श्वसन तंत्र
पादप श्वसन में O2 गैस ग्रहण करते हैं, जबकि प्रकाश-संश्लेषण में CO2गैस ग्रहण करते हैं।
- वायुमंडल में गैसों का % –
(i) नाइट्रोजन (78%) – सर्वाधिक
(ii) ऑक्सीजन (21%)
(iii) कार्बन डाई ऑक्साइड – 0.03%
Note :
- वायुमंडल में गैसों का %, नि:श्वसन में गैसों के % के समान होता है।
- गैसों को अंदर लेना नि:श्वसन, जबकि गैसों को बाहर छोड़ना उच्छश्वसन कहलाता है।
- श्वसन दर स्पाइरोमीटर से मापी जाती है।
मनुष्य में श्वसन दर :-
(i) वयस्क – 14-16/मिनट
(ii) नवजात – 45/मिनट
(iii) कठोर परिश्रम – 25/मिनट (सर्वाधिक)
(iv) सोते समय – 10/मिनट (न्यूनतम)
श्वसन की प्रक्रिया को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है :-
1. बाह्य श्वसन
2. गैसों का परिवहन
3. कोशिकीय श्वसन
1. बाह्य श्वसन -
- बाहरी वातावरण एवं फेफड़ों के मध्य गैसों का आदान-प्रदान, बाह्य श्वसन (संवातन) कहलाता है।
Note :
- गैसों का आदान-प्रदान फेफड़ों में होता है अर्थात् मनुष्य में मुख्य श्वसन अंग फेफड़े हैं।
- स्वाइन-फ्लू, बर्ड-फ्लू, कोविड-19, सामान्य जुकाम, T.B., निमोनिया आदि रोगों में श्वसन तंत्र (फेफड़े) प्रभावित होता है।
2. गैसों का परिवहन -
- फेफड़ों एवं कोशिकाओं के मध्य गैसों का परिवहन ‘सरल-विसरण विधि’ (Simple diffusion Method) द्वारा होता है।
Note :
- गैसों का अधिक सान्द्रता से कम सान्द्रता की ओर गमन करना, ‘सरल-विसरण विधि’ कहलाता है। इस विधि में ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती है।
- ऑक्सीजन का अधिकांश (90%) परिवहन हीमोग्लोबिन द्वारा किया जाता है अर्थात् ऑक्सीजन का परिवहन हीमोग्लोबिन द्वारा ऑक्सी हीमोग्लोबिन के रूप में होता है।
- ऑक्सीजन का लगभग 5-7 प्रतिशत परिवहन, रुधिर प्लाज्मा द्वारा भी किया जाता है।
3. कोशिकीय श्वसन -
- यह श्वसन का सबसे अंतिम एवं महत्त्वपूर्ण चरण होता है, जो दो भागों में संपन्न होता है-
(i) ग्लाइकोलाइसिस
(ii) क्रेब्स चक्र
(i) ग्लाइकोलाइसिस -
- यह कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) में संपन्न होता है।
- यह ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में संपन्न होता है।
- इस दौरान कुल 4ATP ऊर्जा मुक्त होती है, जिसमें से 2ATP ऊर्जा खर्च हो जाती है अर्थात् 2ATP ऊर्जा का शुद्ध लाभ होता है।
- ग्लाइकोलाइसिस को EMP (एम्बेडेन मेयरहॉफ पारसन) पथ भी कहा जाता है।
- इस दौरान पाइरुविक अम्ल का निर्माण होता है।
(ii) क्रेब्स चक्र -
- क्रेब्स चक्र कोशिका के माइटोकॉण्ड्रिया में ऑक्सीजन की उपस्थिति में संपन्न होती है।
- यहाँ भोजन के ऑक्सीकरण से 36ATP ऊर्जा प्राप्त होती है इसलिए माइटोकॉण्ड्रिया को ‘कोशिका का शक्ति गृह’ भी कहा जाता है।
Note : ग्लूकोज के 1 अणु के ऑक्सीकरण से कुल 38 ATP (2+36) ऊर्जा मुक्त होती है।
- श्वसन, अपचयी (Catabolic) क्रिया है।
- भ्रूणीय अवस्था में श्वसन (संवातन) नहीं होता है, जबकि श्वसन की क्रिया अपरा (Placenta) के माध्यम से होती है।
- मेंढक में श्वसन त्वचा में जबकि मछलियों में श्वसन गलफड़े/गिल्स से होता है।
श्वसन तंत्र को मुख्यत: तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
(i) ऊपरी श्वसन तंत्र
(ii) निचला श्वसन तंत्र
(iii) मांसपेशी – डायफ्रॉम
- ऊपरी श्वसन तंत्र – इसके अंतर्गत नाक, मुख, ग्रसनी, स्वरयंत्र (Larynx) आदि को शामिल किया जाता है।
- निचला श्वसन तंत्र – इसके अंतर्गत श्वासनली (Trachea), श्वसनी (Bronchus), श्वसनिकाएँ (Bronchioles), फेफड़े, वायुकोष/कूपिका (Alveoli) को शामिल किया जाता है।
नाक –
- यह श्वसन का प्रथम अंग है।
- नासिका पट्ट (Nasal Septum), नासिका को दो भागों में बाँटता है।
- नासिका गुहा, नासा ग्रसनी से जुड़ा भाग होता है।
मुँह –
- मुँह से भी साँस लिया जाता है, लेकिन मुँह की तुलना में नाक से साँस लेना शरीर के लिए अच्छा होता है।
ग्रसनी –
- ग्रसनी, नासिका गुहा से जुड़ी रहती है तथा ग्रसनी को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
(i) नासा ग्रसनी (Nasa Pharynx)
(ii) मुख ग्रसनी (Oral Pharynx)
(iii) कंठ ग्रसनी (Jugular Pharynx)
- नाक से साँस लेने पर वायु नासिका गुहा से नासाग्रसनी में प्रवेश करती है, जबकि मुँह से साँस लेने पर वायु नासाग्रसनी में प्रवेश न कर सीधे मुख-ग्रसनी में प्रवेश करती है।
- नाक से साँस लेने पर वायु नासाग्रसनी, मुख ग्रसनी तथा कंठ ग्रसनी से होते हुए एपीग्लोटिस वॉल्व से स्वरयंत्र तक पहुँचती है।
स्वरयंत्र/कंठ –
- स्वरयंत्र, ग्रसनी को श्वासनली से जोड़ते हैं।
- स्वरयंत्र में 9 प्रकार की उपास्थियाँ (Cartilage) पाई जाती हैं।
- स्वरयंत्र में स्वर रज्जु (Vocal cords) नामक संरचनाएँ पाई जाती हैं, जो श्लेष्मा झिल्लियाँ होती हैं।
- इन झिल्लियों में वायु के गुजरने के कारण कंपन होता है, जिससे ध्वनि की उत्पत्ति होती है।
निचला श्वसन तंत्र –
- फेफड़े, श्वसनी, श्वासनली, श्वसनिकाएँ, कूपिका इसके अंतर्गत शामिल हैं।
- श्वासनली की लंबाई लगभग 5 इंच होती है।
- श्वासनली में अंग्रेजी के ‘C’ आकार के उपास्थियों के छल्ले पाए जाते हैं, जो श्वासनली को चिपकने से रोकते हैं।
- श्वासनली विभक्त होकर श्वसनी में बदल जाती है।
- श्वसनी पुन: विभक्त होकर श्वसनिकाओं में बदल जाती है।
- श्वसनिकाएँ पुन: अतिसूक्ष्म संरचनाओं में बदल जाती हैं, जिन्हें वायुकोष/कूपिका कहा जाता है।
- कूपिका को फेफड़ों की क्रियात्मक इकाई माना गया है।
फेफड़े –
- फेफड़ों के चारों ओर द्विस्तरीय आवरण पाया जाता है, जिसे ‘फुफ्फुसीय आवरण' (Pulmonary Cover) कहा जाता है।
- फेफड़ों का रंग हल्का गुलाबी होता है।
- दाएँ फेफड़े में तीन खण्ड (Loobs) होते हैं, जबकि बाएँ फेफड़े में दो खण्ड होते हैं।
- बाएँ फेफड़े में पाई जाने वाली खाँच, ‘हृदय-खाँच’ कहलाती है, जिसमें हृदय स्थित होता है।
- फेफड़ों में गैसों का आदान-प्रदान होता है।
- फेफड़ों की क्षमता लगभग 5.8 लीटर होती है।
अन्त: श्वसन सुरक्षित आयतन -
- वायु का वह आयतन जो व्यक्ति बलपूर्वक अन्त:श्वसन में ग्रहण करता है। इसकी मात्रा 2500-300 ml होती है।
बहिश्वसन सुरक्षित आयतन –
- व्यक्ति द्वारा बलपूर्वक बाहर छोड़ी गई गैसों का आयतन, ERV कहलाता है।
- ERV का मान लगभग 1000-1100 ml होता है।
अवशिष्ट आयतन –
- बलपूर्वक निकाली गई गैसों के पश्चात् फेफड़ों में बची गैसों की मात्रा, अवशिष्ट आयतन कहलाती है।
- अवशिष्ट आयतन का मान लगभग 1000-1200 ml होता है।
डायफ्रॉम –
- डायफ्रॉम चद्दरनुमा मांसपेशी है, जो श्वसन में सहायक है।
- डायफ्रॉम के संकुचन से वायु नासिका से होती हुई फेफड़ों में प्रवेश करती है, जबकि डायफ्रॉम के शिथिलन से वायु फेफड़ों व नासिका से होते हुए बाहर निकलती है।
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