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राजस्थान की लोक गायन शैलियाँ

राजस्थान की लोक गायन शैलियाँ 

माण्ड गायिकी

· 10वीं सदी में जैसलमेर क्षेत्र को माण्ड कहा जाता था तथा इस क्षेत्र में विकसित गायन शैली को माण्ड गायन शैली कहा गया है।

· प्रसिद्ध मांड गायिकाएँ -
-  अल्लाह जिलाई बाई - बीकानेर
-  गवरी देवी - बीकानेर
-  गवरी देवी - पाली
-  मांगी बाई - उदयपुर

मांगणियार गायिकी

· बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर में मांगणियार जाति के लोगों द्वारा अपने यजमानों के यहाँ मांगलिक अवसरों पर गाई जाने वाली लोक गायन शैली है। 

· प्रमुख वाद्य - कामायचा, खड़ताल 

· प्रसिद्ध कलाकार – पद्मश्री लाखा खाँ (सिंधी सारंगी) साफर खाँ मांगणियार, गफूर खाँ मांगणियार, रमजान खाँ (ढोलक वादक), सद्दीक खाँ (खड़ताल वादक), साकर खाँ मांगणियार (कामायचा वादक)

लंगा गायिकी

· बीकानेर, बाड़मेर, जोधपुर एवं जैसलमेर जिले के पश्चिमी क्षेत्रों में मांगलिक अवसरों एवं उत्सवों पर लंगा जाति के गायकों द्वारा गायी जाने वाली गायन शैली है। 

· प्रमुख वाद्य - सारंगी, कामायचा

· प्रमुख कलाकार - फूसे खाँ, महरदीन लंगा, करीम खाँ लंगा

· प्रमुख गीत - नीबूडा-नीबूडा

तालबंदी गायिकी

· जब औरंगजेब द्वारा संगीत पर रोक लगा दी गई तब ब्रजक्षेत्र के साधु पूर्वी राजस्थान में आकर रहने लगे तथा इन साधुओं द्वारा इस लोक गायन शैली का प्रचलन किया गया था।

· प्रमुख वाद्य – नगाड़ा, सारंगी, हारमोनियम, ढोलक, तबला व झाँझ

प्रमुख लोकगीत

· घूमर– राजस्थान के राज्य नृत्य घूमर के साथ गाया जाने वाला गीत। यह गणगौर के त्योहार एवं विशेष पर्वों-उत्सवों पर गाया जाता है।

“म्हारी घूमर छै नखराली ए माँ,

घूमर रमवा म्हैं जास्याँ………।”

· गोरबन्द–गोरबंद ऊँट के गले का आभूषण होता है, जिस पर शेखावाटी क्षेत्र में लोकगीत गाये जाते हैं–

“म्हारो गोरबन्द नखरालो,

लागी लूमाँ झूमाँ ए

म्हारो गोरबन्द नखरालो”

· मूमल– जैसलमेर में गाया जाने वाला शृंगारिक गीत, जिसमें मूमल के नखशिख का वर्णन किया गया है- 

म्हारी बरसाले री मूमल, 

हालौनी ऐ आलीजे रे देख।

· ओल्यूँ– बेटी की विदाई पर घर की स्त्रियों के द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत। 

कँवर बाई री ओल्यूँ आवै ओ राज।

· पावणा– नए दामाद के ससुराल में आने पर स्त्रियों द्वारा ‘पावणा’ गीत गाए जाते हैं। ये गीत भोजन कराते समय व उसके बाद गाए जाते हैं।

· सीठणे - इन्हें ‘गाली’ गीत भी कहते हैं। ये विवाह समारोहों में हँसी-ठिठोली से भरे इन गाली गीतों से तनमन सराबोर हो उठता है।

· सुपणा - विरहिणी के स्वप्न से सम्बन्धित गीत। 

“सूती थी रंगमहल में, सूताँ में आयो रे जंजाळ,

सुपणा में म्हारा भँवर न मिलायो जी……….।”

· इंडोणी – पानी भरने जाते समय स्त्रियाँ मटके को सिर पर टिकाने के लिए मटके के नीचे इंडोणी का प्रयोग करती है। इस अवसर पर यह गीत गाया जाता है– म्हारी सवा लाख री लूम गम गई इंडोणी।

· गणगौर - यह गणगौर पर गाया जाने वाला गीत है- खेलन दयौ गणगौर, भँवर म्हानै खेलन दयौ गणगौर ।

· घुड़ला– मारवाड़ क्षेत्र में गाया जाने वाला लोकगीत है। यह शीतलाष्टमी से गणगौर तक कन्याओं द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत है।

“घुड़ळो घूमेला जी घूमेला,

घुड़ले रे बाँध्यो सूत …………..।”

· कांगसियो– इस गीत में पति द्वारा उपहार में दिया गया कांगसियो पड़ोसन द्वारा ले जाने पर पत्नी द्वारा बताया जाता है। 

    “म्हारै छैल भँवर रो कांगसियो पणिहारियाँ ले गई रे………।”

· कागा– इसमें विरहिणी नायिका द्वारा कौवे को संबोधित करके अपने प्रियतम के आने का शगुन मनाया जाता है और कौए को प्रलोभन देकर उड़ने को कहती है।

“उड़-उड़ रे म्हारा काळा रे कागला,

जद म्हारा पिवजी घर आवै…………।”

· काजलियो – यह एक शृंगारिक गीत है, जो विशेषकर होली के अवसर पर चंग पर गाया-बजाया जाता है।

· रसिया - ब्रज क्षेत्र में रसिया गाया जाता है। 

· रातीजगा- विवाह, पुत्र जन्मोत्सव, मुण्डन आदि शुभ अवसरों पर रात भर जागकर गीत गाये जाते हैं, जिन्हें रातीजगा कहा जाता है। 

· लावणी - लावणी का अर्थ ‘बुलाने’ से है। नायक के द्वारा नायिका को बुलाने के लिए लावणी गाई जाती है। शृंगारिक व भक्ति संबंधी लावणियाँ प्रसिद्ध हैं। मोरध्वज, सेऊसंमन, भरथरी आदि प्रमुख लावणियाँ हैं। 

· सूवटियां - यह एक विरह गीत है जो मेवाड़ क्षेत्र में गाया जाता है। इस गीत में भील स्त्री परदेस गए पति को संदेश भेजती है।

· कामण–  विवाह में वर को जादू-टोने से बचाने के लिए स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले गीत।

· पीपली - मरुस्थलीय क्षेत्र में वर्षा ऋतु में पीपली गीत गाया जाता है। जिसमें विरहिणी द्वारा प्रेमोद्गार व्यक्त किए जाते हैं। 

· बधावा– शुभ कार्य सम्पन्न होने पर बधावा गीत गाये जाते हैं।

· कुरजाँ– विरहिणी द्वारा कुरजाँ पक्षी के माध्यम से अपने प्रियतम को संदेश भेजती हुई अपने विरह में गीत गाती है। 

“कुरजाँ ए म्हारो भँवर मिला देनी ……………।”

· केसरिया बालम–यह एक रजवाड़ी गीत है, जिसमें विरहिणी अपने प्रियतम को घर आने का संदेश देती है- केसरिया बालम आवो नी, पधारो म्हारे देस।

· घोड़ी– लड़के के विवाह पर बरात की निकासी पर गाए जाने वाले गीत।

“घोड़ी म्हारी चंद्रमुखी सी,

इंद्रलोक सुँ आई ओ राज…………।”

· चिरमी– इस लोकगीत में चिरमी के पौधे को संबोधित कर नई-नवेली वधू द्वारा अपने भाई व पिता की प्रतीक्षा के समय की मनोदशा को दर्शाती है– चिरमी रा डाळा चार वारी जाऊँ चिरमी ने।

· जच्चा –पुत्र जन्मोत्सव पर गाए जाने वाले सामूहिक मंगल गीत। इसे ‘होलर’ भी कहा जाता है।

· जला और जलाल– वधू के घर की स्त्रियों द्वारा बरात का डेरा देखने जाते समय जला और जलाल गीत गाया जाता है- म्हैं तो थारा डेरा निरखण आई ओ म्हारी जोड़ी रा जलाल।

· जीरा– इस गीत में वधू अपने पति से जीरा नहीं बोने की विनती करती है।

“यो जीरो जीव रो बैरी रे,

मत बाओ म्हारा परण्या जीरो……….।”

· झोरावा– यह एक विरह गीत है जो जैसलमेर जिले में पति के परदेस जाने पर उसके वियोग में गाया जाता है।

· ढोला मारू– सिरोही क्षेत्र में ढाढ़ियों द्वारा गाया जाने वाला गीत जिसमें ढोला मारू की प्रेमकथा का वर्णन है।

· तेजा गीत– कृषि कार्य आरंभ करते समय तेजाजी की भक्ति में किसानों द्वारा गाया जाता है।

· पंछीड़ा– हाड़ौती व ढूँढाड़ क्षेत्र में मेलों के अवसर पर अलगोजे, ढोलक व मंजीरे के साथ गाया जाने वाला लोकगीत।

· पणिहारी– इस लोकगीत में स्त्री के पतिव्रत धर्म पर अटल रहना बताया गया है। पानी भरने वाली स्त्री को पणिहारी कहते हैं।

· पपैयो– इस लोकगीत में प्रेमिका अपने प्रेमी को बाग में आकर मिलने का अनुरोध करती हैं। यह गीत दाम्पत्य प्रेम का परिचायक।

· बन्ना-बन्नी – विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीत।

· बीछूड़ो–हाड़ौती क्षेत्र का एक लोकप्रिय गीत है। जिसमें एक पत्नी, जिसे बिच्छू ने डस लिया है और मरने वाली है, अपने पति को दूसरा विवाह करने का संदेश देती है।

· मोरिया–इस सरस लोकगीत में ऐसी नारी की व्यथा है जिसका सम्बन्ध तो हो चुका है किन्तु विवाह होने में देर हो रही है। इसे रात्रि के अंतिम प्रहर में गाया जाता है।

· लांगुरिया - करौली क्षेत्र में कैला देवी के मन्दिर में हनुमानजी को सम्बोधित करके लांगुरिया गीत गाये जाते हैं।

· हरजस- राजस्थानी महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले वे सगुणभक्ति के लोकगीत, जिनमें मुख्यत: राम और कृष्ण दोनों की लीलाओं का वर्णन होता है।

· हिचकी - अलवर (मेवात) का प्रसिद्ध गीत है। ऐसी धारणा है कि किसी के द्वारा याद किए जाने पर हिचकी आती है। 

“म्हारा पियाजी बुलाई म्हानै आई हिचकी ………।”

· हींडो - श्रावण माह में झूला झूलते समय हींडो गाया जाता है- सावणियै रौ हींडो रे बाँधन जाय।

राजस्थान की प्रमुख गायक जातियाँ

● राजस्थान में ऐसी अनेक जातियाँ हैं, जो केवल गा-बजाकर ही अपना गुजारा करती हैं। इनमें ढोली, मिरासी, लंगा, कलावंत, भाट, राव, जोगी, कामड़, वैरागी, गंधर्व, भोपे, भवाई, राणा, कालबेलिया तथा कथिक प्रमुख हैं।

1. मिरासी–
● पेशेवर गायकों में मिरासियों का अपना अलग स्थान है। ये लोग लोक गायन और कविता से जुड़े हुए हैं। 
● सारंगी इनका मुख्य वाद्य है। 
● मारवाड़ क्षेत्र में इन कलाकारों की बहुलता है। 
● भाटों की तरह ये भी वंशावली का बखान करते हैं। 

2. कलावंत–
● अपने हुनर में निष्णात को कलावंत कहा गया है, जिसका तात्पर्य निपुण गायक और वादक से है। 
● कलावंतों में आज भी कुछ कलाकार अपने नाम के आगे 'सेन' तथा कुछ 'खाँ' लगाते हैं। 
● संगीत सम्राट तानसेन से रिश्ता जोड़ने वाले कलावंतों में गौड़ ब्राह्मण और चौहान राजपूत मुख्य है।

3. ढाढी– 
● राजस्थान में ढाढी जाति के लोग भी गा-बाजकर अपना जीवन यापन करते हैं। 
● राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर  जिलों में इनकी संख्या अधिक है। 
● यह कलाकार कामायचा, खड़ताल, सुरणई आदि लोकवाद्य बजाते हैं। 

4. ढोली–
● ढोल बजाने के कारण ये कलाकार ढोली कहलाते हैं। इन्हें दमामी और जावड़ भी कहते हैं। 
● ये अपनी उत्पत्ति गंधर्वों से मानते हैं और राजपूतों के रीति रिवाज मानते हैं। 
● ढोली मृदुभाषी और चातुर्य पूर्ण बात कहने में माहिर होते हैं।

5. रावल–
● यह जाति चारणों को अपना यजमान मानती है। 
● ये लोग गा-बजाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। 
● ये लोग खेल-तमाशे करके भी लोगों का मनोरंजन करवाते हैं। 
● रावल कलाकारों का लोकनाट्य परंपरा में विशिष्ट स्थान है। 

6. लंगा–
● सारंगी इनका प्रमुख वाद्य है। 
● इस जाति के लोग राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर तथा जोधपुर में मुख्य रूप से निवास करते हैं। 
● इनकी भाषा सिंधी, उर्दू मिश्रित राजस्थानी है। 
● चौहान राजपूतों के वाचक इन कलाकरों को संगीत विरासत में मिला है। 
● इनकी गायकी में शास्त्रीय संगीत का ताना-बाना है। 

7. भोपा–
● रावणहत्था इनका प्रमुख लोकवाद्य है। 
● राजस्थान में इनकी कई श्रेणियाँ हैं। 
● भोपे देवी-देवताओं की स्तुति गा-बजाकर कर करते हैं। 
● यह पाबूजी, देवनारायण जी, हड़बूजी, गोगाजी और भैरूजी की फड़ का वाचन करते हैं। 
● भैरूजी के भोपे कमर में घुंघरू बांधकर तथा हंटर से अपने ऊपर वार करते हैं। 
● रामदेवजी के भोपे तंदूरा बजाते हैं।

8. राणा–
● रण में नगाड़ा बजाने वाले कालांतर में 'राणा' कहलाने लगे। 
● यह कलाकार गायन के साथ-साथ नगाड़ा बजाने में भी सिद्धहस्त होते हैं। इस जाति के कलाकार शहनाई बजाते हैं।

9. जोगी–
● इस जाति के कलाकार बीकानेर, जोधपुर, अलवर तथा शेखावाटी क्षेत्र में मुख्य रूप से पाए जाते हैं। 
● इस जाति के लोग नाथ संप्रदाय को मानते हैं। 

10. औघड़ जोगी– 
● कटे हुए कान तथा जटा इनके परिचयात्मक प्रतीक होते हैं। 

11. डोम (डूम)–
● मारवाड़ क्षेत्र के डोम मिरासियों के समान होते हैं तथा इनके रीति-रिवाज भी मिरासियों के समान होते हैं। 

12. भवाई–
● भवाई जाति के कलाकार घूम-घूम कर अपने यजमानों को  मनोरंजन करवाते हैं। 
● ये कलाकार अनेक करतब करके दर्शकों को मनोरंजन करवाते हैं।

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