोजे के समान दो लम्बी बाँसुरियाँ होती हैं, जिसमें से एक आधार स्वर देती है तथा दूसरी बाँसुरी के छह छेदों को दोनों हाथों की अँगुलियों से बजाया जाता है।
● सतारा वाद्य में किसी भी इच्छित छेद को बन्द करके आवश्यकतानुसार सप्तक में परिवर्तन किया जा सकता है।
मोरचंग
● चरवाहे पशु चराते समय मनोरंजन के लिए यह वाद्य बजाते हैं।
● यह मोर की आकृति का होता है, जो लोहे या पीतल से बना होता है।
● इसके मध्य एक मजबूत पतला तार होता है।
● एक सिरा मुँह में रखकर उसे श्वास दी जाती है और दूसरे सिरे पर अँगुली से आघात किया जाता है।
सिंगी
● इसे युद्ध के समय बजाए जाने के कारण रणसिंगा भी कहा जाता है।
● यह वाद्ययंत्र सींग के आकार का होता है।
● यह पीतल की चद्दर का बना होता है।
● साधु-संन्यासी ईश्वर-स्मरण के पश्चात् इस वाद्य का प्रयोग करते हैं।
सुरणाई
● दो रीड का यह वाद्य ऊपर से पतला व आगे से फाबेदार होता है।
● इसके राजस्थान में अनेक रूप मिलते हैं।
● इसे आदिवासी क्षेत्र में लक्का व अन्य क्षेत्रों में नफीरी व टोटो नाम से भी जाना जाता है।
● इस पर खजूर की पत्ती की रीड़ लगाई जाती है। जिसे होंठों के बीच रखकर फूँक द्वारा अनुध्वनित किया जाता है।
● मांगलिक अवसरों पर वादित यह वाद्य भी नकसासी द्वारा बजाया जाता है।
● इसके साथ नगाड़े व कामायचे की संगत होती है।
नागफणी
● यह सर्पाकार पीतल का सुषिर वाद्य यंत्र है।
● इस वाद्य के मुख पर ताकत से फूँक देने पर धोरात्मक ध्वनि निकलती है।
● साधु संन्यासियों का यह एक धार्मिक वाद्य है जो कई मंदिरों में भी देखने को मिलता है।
बाँसुरी
● यह एक प्राचीन लोकवाद्य है।
● हरिप्रसाद चौरासिया एवं पन्नालाल घोष प्रसिद्ध बाँसुरी वादक हैं।
● बाँसुरी बाँस, पीतल या अन्य किसी धातु की बनाई जाती है।
● इसमें पोली नली में स्वरों के लिए छह छेद बनाए जाते हैं, जिनकी दूरी निश्चित होती है। फूँक देने के लिए एक छेद मुँह की ओर होता है।
शंख
● महाकाव्यकाल में युद्ध की शुरुआत शंख बजाकर की जाती थी।
● शंख एक समुद्री जीव का कवच (खोल) होता है। इसकी आवाज बड़ी गम्भीर और दूर तक जाती है।
● कृष्ण का पाँचजन्य शंख प्रसिद्ध है।
● यह वाद्ययंत्र अक्सर मंदिरों में प्रात:काल और सायंकाल आरती के समय बजाया जाता है।
भूंगल
● इसे भेरी भी कहा जाता है।
● यह मेवाड़ की भवाई जाति का प्रमुख वाद्ययंत्र है।
● इसकी आकृति बाँकिये के समान होती है।
● इसे रण क्षेत्र में भी बजाया जाता है।
● पीतल का बना यह वाद्ययंत्र लगभग तीन हाथ लंबा होता है।
अवनद्ध वाद्ययंत्र
● ऐसे वाद्ययंत्र जिनका निर्माण लकड़ी या धातु के गोलाकार या अर्द्ध गोलाकार घेरे पर पशुओं की खाल मढ़कर किया जाता है तथा जिनमें हाथ या लकड़ी से चोट मारने पर ध्वनि उत्पन्न होती है उन्हें अवनद्ध वाद्ययंत्र कहा जाता है। \
चंग/डफ
● शेखावाटी क्षेत्र में होली के अवसर पर चंग वाद्य बजाया जाता है।
● चंग वाद्य लकड़ी के गोल घेरे से बना होता है, जिसके एक तरफ बकरे की खाल मढ़ी होती है।
● यह दोनों हाथों से बजता है।
● कालबेलिया जाति के व्यक्ति चंग बजाकर लोकगीत गाते हैं।
भपंग
● भपंग मेवात क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य है।
● जहूर खाँ भपंग के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार हैं।
● भपंग कटे हुए तुम्बे पर चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है।
● चमड़े में एक छेद करके तार को एक खूँटी से बाँध देते हैं।
● इस काँख में दबाकर एक हाथ से तांत को खींचकर या ढीला छोड़कर उस पर दूसरे हाथ से लकड़ी के टुकड़े का प्रहार करके बजाया जाता है।
मांदल
● मांदल भीलों और गरासियों का प्रमुख वाद्य है।
● मांदल की बनावट मृदंग के समान होती है।
● यह मिट्टी का बना होता है जिस पर हिरण या बकरे की खाल मढ़ी होती है।
● इसका एक मुँह छोटा और दूसरा मुँह बड़ा होता है।
● इस पर मढ़ी हुई खाल पर जौ का आटा चिपकाकर बजाया जाता है और साथ में थाली बजाई जाती है।
नगाड़ा
● नगाड़ा या नक्कारा लोकनाट्यों में शहनाई के साथ बजाया जाता है।
● इसको अर्द्ध अण्डाकार धातु की कुंडी पर भैंसे की खाल मढ़कर बनाया जाता है।
● बड़ा नगाड़ा नौबत के समान ही होता है, जिसे बम कहते हैं।
● इसे बजाने में लकड़ी के दो डण्डों का प्रयोग करते हैं।
● मंदिरों में व पहले युद्ध के दौरान भी नगाड़ा बजाया जाता था।
● मुगल सम्राट अकबर एक कुशल नगाड़ा वादक था।
मृदंग (पखावज)
● राजस्थान में रावल जाति के लोग नृत्य के साथ इसको बजाते हैं।
● गाँवों में कीर्तन के समय मृदंग का अधिकांशत: प्रयोग होता है।
● इस वाद्ययंत्र को बीजा, सुपारी या वट की लकड़ियों को खोखला करके उस पर बकरे की खाल मढ़कर बनाया जाता है।
● इसका मुँह एक तरफ से चौड़ा तथा दूसरी ओर से सँकरा होता है।
● इसके दोनों ओर बीच में स्याही लगाई जाती है तथा हाथ से आघात करके बजाया जाता है।
ढोलक
● नगारची, साँसी, कंजर, ढाढ़ी मीरासी, कव्वाल, भवाई, बैरागी और साधु संत भजन कीर्तन के समय इसे बजाते हैं।
● ढोलक लकड़ी को खोखला करके इसके दोनों ओर चमड़ा मढ़कर बनाई जाती है।
● यह ढोल का छोटा रूप है।
● इसके दोनों पुड़े लगभग समान व्यास के होते हैं। इस पर लगी डोरियों को कड़ियों से खींचकर कसा जाता है।
● यह दोनों हाथों से बजाया जाता है।
● नट जाति के लोग एक ओर डंडे से और दूसरी ओर हाथ से इसे बजाते हैं।
नौबत
● आजादी से पूर्व राजा-महाराजाओं के महलों के मुख्य द्वार पर भी नौबत बजाई जाती थी।
● नौबत सर्वधातु की लगभग चार फुट गहरी अर्द्ध-अण्डाकार कुंडी को भैंसे की खाल से मढ़कर एवं चमड़े की डोरियों से कसकर बनाई जाती है।
● इसे लकड़ी के डण्डों से मंदिरों में बजाया जाता है।
डेरू
● इसे गोगाजी के भक्तों द्वारा अधिक बजाया जाता है।
● डेरू आम की लकड़ी से निर्मित वाद्य है, जिसके दोनों ओर बारीक चमड़ा मढ़ा होता है इसको डोरियों से कसा जाता है।
● डेरू को एक हाथ से पकड़कर डोरियों को दबाव डालकर कसा और ढीला छोड़ा जाता है तथा दूसरे हाथ से लकड़ी की पतली डंडी से बजाया जाता है।
खंजरी
● खंजरी मुख्यत: कामड़, भील, नाथ, कालबेलिया जाति के लोग बजाते हैं।
● खंजरी आम की लकड़ी की बनी होती है, जिसके एक तरफ चमड़ा मढ़ा होता है। इसका घेरा चार अँगुल चौड़ा होता है। इसे दाहिने हाथ से पकड़कर बाएँ हाथ से बजाया जाता है।
माटे
· माटों पर नायक और रेबारी जाति के लोग लोक देवताओं के पावड़े गाते हैं।
· जोधपुर, नागौर एवं बीकानेर क्षेत्र में प्रचलित लोक वाद्य।
· चौड़े मुँह के मिट्टी के दो बड़े मटके जिनके मुख पर खाल चढ़ी रहती है।
· चमड़े को माटों के किनारों पर चिपकाने के बाद मजबूती के लिए ऊपर रस्सी बाँध दी जाती है। दोनों माटों में एक नर व दूसरा मादा होता है। दो व्यक्ति अलग-अलग एक साथ बजाते हैं।
· वादन के लिए अँगुलियों व हथेली से आघात किया जाता है।
टामक
● प्राचीन काल में इस वाद्य का दुर्ग एवं युद्ध स्थल में प्रयोग किया जाता था।
● वर्तमान काल में भरतपुर, अलवर व सवाई माधोपुर के क्षेत्र में मुख्यतया होली के अवसर पर नृत्य व गायन के साथ वादन किया जाता है।
● लोहे की बड़ी कड़ाई के आकार का वाद्य जिसका ऊपरी भाग भैंसे की खाल से मढ़ा होता है।
● ताल वाद्यों में यह सबसे बड़ा और भारी वाद्य।
● लकड़ी के दो डंडों से आघात करके बजाया जाता है।
ढाक
● गुर्जर व भीलों द्वारा बजाया जाने वाला वाद्य।
● ढाक के खोल की बनावट डेरू जैसी ही होती है लेकिन खोल की लंबाई व चौड़ाई डेरू से अधिक तथा मढ़ाव चमड़े का होता है।
● इसका एक भाग हाथ से तथा दूसरा भाग पतली डंडी से बजाया जाता है।
● वादन के समय वादक इसे पैरों के पंजों के ऊपरी भाग पर रखकर बजाते हैं।
● कोटा, झालावाड़ व टोंक क्षेत्र में बगड़ावत गाथा के साथ मुख्य रूप से बजाया जाता है।
कुंडी
● चाक पर बनी मिट्टी की सामान्य कुंडी के ऊपरी भाग पर बकरे की खाल का मढ़ाव होता है।
● वादक इसे दो छोटी डंडियों के माध्यम से बजाते हैं।
● मुख्यतया आदिवासी नृत्यों के साथ बजाई जाती है।
● राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में प्रचलित वाद्य है।
ताशा
● ताशा को ताँबे की चपटी परत पर बकरे का पतला चमड़ा मढ़कर बनाया जाता है और इसे बाँस की खपच्चियों से बजाया जाता है।
● इसे मुसलमान लोक अधिक बजाते हैं।
घन वाद्ययंत्र
मंजीरा
● यह डूँगरपुर क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र है।
● यह पीतल, ताँबे या काँसे की मिश्रित धातु से बना कटोरीनुमा आकार का वाद्य है, जिसके किनारे फैले हुए होते हैं। इनके मध्य भाग में छेद कर डोरी बाँधी जाती है, जिसे हाथों से पकड़कर दो मंजीरों को आपस में घर्षित कर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
● मंजीरा निर्गुण भजन और होली के गीतों के साथ तथा तन्दूरे एवं इकतारे के साथ भी बजाया जाता है।
● रामदेवजी के भोपे, कामड़ जाति एवं तेरहताली नृत्य में मंजीरों का प्रयोग किया जाता है।
● मंजीरा वाद्य यंत्र हमेशा जोड़े में ही बजाया जाता है।
झाँझ
● यह शेखावाटी क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र है।
● शेखावाटी क्षेत्र में कच्छी घोड़ी नृत्य में इसका मुख्यतः प्रयोग किया जाता है।
● झाँझ मंजीरे का ही बड़ा रूप है। 30 सेन्टीमीटर की लकड़ी पर लोहे के गोल-गोल टुकड़े लगा दिए जाते हैं।
● दो झाँझ को एक साथ एक ही हाथ से बजाया जाता है।
खड़ताल
● यह बाड़मेर-जैसलमेर की मांगणियार जाति का प्रमुख वाद्ययंत्र है।
● स्व. सद्दीक खाँ मांगणियार खड़ताल के राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार हैं।
● खड़ताल कैर व बबूल की लकड़ी के दो टुकड़े के बीच पीतल की छोटी-छोटी गोल तश्तरियाँ लगाकर बनाया जाता है, जो कि लकड़ी के टुकड़ों को परस्पर टकराने के साथ झंकृत होती है।
● खड़ताल को इकतारे के साथ बजाया जाता है।
श्रीमण्डल
● राजस्थान के लोक वाद्यों में यह एक तरंग वाद्यों का प्रकार है।
● श्रीमण्डल लकड़ी के स्टैण्ड पर लगे मिश्रित धातु के पन्द्रह-सोलह गोलाकार टुकड़ों वाला वाद्य है। प्रत्येक टुकड़े की स्वर ध्वनि अलग-अलग होती है।
● वादक हाथों में दो पतली डण्डियों से आघात करके विभिन्न प्रकार की धुन सृजित करते हैं।
● वैवाहिक अवसरों पर बजाया जाता है।
थाली
● चरी नृत्य के दौरान थाली का प्रयोग किया जाता था।
● लोक देवी-देवताओं की आरती के समय थाली बजाई जाती है।
● काँसे की बनी हुई थाली के एक किनारे में छेद कर उसमें डोरी बाँधकर अँगूठे से लटकाकर लकड़ी के डण्डे से बजाया जाता है।
● इसे मांदल, ढफ, ढोल और चंग के साथ बजाने से विशेष ध्वनि उत्पन्न होती है।
● पुत्र जन्म की सूचना भी ग्रामीण क्षेत्रों में थाली बजाकर दी जाती है।
● लोक नृत्य एवं लोकनाट्य के अवसर पर सम्पूर्ण राजस्थान में थाली वाद्य का प्रयोग किया जाता है।
लेजिम
●यह धनुषाकार वाद्य है जिसे बाँस व जंजीर से मिलाकर बनाया जाता है। लेजिम में पीतल की छोटी-छोटी पत्तियाँ लगी होती है जिसे हिलाने पर झनझनाहट की ध्वनि निकलती है।
● विद्यालयों में बालिकाएँ भी लेजिम बजाती है।
● यह गरासिया जनजाति का वाद्य माना जाता है।
घंटा
● प्राचीनकाल में सेना के हाथियों के गले या पीठ पर यह लटकाया जाता था।
● घंटा सूचना वाहक का कार्य करता है।
● घंटा एक उल्टे गमले जैसा वाद्य होता है, जो सामान्यतः पीतल, जस्ता या ताँबे से बना होता है।
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