नियंत्रण एवं समन्वय
न्यूरोलॉजी – विज्ञान की इस शाखा में तंत्रिकाओं का अध्ययन किया जाता है।
तंत्रिकाएँ संवेदनाओं का आदान-प्रदान करती हैं।
कुष्ठ/कोढ़ रोग, रेबीज, टिटेनेस, पोलियो आदि में तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है।
तंत्रिका की क्रियात्मक इकाई न्यूरॉन कहलाती है।
न्यूरॉन शरीर की सबसे लम्बी कोशिका है।
मस्तिष्क तंत्रिकाओं में पुनरुद्भवन क्षमता (Regeneration Power) नगण्य होती है।
न्यूरॉन के मुख्य तीन भाग होते हैं-
(i) सायटोन
(ii) डेन्ड्रॉन
(iii) एक्सॉन
कार्य के आधार पर तंत्रिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं :-
(i) संवेदी तंत्रिकाएँ –
ये तंत्रिकाएँ सर्वप्रथम सक्रिय होती हैं।
ये तंत्रिकाएँ अंगों से मस्तिष्क/मेरुरज्जु की ओर संवेदनाएँ ले जाती हैं।
(ii) प्रेरित तंत्रिकाएँ –
ये तंत्रिकाएँ मस्तिष्क/मेरुरज्जु से प्राप्त निर्देशों को अंगों की ओर ले जाती हैं।
(iii) मिश्रित तंत्रिकाएँ –
प्रेरित + संवेदी
केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (Central Nervous System) :-
केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु (Spinal Cord) को शामिल किया जाता है।
I. मस्तिष्क (Brain) :-
मस्तिष्क हमारे शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं जटिल अंग होता है।
मस्तिष्क को ‘अंगों का राजा’ तथा ‘शरीर का CPU’ भी कहा जाता है।
2-3 वर्ष की आयु तक मस्तिष्क का लगभग 60-70% विकास हो जाता है जबकि लगभग 6-7 वर्ष की आयु तक मस्तिष्क का पूर्ण विकास हो जाता है।
मनुष्य के मस्तिष्क का वज़न लगभग 1300-1400 ग्राम होता है। (1350 ग्राम)
1. अग्र मस्तिष्क –
अग्र मस्तिष्क प्रमस्तिष्क तथा डाईऐनसेफेलोन में बँटा रहता है–
(i) प्रमस्तिष्क (Cerebrum) –
प्रमस्तिष्क, मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग होता है, जो कुल मस्तिष्क का लगभग 70-80 प्रतिशत भाग होता है।
जिस व्यक्ति का प्रमस्तिष्क जितना बड़ा होता है, वह व्यक्ति उतना ही अधिक बुद्धिमान होता है; इसलिए प्रमस्तिष्क को ‘ज्ञान/बुद्धि का केन्द्र’ भी कहा जाता है।
याद्दाश्त, चिंतन, मनन, बोलना, पहचानना, गंध की पहचान करना आदि पर नियंत्रण प्रमस्तिष्क का होता है।
व्यक्ति जब एल्कोहॉल का सेवन करता है, तो प्रमस्तिष्क सर्वाधिक तथा सर्वप्रथम प्रभावित होता है।
थैलेमस डाईऐनसेफेलोन का ऊपरी/अग्र भाग होता है, जो ठंडा, गर्म आदि की अनुभूति में सहायक होता है।
थैलेमस को ‘प्रसारण केन्द्र’ भी कहा जाता है।
(ii) हाइपोथैलेमस (Hypothalamus) –
हाइपोथैलेमस शरीर ताप नियंत्रण, गुस्सा, भूख-प्यास, प्रेम-नफरत, भावनाओं आदि पर नियंत्रण रखता है।
2. मध्य मस्तिष्क (Middle Brain) –
मध्य मस्तिष्क के मुख्य रूप से दो भाग होते हैं-
(i) सेरेब्रल-पेन्डीकल –
यह तंतुनुमा भाग होता है, जो मध्य मस्तिष्क को मस्तिष्क के अन्य भागों से जोड़ता है।
(ii) कॉर्पोरा क्वॉर्ड्रीजैमिना –
यह चार खण्डों में बँटा होता है।
ऊपर के दो खण्ड देखने जबकि नीचे के दो खण्ड सुनने से संबंधित होते हैं अर्थात् मध्य मस्तिष्क का कार्य देखने एवं सुनने से संबंधित है।
3. पश्च मस्तिष्क –
पश्च मस्तिष्क को ‘छोटा मस्तिष्क’ भी कहा जाता है।
पश्च मस्तिष्क को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है–
(i) पोंस –
यह तंतुनुमा भाग होता है, जो डाईऐनसेफेलोन तथा मैडूला-ओब्लोगेटा के मध्य स्थित होता है।
यह पश्च मस्तिष्क को मस्तिष्क के अन्य भागों तथा मेरुरज्जु (Spinal Cord) से जोड़ता है।
पोंस में श्वसन नियंत्रण का केन्द्र होता है।
(ii) अनुमस्तिष्क/सेरेबैलम –
प्रमस्तिष्क के पश्चात् अनुमस्तिष्क, मस्तिष्क का दूसरा सबसे बड़ा भाग है।
इसका आकार फूल/तितली के समान होता है।
अनुमस्तिष्क हमारी ऐच्छिक पेशियों के नियंत्रण में सहायक होता है अर्थात् अनुमस्तिष्क शरीर के संतुलन को बनाए रखने में सहायक होता है।
(iii) मैडूला-ओब्लोगेटा –
मैडूला-ओब्लोगेटा मस्तिष्क का अंतिम भाग होता है, जो मेरुरज्जु से जुड़ा रहता है।
यह मस्तिष्क का त्रिभुजाकार भाग होता है।
मैडूला-ओब्लोगेटा शरीर की अनैच्छिक क्रियाओं; जैसे – हृदय स्पंदन, रक्त दाब, उल्टी आदि को नियंत्रित करता है।
मस्तिष्क के चारों ओर तीन प्रकार की झिल्लियाँ पाई जाती हैं-
(i) ड्यूरामैटर – मस्तिष्क की सबसे बाहरी झिल्ली
(ii) एरेक्नॉइड – मस्तिष्क की मध्य झिल्ली
(iii) पायामैटर – मस्तिष्क की सबसे भीतरी झिल्ली
एरेक्नॉइड एवं पाया मैटर के मध्य द्रव भरा रहता है, जिसे ‘मस्तिष्क द्रव’ या CSF (सेरेब्रो स्पाइनल फ्लूड) कहा जाता है।
CSF मस्तिष्क की झिल्लियों को घर्षण से बचाता है तथा आघातों से सुरक्षा प्रदान करता है।
मेरुरज्जु में CSF की कुछ मात्रा (लगभग 150 ml) पाई जाती है।
मस्तिष्क की इन झिल्लियों को मेनिनजाइस कहा जाता है तथा जब इन झिल्लियों में संक्रमण होता है, तो इनमें सूजन आ जाती है, जिसे ‘मेनिनजाइटिस’ कहा जाता है।
राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र गुरुग्राम/नई दिल्ली में स्थित है।
मस्तिष्क से संबंधित विकार– अल्जाइमर, पार्किन्सन रोग
II. मेरुरज्जु (Spinal Cord) :-
मेरुरज्जु में पाई जाने वाली गुहा केन्द्रीय नाल (Central Canal) कहलाती है, जिसमें CSF भरा रहता है। मेरुरज्जु का कार्य प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex Action) जैसे गर्म, ठंडी या नुकीली वस्तु के स्पर्श होने/चुभने पर अंगों का हट जाना आदि पर नियंत्रण करना होता है।
परिधीय तंत्रिका तंत्र :-
इसके अंतर्गत कपाल तंत्रिकाओं (Cranial Nerves) तथा मेरु तंत्रिकाओं (Spinal Nerves) को शामिल किया जाता है।
कपाल से निकलने वाली तंत्रिकाएँ कपाल तंत्रिकाएँ कहलाती हैं तथा कपाल तंत्रिकाओं की संख्या 12 जोड़ी होती है।
मेरुरज्जु से निकलने वाली तंत्रिकाएँ मेरु तंत्रिकाएँ कहलाती हैं तथा मेरु तंत्रिकाओं की संख्या 31 जोड़ी होती हैं।
स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (ANS) :-
यह तंत्रिका समूह होता है जो उन क्रियाओं के नियंत्रण में सहायक होता है, जिन पर हमारी इच्छाओं का नियंत्रण नहीं होता है।
जैसे – फेफड़ों का सिकुड़ना, फैलना, हृदय स्पंदन आदि।
स्वायत्त तंत्रिका तंत्र को दो भागों में बाँटा जा सकता है –
(i) अनुकंपी
(ii) परानुकंपी
(i) अनुकंपी - ये क्रियाएँ आपातकालीन परिस्थितियों या उत्तेजना के समय संपन्न होती हैं अर्थात् इस स्थिति में हृदय की धड़कन व श्वसन दर बढ़ जाती है तथा पाचक रस का स्रावण कम हो जाता है।
(ii) परानुकंपी – अनुकूल परिस्थितियों में ये हमें सहारा प्रदान करती हैं तथा इस स्थिति में ये हृदय दर, श्वसन दर आदि को सामान्य बनाए रखती है तथा पर्याप्त मात्रा में पाचक एंजाइमों का स्रावण भी होता है।
अंतस्रावी तंत्र :-
एण्डोक्राइनोलॉजी में अंत:स्रावी ग्रंथियों एवं हॉर्मोनों का अध्ययन किया जाता है।
थॉमस एडीसन को ‘अंत:स्रावी तंत्र का जनक’ कहा जाता है।
अंत:स्रावीग्रंथियाँ | बहिस्रावीग्रंथियाँ |
1.अंत:स्रावी ग्रंथियाँ नलिका विहीन (Ductless) होती हैं। | 1.बहिस्रावी ग्रंथियाँ नलिकायुक्त होती हैं। |
2.अंत:स्रावी ग्रंथियाँ हॉर्मोन बनाती हैं। | 2.बहिस्रावी ग्रंथियाँ एंजाइम बनाती हैं। |
3.ये ग्रंथियाँ रक्त में हॉर्मोन स्रावित करती हैं अर्थात् हॉर्मोन रक्त के माध्यम से कार्यस्थल तक पहुँचता है। | 3.एंजाइम उत्पत्ति स्थल पर ही सक्रिय होते हैं। |
4.हॉर्मोन प्रोटीन, वसा या कार्बोहाइड्रेड के बने होते हैं। उदाहरण – - पीयूष - एड्रीनल | 4.एंजाइम सामान्यत: प्रोटीन के बने होते हैं। उदाहरण – - लार ग्रंथियाँ, - दूध ग्रंथियाँ, - पसीने की ग्रंथियाँ |
Note :
अग्न्याशय (Pancreases) एक मिश्रित ग्रंथि है।
हॉर्मोन को रासायनिक संदेशवाहक भी कहा जाता है।
हॉर्मोन का अर्थ होता है- उद्दीपन करना, प्रेरित करना।
अंत:स्रावी ग्रंथियों से संबंधित खोजा गया प्रथम रोग-एडीसन।
शरीर की प्रमुख अंत:स्रावी ग्रंथियाँ :-
(1) हाइपोथैलेमस
(2) पीनियलकाय
(3) पीयूष (पिट्यूटरी)
(4) थायमस
(5) थायरॉइड (अवटु ग्रंथि)
(6) पैराथायरॉइड (पराअवटु)
(7) एड्रीनल (अधिवृक्क ग्रंथि)
(8) अग्न्याशय (मिश्रित ग्रंथि)
(9) वृषण (Testes)
(10) अण्डाशय
(11) अपरा/Placenta (अस्थाई अंत:स्रावी ग्रंथियाँ)
(1) हाइपोथैलेमस :-
हाइपोथैलेमस मस्तिष्क का एक भाग भी होता है तथा यह एक अंत:स्रावी ग्रंथि भी है।
हाइपोथैलेमस को ‘मास्टर ऑफ मास्टर ग्रंथि, 'सुपर मास्टर ग्रंथि', सुपीरियर कमांडर’ नामों से भी जाना जाता है।
हाइपोथैलेमस का प्रमुख कार्य शरीर के ताप का नियंत्रण करना है।
जैसे- गुस्सा, भूख-प्यास, प्रेम, नफरत, भावनाएँ आदि।
(2) पीनियल काय :-
यह ग्रंथि मस्तिष्क में स्थित होती है।
इस ग्रंथि को ‘मस्तिष्क की रेत’, जैविक घड़ी (Biological Clock) तथा ‘तीसरी आँख’ भी कहा जाता है।
महिलाओं में यह ग्रंथि मासिक चक्र को नियमित करने में सहायक होती है।
इस ग्रंथि से मैलिटॉनिन हॉर्मोन स्रावित होता है।
मैलिटॉनिन हॉर्मोन त्वचा पर मैलेनीन वर्णक एकत्र करके त्वचा का रंग साफ करता है।
(3) पीयूष (पिट्यूटरी) ग्रंथि :-
स्फेनॉइड हड्डी की सेलाटर्सिका गुहा में लटकी होती है।
मस्तिष्क में स्थित होती है।
पीयूष ग्रंथि को ‘मास्टर ग्रंथि’ कहते हैं।
पीयूष ग्रंथि शरीर की सबसे छोटी ग्रंथि है, जिसका वजन 05 ग्राम होता है।
पीयूष ग्रंथि का आकार मटर के दाने के समान होता है।
(i) वृद्धि हॉर्मोन (GH/STH) –
इसे सोमेटोट्रॉपिन हॉर्मोन भी कहा जाता है।
यह हॉर्मोन शारीरिक वृद्धि में सहायक होता है।
बच्चों में इस हॉर्मोन की कमी से बौनापन हो जाता है अर्थात् शरीर की लम्बाई सामान्य से कम रह जाती है।
बच्चों में इस हॉर्मोन की अधिकता से शरीर की लम्बाई सामान्य से अधिक हो जाती है, जिसे महाकायता/भीमकायता कहा जाता है।
वयस्क में वृद्धि हॉर्मोन की कमी से ‘सिमन्द’ जबकि अधिकता से एक्रोमिगैली (Acromegaly) रोग हो जाता है, जिसमें हाथों-पैरों की मांसपेशियाँ बढ़ जाती है तथा जबड़े में भी असामान्य वृद्धि हो जाती है।
(ii) TSH (थायरॉइड स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन) –
यह हॉर्मोन थायरॉइड ग्रंथि (अवटु-ग्रंथि) को हॉर्मोन बनाने के लिए प्रेरित करता है।
(iii) ACTH (एड्रीनो कॉर्टिकोट्रॉपिक हॉर्मोन) –
यह हॉर्मोन अधिकवृक्क ग्रंथि (एड्रीनल ग्रंथि) के बाहरी भाग (कॉर्टेक्स) को हॉर्मोन बनाने के लिए प्रेरित करता है।
(iv) प्रौलेक्टिन/लैक्टोजैनिक हॉर्मोन –
यह हॉर्मोन केवल महिलाओं में ही बनता है तथा महिलाओं में स्तन ग्रंथियों के विकास में सहायक होता है तथा यह हॉर्मोन प्रसव-पश्चात् महिलाओं में दूध निर्माण को प्रेरित करता है।
(v) FSH (फॉलिकल स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन) -
इसे पुटिका हॉर्मोन भी कहा जाता है।
यह हॉर्मोन नर में शुक्रजनन (शुक्राणुओं का निर्माण) जबकि मादा में अण्डजनन (अण्डाणुओं की निर्माण) को प्रेरित करता है।
(vi) LH (ल्यूटीनाइजिंग हॉर्मोन) -
नर में यह हॉर्मोन, टेस्टोस्टेरॉन हॉर्मोन जबकि मादा में एस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्ट्रॉन हॉर्मोन के निर्माण को प्रेरित करता है।
महिलाओं में यह हॉर्मोन अण्डोत्सर्ग को प्रेरित करता है।
Note : FSH तथा LH को संयुक्त रूप से GTH (गोनेडोट्रॉपिन हॉर्मोन) भी कहा जाता है।
(vii) MSH (मैलेनाइसाइट्स स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन) -
यह हॉर्मोन त्वचा पर मैलेनिन-वर्णक को फैलाकर त्वचा का रंग गहरा करता है।
इसके कारण त्वचा पर काले निशान, तिल आदि हो जाते हैं।
(viii) ऑक्सीटॉसीन/पिटोसीन –
यह हॉर्मोन ‘प्रसव पीड़ा हॉर्मोन’ कहलाता है।
इसे ‘लव हॉर्मोन’ कहा जाता है।
महिलाओं में यह हॉर्मोन सहानुभूति के निर्धारण में सहायक होता है।
इस हॉर्मोन को दूध स्खलन/दूध निष्कासन हॉर्मोन भी कहा जाता है।
ये हॉर्मोन बच्चे के जन्म में सहायक होते हैं।
(ix) ADH (एंटी डाई यूरेटिक हॉर्मोन) -
यह रक्त दाब बढ़ाने में भी सहायक होता है।
इसे वैसोप्रेसीन हॉर्मोन भी कहते हैं।
यह हॉर्मोन नेफ्रॉन में जल की अतिरिक्त मात्रा का अवशोषण करके मूत्र की मात्रा को नियंत्रित करता है।
इस हॉर्मोन की कमी से मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे व्यक्ति को बार-बार प्यास लगती है, इसे ‘डायबिटीज इनसिपीड्स’ कहा जाता है।
अत्यधिक चाय एवं एल्कोहॉल के सेवन से ADH की मात्रा कम हो जाती है, जिससे व्यक्ति को बार-बार पेशाब लगता है।
मरुस्थलीय जीवों में यह हॉर्मोन अपेक्षाकृत अधिक बनता है।
(4) थायरॉइड/अवटु ग्रंथि :-
यह ग्रंथि श्वासनली के दोनों ओर ‘H’ आकार में स्थित होती है।
यह शरीर की सबसे बड़ी अंत:स्रावी ग्रंथि है।
इस ग्रंथि से मुख्यत: थायरॉक्सीन एवं कैल्सिटॉनिन हॉर्मोन बनते हैं।
थायरॉक्सीन के प्रमुख कार्य –
(i) यह RBC के विकास में सहायक होता है।
(ii) यह बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास में सहायक होता है।
(iii) यह हॉर्मोन BMR (आधार उपापचयी दर) को बनाए रखने में सहायक होता है।
Note : किसी भी प्राणी को केवल जीवित रहने के लिए आवश्यक न्यूनतम ऊर्जा स्तर, BMR कहलाता है।
(iv) यह हॉर्मोन कार्बोहाइड्रेट प्रोटीन के उपापचयन में सहायक होता है।
थायरॉक्सीन की कमी से बच्चा मंद बुद्धि का होता है, जिसे जड़ वामनता (क्रिटेनिज्म) कहा जाता है।
वयस्क में थायरॉक्सीन की कमी से शरीर में अनावश्यक सूजन आ जाती है, जिसे ‘मिक्सीडिमा’ कहा जाता है।
थायरॉक्सीन की अधिकता से आँखें बड़ी एवं डरावनी हो जाती हैं, जिसे ‘एक्सोफ्थेलमिक ग्वॉइटर’ कहा जाता है। (बेसडाऊ)
Note –
थायरॉक्सीन आयोडीनयुक्त हॉर्मोन है।
आयोडीन की कमी से घेंघा/ग्वॉइटर हो जाता है, जिसमें थायरॉइड ग्रंथि में सूजन आ जाती है। पहाड़ी क्षेत्र के लोगों में घेंघा अधिक होता है।
समुद्री उत्पाद आयोडीन के अच्छे स्रोत होते हैं।
हाशिमोटो –
यह स्वप्रतिरक्षी रोग है।
जब थायरॉइड ग्रंथि के उपचार हेतु दवाइयाँ दी जाती हैं, तो प्रतिरक्षी इन दवाइयों के साथ-साथ थायरॉइड ग्रंथि को भी बाहरी पदार्थ मानकर नष्ट कर देते हैं, तो इसे ‘हाशिमोटो रोग’ कहा जाता है।
हाशिमोटो को ‘थायरॉइड ग्रंथि की आत्महत्या’ भी कहा जाता है।
इस ग्रंथि की C-कोशिकाओं से कैल्सिटॉनिन हॉर्मोन स्रावित होता है।
(5) पराअवटु/पैराथायरॉइड ग्रंथि :-
यह ग्रंथि, थायरॉइड ग्रंथि के पश्च भाग में स्थित होती है, जो थायरॉइड ग्रंथि में धँसी हुई प्रतीत होती है।
इसकी संख्या 4-6 होती है।
इस ग्रंथि से पैराथॉर्मोन नामक हॉर्मोन बनता है, जिसे ‘कॉलिप हॉर्मोन’ भी कहा जाता है।
कॉलिप हॉर्मोन हड्डियों से अतिरिक्त कैल्सियम का अवशोषण करके रक्त में लाता है।
कॉलिप हॉर्मोन की अधिकता से हड्डियाँ कमजोर एवं छिद्रित हो जाती हैं, जिसे ‘ऑस्टियोपोरोसिस’ कहा जाता है।
कॉलिप हॉर्मोन की कमी से मांसपेशियों में संकुचन नहीं हो पाता है, जिसे ‘टिटेनी’ कहा जाता है।
(6) थायमस (Thymes) ग्रंथि :-
यह ग्रंथि हृदय के ठीक सामने स्थित होती है।
इस ग्रंथि से थायमोसीन हॉर्मोन बनता है, जो T-लिम्फोसाइट्स (WBC का प्रकार) के विकास में सहायक होता है अर्थात् यह ग्रंथि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता से संबंधित है।
थायमस ग्रंथि को ‘T-लिम्फोसाइट्स की प्रशिक्षणशाला’ भी कहा जाता है।
(7) अग्न्याशय (Pancreas) :-
यह आमाशय के ठीक नीचे स्थित होती है।
यह एक मिश्रित ग्रंथि है, जिसका लगभग 98% भाग बहिस्रावी (Exocrine), जबकि 2% भाग अंत:स्रावी (Endocrine) होता है।
यह यकृत के बाद दूसरी सबसे बड़ी ग्रंथि है।
इस ग्रंथि का अंत:स्रावी भाग पूरी ग्रंथि में बिखरा हुआ होता है, जिन्हें ‘लैंगरहैंस की द्वीप संरचनाएँ’ कहा जाता है।
इस ग्रंथि के अंत:स्रावी भाग में निम्नलिखित तीन प्रकार की कोशिकाएँ पाई जाती हैं–
(i) एल्फा कोशिकाएँ
(ii) बीटा कोशिकाएँ
(iii) गामा कोशिकाएँ
(i) एल्फा कोशिकाएँ –
ये कुल कोशिकाओं का लगभग 20-25% भाग होती हैं।
इन कोशिकाओं से ग्लूकेगोन (Glucagon) हॉर्मोन बनता है।
ग्लूकेगोन हॉर्मोन रक्त में शर्करा स्तर बढ़ाता है।
(ii) बीटा कोशिकाएँ –
ये कुल कोशिकाओं का लगभग 60-70 % भाग होता है।
इनसे इंसुलिन हॉर्मोन बनता है।
इंसुलिन, रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता है।
इंसुलिन की कमी से रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है, जिसे मधुमेह ‘डायबिटीज मैलाइट्स’ कहा जाता है।
इंसुलिन की अधिकता से रक्त में शर्करा की मात्रा अत्यंत कम हो जाती है, जिसे ‘हाइपोग्लाइसीमिया’ कहा जाता है।
Note –
विश्व डायबिटीज दिवस 14 नवम्बर को मनाया जाता है।
अंगदान दिवस 13 अगस्त को मनाया जाता है।
विश्व स्वास्थ्य दिवस 7 अप्रैल को मनाया जाता है।
इंसुलिन की खोज बेस्ट बेंटिंग ने की।
कृत्रिम रूप से बना इंसुलिन ह्यूमीलीन कहलाता है।
इंसुलिन में 51 अमीनो अम्ल पाए जाते हैं।
इंसुलिन की सक्रियता हेतु जिंक आवश्यक होता है।
(iii) गामा कोशिकाएँ –
ये कुल कोशिकाओं का 5-10 % भाग होती हैं।
इनसे सोमेटोस्टेटीन हॉर्मोन स्रावित होता है।
यह हॉर्मोन, ग्लूकेगोन एवं इंसुलिन की मात्रा को संतुलित बनाए रखने में आवश्यक होता है।
इंसुलिन अटैक (Insulin Attack) -
व्यक्ति द्वारा ज्यादा शारीरिक श्रम या उपवास की स्थिति में इंसुलिन का इंजेक्शन लगाने से शरीर में अचानक शर्करा स्तर कम होने से व्यक्ति की मौत हो जाती है, जिसे ‘इंसुलिन अटैक’ कहा जाता है।
(8) अपरा (Placenta)/आँवल :-
विकसित होते हुए भ्रूण एवं गर्भाशय के मध्य बनने वाली संरचना, जिससे भ्रूण को पोषण प्राप्त होता है, अपरा (Placenta) कहलाती है।
यह एक अस्थाई अंत:स्रावी ग्रंथि है।
अपरा (Placenta) से मुख्य रूप से दो हॉर्मोन बनते हैं–
(i) रिलैक्सीन
(ii) HCG
(i) रिलैक्सीन हॉर्मोन -
यह हॉर्मोन प्रसव के समय गर्भाशय को रिलैक्स कर देता है, जिससे प्रसव पीड़ा कम होती है।
(ii) HCG (ह्यूमन कोरियोनिक गोनेडोट्रापीन हॉर्मोन) –
इसे ‘गर्भधारण की जाँच का हॉर्मोन’ भी कहा जाता है।
इस हॉर्मोन की सहायता से महिलाओं के गर्भवती होने का पता लगाया जाता है अर्थात् मूत्र में इस हॉर्मोन की उपस्थिति महिलाओं में गर्भधारण का संकेत होती है।
(9) एड्रीनल/अधिवृक्क ग्रंथि :-
एड्रीनल ग्रंथि दोनों वृक्कों पर स्थित होती है अर्थात् एड्रीनल ग्रंथि संख्या में दो होती है।
एड्रीनल ग्रंथि का आकार टोपी के समान होता है।
एड्रीनल ग्रंथि हमारी बुद्धि को चुनौती देती है, इसलिए इसे ‘Wisdom of Life’ भी कहा जाता है।
यदि एड्रीनल ग्रंथि को शरीर से निकाल दिया जाए तो व्यक्ति अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाता है।
एड्रीनल ग्रंथि को 'जीवन-रक्षक ग्रंथि' भी कहा जाता है।
एड्रीनल ग्रंथि के दो भाग होते हैं-
(i) बाहरी भाग – कॉर्टेक्स (Cortex) कहलाता है, जो इस ग्रंथि का लगभग 80-90% भाग होता है।
(ii) भीतरी भाग – मैड्यूला (Medulla) मध्यांश कहलाता है, जो इस ग्रंथि का लगभग 10-20 प्रतिशत भाग होता है।
कॉर्टेक्स (वल्कुट) से बनने वाले हॉर्मोन –
(i) मिनरैलोकॉर्टिकॉइड्स –
इस समूह का प्रमुख हॉर्मोन एल्डेस्टेरोन (Aldosterone) है।
यह हॉर्मोन शरीर में आयनों का संतुलन बनाए रखने में सहायक होता है।
यह हॉर्मोन सोडियम (Na) के अवशोषण तथा पोटैशियम (K) के उत्सर्जन को बढ़ावा देता है।
इस हॉर्मोन की कमी से एडीसन रोग हो जाता है, जिसमें त्वचा, काँस्य (Bronze) रंग की हो जाती है एवं B.P. कम हो जाता है।
इसकी अधिकता से कोन्स (Con’s) रोग हो जाता है। (त्वचा-रंग-काँस्य रंग)
(ii) ग्लूकेकॉर्टिकॉइड्स –
इस समूह के प्रमख हॉर्मोन कॉर्टिसॉल एवं कॉर्टिसन है।
कॉर्टिसॉल हॉर्मोन को 'जीवन-रक्षक हॉर्मोन' भी कहा जाता है।
ये हॉर्मोन उपापचयी क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं।
कॉर्टिसॉल हॉर्मोन RBC के निर्माण को भी प्रेरित करता है।
कॉर्टिसॉल हॉर्मोन का प्रयोग आजकल अंग-प्रत्यारोपण में भी किया जाता है।
(iii) सेक्स हॉर्मोन –
एड्रीनल ग्रंथि के कॉर्टेक्स से बहुत ही कम मात्रा में सेक्स हॉर्मोन भी बनते हैं।
महिलाओं में इस ग्रंथि द्वारा सेक्स हॉर्मोन अधिक मात्रा में बनने पर शरीर एवं चेहरे पर अधिक बाल उगते हैं।
मैड्यूला (Medulla)/मध्यांश से मुख्यत: एड्रीनल हॉर्मोन बनता है।
यह हॉर्मोन आपातकालीन परिस्थितियों से सामना करने में सहायक होता है। इसलिए इसे ‘करो-मरो या लड़ो-उड़ो हॉर्मोन’ भी कहा जाता है।
एड्रीनल ग्रंथि को 3F (Fear, Fight, Flight) ग्रंथि तथा 4S ग्रंथि (Sex, Salts, Sugar, Stress) भी कहा जाता है।
(10) जनन ग्रंथियाँ :-
नर में वृषण (Testis) जनन ग्रंथियों के रूप में होते हैं।
वृषण टेस्टोस्टेरॉन हॉर्मोन स्रावित करते हैं, जिसे नर हॉर्मोन कहा जाता है।
यह हॉर्मोन नर में द्वितीयक लैंगिक लक्षणों; जैसे- आवाज़ का भारी होना, दाढ़ी-मूँछों का आना, शरीर पर अधिक बालों का होना आदि के विकास में सहायक होता है।
महिलाओं में अण्डाशय जनन ग्रंथियों के रूप में होते हैं।
इनसे एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रॉन हॉर्मोन स्रावित होते हैं।
एस्ट्रोजन हॉर्मोन महिलाओं में द्वितीयक लैंगिक लक्षणों; जैसे- आवाज़ का पतला होना, शरीर पर कम बालों का होना आदि के विकास में सहायक होता है।
एस्ट्रोजन हॉर्मोन को महिला वृद्धि का हॉर्मोन भी कहा जाता है।
प्रोजेस्ट्रॉन हॉर्मोन महिलाओं में गर्भधारण को बनाए रखने में सहायक होता है, इसलिए इसे ‘गर्भधारण का हॉर्मोन’ भी कहा जाता है।
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